jalatee rahegee vidroh kee aag
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Hindi Immortal Story: “अगर आप हमारे धर्म का मजाक उड़ाएँगे, तो हम भी चुप नहीं रहेंगे। हम आपकी बातों का जवाब देंगे और आपका भी मजाक उड़ाएँगे। हम यहाँ पढ़ने के लिए आए हैं, पर अपने देश और धर्म का अपमान बर्दाश्त नहीं करेंगे, चाहो जो हो जाए।”

चाईबासा के मिशन स्कूल में पढ़ने वाले छोटे से आदिवासी बालक ने निर्भीकता से पादरी को जवाब दिया, तो वह हक्का-बक्का रह गया। वह तो समझता था कि ये छोटे-छोटे आदिवासी बच्चे बड़े दीन-हीन और नासमझ हैं। इन्हें जो भी सिखाया जाए, वही ये मान लेंगे। पर इन्हीं में बिरसा भी था। एक बड़ा ही बुद्धिमान बालक, जो हर पल अपने देश और महान पुरखों के बारे में सोचता था। अपने देश के धर्म और संस्कृति के बारे में सोचता था। और यह देखकर दुखी होता था कि अंग्रेज पग-पग पर हमें अपमानित कर रहे हैं और हमारे धर्म और संस्कृति को पैरों तले रौंद रहे हैं।

बिरसा के इन विद्रोही विचारों के कारण उसे स्कूल से निकाल दिया गया। पर उसके भीतर विद्रोह की जो चिनगारी पैदा हो गई थी, वह आसानी से बुझने वाली नहीं थी। और एक दिन बिरसा के मन में चलने वाला विद्रोह जब आँधी बनकर फूटा, तो अंग्रेजों को समझ में आया कि जिसे वे दीन-हीन और नासमझ आदिवासी बालक समझ रहे थे, वह तो पूरे भारत के लिए प्रचंड क्रांति की मशाल बन चुका है।

भारत के स्वाधीनता सेनानियों में बिरसा मुंडा सबसे निराले थे। उन्होंने मुंडा आदिवासियों में जागृति की लहर पैदा करते हुए उन्हें अंग्रेजी शासन की गुलामी के अंधकार को दूर करने की प्रेरणा दी। इससे आदिवासियों के साथ-साथ पूरे भारत में एक नया जोश और स्वाभिमान का भाव पैदा हुआ और अंग्रेजी सत्ता की चूलें हिल गईं।

बिरसा मुंडा बचपन से ही बड़े निर्भीक स्वभाव के थे। उनके पिता, चाचा, ताऊ आदि ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था। बिरसा ने दूसरे आदिवासियों की तरह बचपन में बहुत गरीबी देखी। वे भेड़-बकरियाँ चराते थे और आदिवासी लोगों की इस हालत के बारे में मन ही मन सोचा करते थे। कुछ समय बाद उन्हें बाँसुरी बजाने का शौक लगा। वे इतनी प्यारी बाँसुरी बजाते थे और बाँसुरी बजाते हुए अपने में इतने खो जाते थे कि लोगों को आश्चर्य होता था। कई बार बिरसा के बाँसुरी बजाने में लीन हो जाने के कारण उनकी भेड़-बकरियाँ पड़ोस के खेत में चरने चली गईं। इस पर बिरसा को डाँट भी पड़ी। पर बाँसुरी बजाने का उनका शौक नहीं छूटा।

कुछ बड़े होने पर बिरसा पहले बुर्जु और फिर चाइबासा के मिशन स्कूल में पढ़ने गए। पढ़ाई उन्हें अच्छी लगती थी और जो कुछ पढ़ाया जाता, वह उन्हें झटपट याद हो जाता। पर वे यह देखकर दुखी होते कि पादरी उनके धर्म का बुरी तरह मखौल उड़ाते। कुछ समय तो बिरसा ने इसे झेला, फिर वे भी जवाब में ईसाई धर्म की कुछ बातों का मजाक उड़ाने लगे। इससे पादरियों को बहुत क्रोध आया और बिरसा को उन्होंने स्कूल से निकाल दिया।

बिरसा को जितना स्कूल से निकाले जाने का दुख था, उससे बढ़कर वे इस बात से दुखी थे कि हमारे समाज और लोगों में जागृति नहीं है। इसलिए बाहर से आए अंग्रेज न सिर्फ हम पर शासन कर रहे हैं, बल्कि उनका यहाँ तक साहस बढ़ गया है कि वह हमारे ही देश में आकर हमारे धर्म की खिल्ली उड़ा रहे हैं। उन्हीं दिनों बिरसा का संपर्क स्वामी आनंद पांडेय से हुआ। स्वामी जी सच्चे तेजस्वी संत थे, जिनके मन में धर्म और ज्ञान के साथ-साथ देशभक्ति की भी ज्वाला जलती थी। स्वामी जी ने पहचान लिया कि बिरसा के भीतर कुछ कर गुजरने की ललक और देशभक्ति की प्रचंड ज्वाला है। बस, बिरसा को उसकी पहचान करानी होगी।

