भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
Hindi Love Story: सुबह हुई, धरती जागी, आकाश जागा, पर उस बांके सौरीकोट में फ्यूली रौतेली अभी तक सोई थी। वह नागू सौरयाल की इकलौती बेटी थी। इसलिये बाप की लाडली थी।। लाड़-प्यार ने उसे बिगाड़ रखा था। उसे जगाता भी कौन? सतयुग में खाते हुए को खिझाना और सोते हुए को जगाना बुरा माना जाता था। नागू संध्या में बैठा था। तभी भवन में शत-मुख शंख बजा। फ्यूली चौककर उठी और हड़बड़ा कर बैठी। उसने आंखें मीची, अंगड़ाई ली और दोनों ओर के द्वार खोले, आस-पास उजली धूप उतर चुकी थी। फ्यूली झुकी, फिर सुबह के सूरज को हाथ जोड़े और श्रृंगार के लिये अन्दर चली आई। उसने मखमली अंगिया पहनी और पैरों को छूती हुई घाघरी और दर्पण के आगे बाल संवारने लगी। एक क्षण वह दर्पण पर ही अपने को देखती रही। सहसा उसके होंठ अपने आप ही मुस्करा उठे।
अपार रूप पाया था उसने। लोग कहते थे उसके मुख में सूरज, पीठ में चंदा है। बुरांस का लाल फूल उससे ईर्ष्या करता था। उसकी नाक तलवार की धार की तरह पैनी थी और होंठ दाडिम के फूल बने थे। ताल में भरते पानी की तरह जवानी उसके अंग-अंग पर रंग भरती चली जा रही थी। पर वह हृदय की भोली थी। हवा के इस झौंके से वह अनजान थी।
बाल संवार कर उसने सोने की गागर उठाई और पानी की ओर चल दी। कुछ सखियां भी उसके साथ हो लीं। फ्यूली उनके बीच हिरणी की भांति लगती थी। छवि के भार से दबी हुई, वह धीरे-धीरे पैर उठा रही थी। इतनी खुश थी कि आगे चलती थी, पर पीछे को ढलती जाती थी।। तभी एक सखी ने कहा, ‘रौतेली! आज तेरे पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे हैं।
फ्यूली पहले चुप रही, फिर मुस्कराई, ‘मैने आज एक सपना देखा है।’
सखियो ने उसे पकड़ लिया, ‘तो जरूर कोई राजकुमार पालकी पर बैठ कर आया होगा।’ और वे सब खिलखिला कर हंस पड़ी। पानी में उनके मोती से दांत चमक उठे।
सबने जल्दी-जल्दी पानी भरा और चल दी। फ्यूली रोज की तरह हाथ-पैर धोती रही। फिर ज्यों ही वह पानी भरने को झुकी तो सहसा उसे दो छायायें दिखाई दी। उसे विस्मय हुआ। एक छाया, गोरी तो मेरी है, पर यह दूसरी परछाई किसकी है? उसे कुछ कहना न आया। गगरी हाथ की हाथ में रह गई। इधर देखा, उधर देखा; कोई न दिखाई दिया। सहसा उसने गर्दन उठाई तो ऊपर पेड़ पर बैठा माला गूंथ रहा एक युवक दिखा।
उन्होंने एक-दूसरे को देखा। युवक हंसा। फ्यूली चांद-सी पीली पड़ गई; फूल-सी शरमा गई। युवक पेड़ से उतरा, उसने फ्यूली का हाथ पकड़ा, बिठाया और गले में माला डाल कर बोला, ‘मैं भूपू रौत हूं रौतेली। क्या तू मुझे नहीं जानती?
फ्यूली ने दांत पीसे, ‘जानती हूं!’ मैं तुझे चाहती हूं। पर तेरा पिता हमारे सौरीकोट पर दांत लगाये बैठा है।
भूपू मुस्कराया बोला, ‘क्रोध क्यों करती है? इस कोमल मुख के लिये क्रोध नहीं बना है।’
फ्यूली की आंखें लाल हो उठी, ‘तो शत्रु के लिए और क्या बना है?
