यह कहानी विख्यात दार्शनिक खलील जिब्रान की है। इसमें उन्होंने बताया कि वह एक मानसिक चिकित्सालय के बगीचे में टहल रहे थे। वहाँ उन्होंने एक युवक को बैठे देखा जो दर्शनशास्त्र की पुस्तकें पढ़ने में लीन था। वह युवक बहुत स्वस्थ और प्रसन्नचित्त प्रतीत हो रहा था और उसका व्यवहार अन्य रोगियों से बिल्कुल अलग था। वह कहीं से भी रोगी नहीं प्रतीत होता था।
वह उसके पास जाकर बैठ गए और उससे पूछा, कि वह वहाँ क्या कर रहा है? युवक ने उन्हें आश्चर्य से देखा और जब वह जान गया कि वह डॉक्टर नहीं हैं तो उसने बताया कि उसके पिता एक बहुत प्रसिद्ध वकील थे और उसे अपने जैसा बनाना चाहते थे। जबकि उसके चाचा की एक बहुत बड़ी दुकान थी और वह चाहते थे कि वह उनकी राह पर चले। इसी तरह उसकी माँ उसमें हमेशा उसके मशहूर नाना की छवि देखतीं थी। उसकी बहन चाहती थी कि वह उसके पति की सफलता को दोहराए और उसका भाई चाहता था कि वह उसकी तरह एक शानदार खिलाड़ी बने।
यह सब उसके साथ स्कूल में, संगीत की कक्षा में, और अंग्रेजी की टड्ढूशन में होता रहा। वे सभी मानते थे कि अनुसरण के लिए वे ही सर्वाधिक उपयुक्त और आदर्श व्यक्ति थे। उन सब ने मुझे एक मनुष्य की भांति नहीं देखा। मैं तो उनके लिए बस एक आईना था। युवक ने आह भर कर कहा, और तब मैंने यहाँ भर्ती होने का तय कर लिया। क्योंकि यही एक जगह है जहां मैं अपने स्वत्व साथ रह सकता था।
सारः किसी पर अपेक्षाओं का इतना बोझ मत लादो कि उनका स्वतंत्र अस्तित्व ही समाप्त हो जाए।
ये कहानी ‘इंद्रधनुषी प्रेरक प्रसंग’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानियां पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं– Indradhanushi Prerak Prasang (इंद्रधनुषी प्रेरक प्रसंग)