स्वामी जी ने बड़ी लगन से बिरसा को हिंदू धर्म और भारत के प्राचीन धर्मग्रंथों की शिक्षा दी। साथ ही उनकी देशभक्ति की भावना को भी एक नए रूप में ढाला। अब बिरसा समझने लगे थे कि उनकी प्यारी मातृभूमि इतनी दुखी और बेहाल क्यों है। भारतमाता बेड़ियों में जकड़ी हुई है और सिसक रही है। उसे स्वतंत्र किए बिना इस देश में सुख-समृद्धि नहीं आ सकती। और उसके लिए अंग्रेजों से युद्ध लड़ना होगा। पर इससे पहले अपने सोए हुए समाज को जगाना जरूरी है।

धीरे-धीरे बिरसा इतने अधिक चिंतनशील हो गए कि उनका व्यक्तित्व सभी को प्रभावित करने लगा। आदिवासी उन्हें मसीहा मानने लगे। वे उनकी हर बात को आदर के साथ सुनते और मानते थे।

एक बार की बात, बिरसा अपने मित्र के साथ जंगल से लौट रहे थे, तभी बिजली जैसी अलौकिक चौंध दिखाई पड़ी जो अगले ही पल उनमें समा गई। तभी से बिरसा का व्यक्तित्व और जीवन ही बदल गया। उनमें अपार चमत्कारिक शक्तियाँ नजर आने लगीं। अब वे लोगों को समाज-सुधार की बातें बताते। पुरानी रूढ़ियों और अंधविश्वासों से दूर हटकर नए विचारों को अपनाने की प्रेरणा देते। साथ ही वे आदिवासियों में देशभक्ति की भावना पैदा कर रहे थे, जिससे लोग अंग्रेजी शासन के जुए को उतार फेंके।

इससे अंग्रेजी सत्ता बौखला गई। उन्होंने बिरसा को धमकी दी कि वे अपना प्रचार बंद करें। उनके आसपास ज्यादा लोगों की भीड़ इकट्ठी न हो, वरना उनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। इस पर बिरसा मुंडा ने निर्भीकता से जवाब दिया, “मैं अपने लोगों को नए धर्म की शिक्षा दे रहा हूँ, उन्हें स्वाभिमान से जीना सिखा रहा हूँ। इसमें क्या बुरा है?”

इस पर अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। पर इससे आदिवासी इतने क्रोध में आ गए कि उन्होंने मिलकर धावा बोल दिया और अपने प्रिय नेता को पुलिस के चंगुल से छुड़ा लिया। कुछ समय बाद बिरसा मुंडा फिर गिरफ्तार हुए, पर जेल से छूटते ही फिर उन्होंने विशाल सभा की और अंग्रेजी सत्ता को ललकारा।

अब अंग्रेज समझ गए कि बिरसा मुंडा के जीवित रहते उनकी दाल नहीं गल सकती। उधर बिरसा मुंडा ने भी लोगों में विद्रोह की भावना पैदा की। आदिवासी लोग अपने परंपरागत तीर-कमान और बरछी-भाले लेकर निकले तथा अंग्रेज अधिकारियों तथा पुलिस थानों पर धावा बोलने लगे। उनके छापामार युद्ध से अंग्रेज अधिकारी बौखला गए। आखिर उन्होंने आदिवासियों के दमन के लिए अपनी पूरी शक्ति झोंक दी। बिरसा के प्रमुख साथी गिरफ्तार हो गए। बिरसा छिपकर भाग रहे थे, पर अंग्रेजों ने उनकी जाति के ही कुछ लोगों को लालच देकर उन्हें पकड़वाया। जेल में कुछ समय बाद ही बीमारी से उनकी मृत्यु हो गई। कहा यह जाता है कि अंग्रेजों ने उन्हें विष देकर मरवाया था।

केवल वह पच्चीस वर्ष की अवस्था में भारत के इस महान क्रांतिकारी ने अंतिम साँस ली। पर भारत की स्वाधीनता के लिए इस सिंहशावक ने जो वीरतापूर्ण युद्ध लड़ा, उससे अंग्रेजी सत्ता काँप उठी और सारे देश में स्वाभिमान और जागृति की लहर पैदा हुई। और आज भी उनका नाम लेते ही मन में साहस और वीरता की भावना घुमड़ने लगती है।

ये कहानी ‘शौर्य और बलिदान की अमर कहानियाँ’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानी पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं Shaurya Aur Balidan Ki Amar Kahaniya(शौर्य और बलिदान की अमर कहानियाँ)