इंद्रधनुषी प्रेम-गृहलक्ष्मी की कहानियां: Hindi Love Story
Indradhanusi Prem

Hindi Love Story: “प्यार करते हो मुझसे?”

“हाँ!”

“भगा सकते हो ….सोच लो….जान का खतरा है।”थोड़ी आश्वस्त हो गई थी।

“मैं तैयार हूँ, कब भागना है?”एक मिनट की मौन के बाद बोला।

“कल,कोर्ट के रास्ते में आ जाना।”

कॉलेज आते – जाते शुभांग अक्सर उसका पीछा करता तो दीक्षा ने उसे रोक कर पूछ ही लिया। उसका मन अपने घर वालों से भर चुका था। एक तो कमसिन उम्र थी उस पर सभी दुश्मन। शुभांग की बातें सुनकर विश्वास जग गया था। आखिरकार दीक्षा को उस बेमेल शादी से बचने के लिए भागना ही उचित लगा।

ये कहानी है दीक्षा की,जो माता – पिता केे तलाक़ के बाद बुआ के साथ रही। बुुुआ खुद बेऔलाद तो थीं ही भाई का घर भी बर्बाद कर दिया। छोटी दूध-पीती बच्ची ‘राशि ‘के साथ राधा मायके कलकत्ते आ गईं। बड़ी ‘दीक्षा’बुआ के संग ही पलने लगी। देखते ही देखते 18 की हो गयी और कॉलेज जाने लगी। माँ के बिना बच्चा जैसे बड़ा होता है वैसी ही थी दीक्षा,डरी-सहमी पर बेहद खूबसूरत। लोगों की नज़रें बरबस ही उठ जातीं। कुछ तो कॉलेज तक छोड़कर आतीं।

एक दिन बुआ को अपने पापा से ये कहते सुना कि इसकी कोर्ट मैरिज करा दे। आखिर इसी दिन के लिए तो पाला था मैंने। एक लड़का हो जाए फिर इसे भी इसकी माँ जैसे ही कलकत्ते भेज दूँगी।

उसे अपने कानों पर विश्वास ही नही हुआ। सबसे घृणा हो रही थी। बुआ तो फिर बेगानी थी। जो अपने थे,उनके मुँह से भी दीक्षा ने अपने पक्ष में कोई दलील ना सुनी। बोलते भी क्या माँ के घर से जाने के बाद खुद को नशे में डुबो लिया था। होश में रहते भी तो बुआ की ही सुनते। कहते हैं माँ से बड़ा संरक्षक कोई नहीं। यह बात शत प्रतिशत सही साबित हो रही थी। आज माँ साथ होती तो उसके साथ ये सब ना होता। 

अगले दिन उसकी शादी होनी थी एक बेमेल शादी और वह भी उसके फूफा के साथ। फूफा ने शाम से ही रम की बोतल खोल रखी थी। सब कहकहे लगा रहे थे। फूफा दूल्हा बने ही रहे जबकि शुभांग अपनी हॉकी टीम के साथ कार का घेराव कर दीक्षा को उड़ा ले गया। दुष्ट फूफा व बुआ से उसे आज़ादी तो मिल गयी थी पर आगे का क्या ?? 

शुभांग की बड़ी बहन रेखा दीदी ने उसे अपनी सहेली बनाकर घर पर रखा। उसकी पढ़ाई पूरी कराई। इस बीच शुभांग की भी नौकरी लग गई। इसी दिन की प्रतीक्षा थी। धूमधाम से दोनों की शादी हो गयी। दो साल तो हंसी – खुशी गुज़रे पर फिर उसे अकेलापन घालने लगा।

बहुत से सवाल उसके जेहन में उठा करते। माँ व बहन कैसे होंगे? क्यों माँ व पापा साथ न रह सके? क्या बुआ सचमुच इतनी बुरी थीं कि उन्होंने एक छोटी उम्र की लड़की से भी अपने स्वार्थ सिद्धि की बात सोची? क्या उसके जीवन की चिंता उसके पिता की चिंता नही थी? क्यों विवाह करते हैं लोग अगर निभा नही सकते? विवाह -तलाक़ तो फिर भी समझ मे आता है पर बच्चों को जन्म ही क्यों देते हैं अगर उनके भाग्य में दुर्भाग्य ही लिखना है तो फिर उसने अपने कोख में पल रहे बच्चे को स्पर्श कर एक वादा किया वह किसी भी हाल में उसे नहीं छोड़ेगी। 

