सदेई-21 श्रेष्ठ लोक कथाएं उत्तराखण्ड: God Story
Sadai

भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

God Story: हे उच्चि डांड्यों, तुम नौसी जावा, घणी कुलायों तुम छांटी होवा।

मैं तई लगी छ खुद्द मैतुड़ा की, बाबा जी को देश देखण देवा।

हे ऊंचे पर्वतों, तुम झुक जाओ! हे घने चीड़ के वृक्षों, तुम छोटे हो जाओ! मुझे अपने मायके की सुधि आ रही है। मुझे अपने पिता का देश देखने दो।

सदेई के गीत के ये बोल आज भी उसी तरह अमर हैं। चैत के महीने औजी लोग उसके गीत गाते हैं।

कहते है, एक छोटा-सा परिवार था-बाप, मां और बेटी। सदेई बेटी जब नौ बरस की थी, तभी उसका ब्याह हो गया था। उसका कोई भाई न था।

सदेई को मायके की याद आती। सामने उसे बड़े-बड़े पहाड़ दिखाई देते और वह दुःखी हो उठती। चार पहाड़ों के पार उसका मायका था। वह सोचती, पंख होते तो उड़ कर चली जाती। लेकिन वह विवश थी। मन को बहलाने के लिए उसने पहाड़ की चोटी पर एक चौंरी (चत्वरिका) बनाई और उसमें शिलंग का पौधा रोपा था। शिलंग के उस पौधे से उसे बहुत प्यार था। वह उसे ‘मेरे मायके का पौधा’ कह कर पुकराती थी। घास लकड़ी के बहाने वह उधर से गुजरती तो जरूर उसके पास बैठती। धीरे-धीरे वह पौधा बड़ा हुआ। उस पर टहनियां फूटी और एक दिन वह पौधा पेड़ बन गया। लेकिन फिर भी मां-बाप ने बेटी की खबर न ली। सदेई इसी पेड़ के नीचे आती और रोना रोती, ‘काश मेरा भी कोई भाई होता! मुझे बुलाने आता। मायके ले जाता’ और इस तरह वह रोज अपनी कुलदेवी भवानी को उलाहने देती और रोती।

दूर की ससुराल थी। बीच में बिना पुल की नदियां और घने जंगल। सदेई मायके कैसे जाती? सास भेजती न थी, मां बुलाती न थी। हांडी में उबलते चावल के दाने की तरह बेचारी सदेई मायके की याद में छटपटाती। गांव की बहुओं को वह मायके जाते देखती तो उसके दिल में एक हूक-सी उठती, ‘काश, मेरा भी कोई भाई होता! वह मुझे बुलाने आता और मैं भी मायके जाती।’ और वह गीत के स्वरों में रो उठती।

वह रोज कुलदेवी भवानी के मंदिर में जाती और भाई के लिए प्रार्थना करती। उसकी इस दशा पर कुलदेवी भवानी को दया आई। एक दिन जब सदेई मायके की याद में दु:खी होकर सोई थी तो देवी भवानी उसके सपनों में आई। वह बोली, सदेई’, मैं तुझसे प्रसन्न हूं। जा, मैं वर देती हूं, तेरा एक भाई होगा।

सदेई ने शीश झुकाया, बोली, ‘जिस दिन मेरा भाई मुझसे मिलने आएगा, मैं अष्ट बलि चढ़ाऊंगी मां।’

वर देकर देवी अफ्रधान हो गई। सदेई के लिये यह सपना ही था। उसे क्या पता था कि भवानी की कृपा से एक दिन उसका सपना सत्य बनेगा लेकिन भवानी की लीला थी। मायके में सदेई का भाई पैदा हुआ। मां ने सदेई के नाम पर उसका नाम सदेऊ (सहदेव) रखा।

सदेऊ बड़ा होनहार था और लड़के जैसे बरसों में बढ़ते हैं, सदेई वैसा महीनों और दिनों में बढ़ने लगा। फिर जैसे वह बड़ा होता गया मां को विश्वास होता गया, यह लड़का बड़ा वीर और गुणी होगा। घर में वह अकेला लड़का था। वह औरों की बहनों को देखता तो सोचता, ‘काश, मेरी भी कोई बहन होती’। एक दिन घर में बात छिड़ी तो मां ने बताया कि उसकी एक बहन है सदेई और वह दूर कहीं ब्याही है। सदेई उसे देखने के लिए लालायित हो उठा।

एक दिन उसे स्वप्न हुआ। उसने देखा, पहाड़ की चोटी पर दूर कहीं एक शिलंग का पेड़ है। उस पेड़ के नीचे एक स्त्री बैठी है। वह बिलकुल उसी जैसी है। वह उसे ‘भैया-भैया’ कह कर पुकार रही है। सदेऊ ने ‘बहिन-बहिन’ कह कर उसे पुकारा ही था कि उसकी नींद खुल गई। इधर-उधर हाथ पटककर उसने देखा, बहिन कहीं नहीं थी। पर सदेऊ को लगा, यहीं-कहीं मेरी बहिन थी। वह दौड़ा-दौड़ा मां के पास गया और सारा सपना उसने उसे कह सुनाया। मां की आंखें छलछला उठी।

मां ने कहा, ‘यह तुझे किसने भरमाया है, बेटा सदेई?

सदेई बोला, ‘नहीं, सच-सच बता, नहीं तो मैं……।’

मां का स्नेह-दुर्बल हृदय कांप उठा। एक बेटा पाया था, ईश्वर क्या उसे भी मेरे पास न रहने देगा। उसने कहा, ‘तू कहां जायेगा, बेटा? वहां भयंकर वन है। तुझे रास्ता कौन दिखाएगा? तुझे नदिया कौन पार कराएगा?