‘दोस्ती, प्रेम और क्या?’ भूपू बोला। फ्यूली चुप हो गई।
और वह जेब से बांसुरी निकाल कर बजाने लगा। फ्यूंली उसे देखती रही। उसका चौड़ा माथा था, लम्बी भुजायें थी, चमकीली आंखों मे करूणा का विश्वास था। फ्यूली उसे देखती ही रही और सहसा उसके हृदय में मीठी-सी गुदगुदी हुई, जैसे कोई उसके हृदय में खिलने को आकुल हो। भूपू बांसुरी बजाता रहा, वह सुनती रही। उन स्वरों में वे डूब से गये।
फ्यूली ने उसके हाथ से बांसुरी छीन ली। भूपू ने उसकी ओर देखा और पूछा, क्यों?
फ्यूली ने कहा, मुझे खुद लगती है (सुप्त व्यथाएं जागती हैं), कुछ अनमना-सा लगता है।
भूपू ने बांसुरी अलग रख दी और बोला, ‘तुझे मेरी माला कैसी लगी?’
फ्यूली चुप रही। अभी भी वह माला उसके गले में पड़ी थी और उससे उसका रूप दुगुना हो गया था।
भूपू ने कहा, ‘आ तेरी वेणी पर भी कुछ फूल लगा दूं। ‘उसने फूलों से उसकी अलकावलि सजा दी। लगता था, जैसे तारे तोड़ कर लाया हो।
उन्हें पता भी न चला कि दिन कब बीत गया। सूर्य शिखर पर चढ़ा। उपत्यकाओं पर छायायें ढली; फिर धूप दूर-दूर उड़ती गई और संध्या हो गई। सहसा फ्यूली को घर का ध्यान आया और वह डर से कांप उठी।
उसने भूपू से विदाई ली और हांफते-कांपते घर की ओर दौड़ी। उसका बाप कभी से उसके इंतजार में बैठा था। गुस्से में उसकी आंखों से आग निकल रही थी।
देखते ही वह उठ खड़ा हुआ और गरजा, ‘आ तू। तुझे आरों से चीरता हूं, सूली पर चढ़ाता हूं। बता कहां रही तू अब तक? और फिर उसका ध्यान उसके सजे बालों और गले की माला पर गया। बाप आग बबूला हो उठा ‘और यह माला किसने दी तुझे?’
फ्यूली ने भूपू रौत का नाम बता दिया। नागू सौरयाल पर आग लग गई, ‘भूपू रौत! मेरे शत्रु का बेटा। तुझे मेरे मान का भी ध्यान नहीं!’
फ्यूली पिता के चरणों में गिर पड़ी और सिसक-सिसक कर रोने लगी। ‘बाबा, भूपू रौत कितना सुन्दर है! मेरा ब्याह उससे कर दो बाबा, नहीं तो मैं मर जाऊंगी।’
बाप ने दांत पीसे, ‘मर जायेगी।’ वह शेर की तरह गरजा, ‘उससे पहले तुझे मैं मार डालूंगा, कुलच्छनी!’ क्षत्रिय के रोष और भैंस की प्यास की कोई सीमा नहीं होती। दूध के उफान की तरह क्रोध सर पर चढ़ गया। पिता ने पैरों में पड़ी पुत्री पर लात की ठोकर मारी और वह चोट खाकर दूर जा गिरी। उसका सिर फूटा, नाक टूटी। इस प्रकार बेचारी के प्राण छूट गए और रूप सदा के लिए विनष्ट हो गया।
बाप पछताया, भूपू रोया, लोगों ने राम-राम किया, पर फ्यूली कहां से लौट आती? उसके प्राण इन्द्र की सभा में चले गये। देवताओं को बड़ा दु:ख हुआ; इन्द्र ने कहा, ‘अब मैं क्या कर सकता हूं बेटी! पर मृत्युलोक मे तुम अमर रहोगी। चैत के महीने वहां तुम्हारे गीत गाये जायेंगे और फुलहारियां तुम्हें द्वार-द्वार पर रखकर कुल देवताओं की पूजा करेंगी। गीत गायेंगी, ‘फूल देई छम्मा देई द्वार भर भकार’
फ्यूली का शरीर पहाड़ की चोटी पर गाढ़ दिया गया। भूपू रौत रोज वहां जाता था। एक दिन वहां उसे किसी की सिसकियां सुनाई दी। कुछ दिन बाद वहां पर एक पौधा उग आया और उस पर एक पीला फूल निकला। लोग उसे फ्यूली कहने लगे।
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