कुछ महीनों बाद अपने पुत्र को जन्म दिया। शुभांग व दीक्षा का पुत्र,दोनों के प्रेम का प्रतीक,शिवरात्रि के दिन ही उसका जन्म हुआ था। उसका नाम शिवांश रखा। किसी रिश्तेदार द्वारा जब उसकी माँ को नवासे के जन्म की खबर मिली तो वह खुद को रोक ना सकीं। एक दिन माँ व छोटी बहन राशि दीक्षा के बच्चे को देखने आ गयीं। आखिर सबके स्नेह की तड़प थी उसे। माँ -बहन को कैसे छोड़ देती। गले लग खूब रोयी जैसे जन्मों का दर्द बाहर आ गया हो। मां से जब कई सवाल किये तो बुआ की साज़िश पता लगी। माँ ने जब भी बेटी को वापस पाने की कोशिश की उसके चरित्र पर लाँछन लगाकर उसे वापस भेज दिया। खैर अब माँ से मिलने के बाद उसका अकेलापन जाता रहा। उसने उन्हें अपने पास ही रोक लिया। 

थोड़े दिनों तक सब ठीक था पर शुभांग को अब अपना ही घर बेगाना सा लगने लगा था। धीरे -धीरे दोनों में दुरियाँ आने लगी। एक तो उसकी नौकरी कॉल सेंटर की थी तो समय का ठिकाना न था। दीक्षा व राशि ने मिलकर अपना ब्यूटी पार्लर शुरू किया। दोनों बहनें ब्यूटिशियन का काम बखूबी जानती थीं। व्यस्त होती चली गयीं ऐसे में बेटे की देखभाल के लिए नानी का साथ सही था। पर कितने ऐसे पुरुष हैं जो पत्नी के कैरियर के संघर्ष में उनका साथ देते हैं विशेषकर जब ससुराल के लोग साथ रह रहे हों। कहीं ना कहीं पौरुष आहत होने लगता है। शुभांग भी उन्ही मनःस्थितियों से गुज़र रहा था। 

समय के साथ झगड़े बढ़ने लगे। शुभांग कभी घर आता कभी नहीं। कितनी ही रातें आँखों मे बीतती। नींद की कमी और काम की अधिकता स्वास्थ्य पर कुप्रभाव डाल रही थी पर दीक्षा को तो सभी प्रिय थे। न तो माँ का हाथ छोड़ा न ही बेटे का। 

स्वावलंबी होना चाहती थी। एक बड़ी कामयाबी भी मिली। पूरे भारत के कोने -कोने से हेयरस्टाइलिस्ट आये थे और उनमे वह बेस्ट हेयरस्टाइलिस्ट चुनी गई।उस दिन जब उसका हाथ थामे माँ-बहन व बेटा साथ खड़े थे तब आँखे उस शख्स को ढूंढ रही थीं जिसने बिना सवाल -जवाब के उसे अपना लिया था। उन्ही मज़बूत कंधों को ढूंढ रही थी जिनके सहारे उस नर्क से निकल पायी थी। आखिर वही तो था उसका सहचर। उसका सबसे बड़ा बल जिसके कारण आज यह शुभ दिन आया था। काम के पीछे भागती वह पकड़ कब ढीली पड़ गयी पता ही नहीं लगा। यही सब सोचती घर लौट रही थी। ड्राइविंग करते हुये चक्कर आने से एक्सीडेंट कर बैठी।

अस्पताल पहुंचाया गया तो कैंसर के शुरुआती दौर का पता लगा। लगभग तीन माह तक दीक्षा की कीमोथेरेपी चलती रही। शुभांग को अपना संसार लुटता सा प्रतीत हो रहा था। वह दीक्षा के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता था। कहीं न कहीं स्वयं को जिम्मेदार मान रहा था। उसने दीक्षा से प्यार किया,उसका साथ भी दिया पर उसके संघर्ष के दिनों में अकेला छोड़ दिया। अब खो देने के डर से आत्मग्लानि हो रही थी। इस दुख की घड़ी में बेटे की जिम्मेदारियाँ दीक्षा की मां को सौंप उसने पत्नी का साथ दिया। 

उसके इस बदले रूप को देखकर दीक्षा सोचने लगती। पुरुष के मन में माँ-बेटी-बहन या पत्नी बसी होती है बस जताना नहीं आता। भावनात्मक स्नेह प्रकट करते हुए अहम आड़े आता है। पुरुष पुरुषार्थ की भाषा जानता है। शक्ति का प्रयोग आसान लगता है। स्त्री को समर्पित देखना चाहता है,पर अपने अहं का समर्पण नहीं कर पाता। जब तक वस्तु स्थिति सामने आती है अक्सर देर हो जाती है। 

खैर! शुभांग के प्यार व सेवा ने दीक्षा को मौत के मुँह से निकाल लिया। मन के मैल धूल गए तो बारिश के बाद साफ आसमान में सतरंगी इंद्रधनुषी प्रेम शेष रह गया था।

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