सदेई बोला, ‘मां, मुझे आंखे रास्ता दिखाएंगी। हाथ नदी-नाले तैराएंगे। मेरी भुजाएं खूखार जानवरों को मारेंगी; मेरे कुलदेवता मेरी रक्षा करेंगे।’

और उसने मां की एक न मानी। बहन के गांव चल दिया और फिर पहुँचा उसी शिलंग वृक्ष के पास, जो बहन के गांव से दीखता था। गांव से लोगों ने देखा तो कहा कि शिलंग वृक्ष के नीचे वह सफेद कपड़ों वाला कौन होगा। किसी ने कहा, ‘सदेई बहिन, बिलकुल तेरी जैसी अनुहार है उसकी। तेरा भाई तो नहीं?’

‘मेरा भाई!’ सदेई को जैसे यह बात कांटे-सी चुभ गई।

सदेऊ गांव में पहुंचा। भाई बहिन को मिला। भाई ने कहा, ‘बहिन, एक दिन तुम्हें सपने में देखा था। तब तुम्हें सचमुच देखने की चाह उठी और मैं तुम्हारे पास चला आया।’

सदेई की आंखें स्नेह से छलछला उठीं। बोली, ‘भवानी दाहिनी हुई है भुला। मेरी मनोकामना पूरी हुई। कल मै अनुष्ठान कराऊंगी, बलि चढ़ाऊंगी, बलि दूंगी।’

अब सदेई दो बच्चों की मां थी। दोनों बच्चों को बुलाकर उसने कहा, ‘देखो बेटी, ये तुम्हारे मामा हैं। बड़ी मुश्किल से हमारे घर आए हैं।’ और देखते ही देखते वे बच्चे मामा से घुल-मिल गए।

दूसरे दिन सदेई ने एक मंडप तैयार करवाया। आवश्यक सामग्री जुटाई और फिर अनुष्ठान प्रारम्भ हुआ। सारा वातावरण मंत्रों से गूंज उठा। बलि का समय हुआ तो पुरोहितों ने कहा, ‘बलि भेजो!’ तो बकरे लाये गये।

तभी आकाशवाणी हुई, ‘पशु बलि नहीं, नर बलि चाहिए।’

सब भौचक्के रह गए, नर बलि! न जाने प्रभु की क्या इच्छा है। सदेई का हृदय धक् से रह गया। लेकिन वह दृढ़ थी, बोली, ‘मैं तैयार हूं।’

‘नहीं!’ फिर आकाशवाणी हुई, ‘स्त्री बलि वर्जित है। अपने भाई की बलि दो।”

‘भाई की बलि! ‘सदेई का शरीर कांप गया। ‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकता! मैं गोत्र हत्या नहीं करूंगी। कोख में पुत्र मिल जाता है, पीठ का भाई नहीं मिलता। भाई मेरा अतिथि है, अतिथि हत्या नहीं करूंगी।

आकाशवाणी हुई, ‘तो अपने दो पुत्रों की बलि दो।’

‘पुत्रों की बलि!’, अग्निहोत्र के पास वह बेहोश होकर गिर पड़ी। ‘पुत्रों की हत्या करूंगी तो मेरी कोख सूनी हो जाएगी।’

आकाशवाणी हुई, ‘तो रहने दो। तुमने प्रतिज्ञा की थी। कह दो कि वह सब झूठ थी।’

‘नहीं!’ सदेई का सोया सत्व जागा और वह चिल्ला उठी, ‘ठीक है, मैं तैयार हूं। मैं पुत्रों की बलि दूंगी।’

लोगों ने सुना तो सब दंग रह गए। सबके चेहरों पर करूणा छा गई। लेकिन सदेई जैसे स्वयं चंडिका बनी थी। उसने अपने दोनों पुत्रों को बुलाया और उनके कपड़े उतारने लगी। लड़कों ने पूछा ‘मां हमारे कपड़े क्यों उतार रही हो?’

‘तुम्हारे मामा नए कपड़े लाए हैं।’ वह बोली, ‘नए कपड़े पहनाऊँगी, बेटे।’ कहते-कहते उसने खडग प्रहार किया और दोनों के सिर भमि पर आ गिरे।

सब ‘हाय-हाय’ कहते रह गए। सदेई ने दोनों सिरों को कपड़े में लपेटा और अंदर रख दिया। एक बार इनका मुंह जी भरकर देख लूंगी और धड़ों को लेकर वह यज्ञ मंडप पर चली आई।

लेकिन निठुर देव को जैसे फिर भी चैन न था। फिर आकाशवाणी हुई, ‘नहीं, सदेई, बिना सिरों के धड़ नहीं चढ़ाए जाते। सिरों को भी ले आओ।’

सदेई ने आकाशवाणी सुनी। सिरों को लेने के लिए घर के अन्दर घुसी तो देखा, दोनों बालक हंसी-खुशी खेल रहे थे।

सदेई सन्न रह गई।

‘सब भवानी की माया है’ सदेई ने मन ही मन कहा और सामने मूर्ति के नीचे झुक कई। उसकी आस्था ने उसे भाई भी दिया और पुत्रों को भी जीवनदान दिया। सदेई त्याग और बलिदान की, आस्था और भक्ति की परीक्षा में खरी उतरी थी। उसे उसका सुफल मिला। भाई-बहिन के प्रेम की यह कथा आज भी औजी लोग चौत में गाते हैं। मनुष्य मर जाते हैं; अपनी यशोगाथा छोड़ जाते हैं।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’