लाला जीवनदास को मृत्युशय्या पर पड़े छह मास हो गए हैं। अवस्था दिनोंदिन शोचनीय होती जाती है। चिकित्सा पर उन्हें अब जरा भी विश्वास नहीं रहा। केवल प्रारब्ध का ही भरोसा है। कोई हितैषी वैद्य या डॉक्टर का नाम लेता है तो मुंह फेर लेते हैं। उन्हें जीवन की अब कोई आशा नहीं है। यहां तक कि अब उन्हें अपनी बीमारी के जिक्र से भी घृणा होती है। एक क्षण के लिए भूल जाना चाहते हैं कि काल के मुख में हूं। एक क्षण के लिए इस दुस्साध्य चिन्ता-भार को सिर से फेंककर स्वाधीनता से सांस लेने के लिए उनका चित्त लालायित हो जाता है। उन्हें राजनीति में कभी रुचि नहीं रही। अपनी व्यक्तिगत चिंताओं ही में लीन रहते हैं। लेकिन अब उन्हें राजनीतिक विषयों से विशेष प्रेम हो गया है। अपनी बीमारी की चर्चा के अतिरिक्त वह प्रत्येक विषय को शौक से सुनते हैं, किन्तु ज्यों ही किसी ने सहानुभूति से किसी औषधि का नाम लिया कि उनकी त्यौरी बदल जाती है। अन्धकार में विलाप-ध्वनि इतनी आशाजनक नहीं होती, जितनी प्रकाश की एक झलक।
वह यथार्थवादी पुरुष थे। धर्म-अधर्म, स्वर्ग-नरक की व्यवस्थाएं उनकी विचार-परिधि से बाहर थी। यहां तक कि अज्ञात भय से भी वे शंकित न होते थे लेकिन उसका कारण उनकी मानसिक शिथिलता न थी, बल्कि लोक चिंता ने परलोक-चिंता का स्थान ही शेष न रखा था। उनका परिवार बहुत छोटा था, पत्नी थी और एक बालक। लेकिन स्वभाव उदार था, ऋण से दबा रहता था। उस पर इस असाध्य और चिरकालीन रोग ने ऋण पर कई दर्जे की वृद्धि कर दी थी। मेरे पीछे निःसहायों का क्या हाल होगा? ये किसके सामने हाथ फैलाएंगे, कौन इनकी खबर लेगा? हाय! मैंने विवाह क्यों किया? पारिवारिक बंधन में क्यों फंसा, क्या इसीलिए कि ये संसार के हिम-तुल्य दया के पात्र बनें? क्या अपने कुल की प्रतिष्ठ और सम्मान को यों विनष्ट होने दूं? जिस जीवनदास ने सारे नगर को अपनी अनुग्रह-दृष्टि से प्लावित कर दिया था, उसी के पोते और बहू द्वार-द्वार ठोकरें खाते फिरें, हाय, क्या होगा? कोई अपना नहीं, चारों ओर भयावह वन है! कही मार्ग का पता नहीं! वह सरल रमणी, यह अबोध बालक। इन्हें किस पर छोडूं?
हम अपनी आन पर जान देते थे। हमने किसी के सामने सिर नहीं झुकाया। किसी के ऋणी नहीं हुए। सदैव गर्दन उठाकर चले, और अब यह नौबत है कि कफ़न का भी ठिकाना नहीं।
आधी रात गुजर चुकी। जीवनदास की हालत आज बहुत नाजुक थी। बार-बार मूर्छा आ जाती। बार-बार हृदय की गीत रुक जाती। उन्हें ज्ञान होता था कि अब अन्त निकट है। कमरे में एक लैम्प जल रहा था। उनकी चारपाई के समीप ही प्रभावती और उसका बालक साथ सोए हुए थे। जीवनदास ने कमरे की दीवारों को निराशाजनक नेत्रों से देखा, जैसे कोई भटका हुआ पथिक निवास स्थान की खोज में हो। चारों ओर से घूमकर उनकी आंखें प्रभावती के चेहरे पर जम गई। हां! यह सुन्दरी एक क्षण में विधवा हो जायेगी। यह बालक पितृहीन हो जायेगा! यही दोनों व्यक्ति मेरी जीवन-आशाओं के केन्द्र थे। मैंने जो कुछ किया, इन्हीं के लिए किया। मैंने अपना जीवन इन्हीं पर समर्पण कर दिया था, और अब इन्हें मझधार में छोड़े जाता हूं। इसलिए कि वे विपत्ति और भंवर के कौर बन जायें। इन विचारों ने उनके हृदय को मसोस दिया। आंखों से आंसू बहने लगे।
अचानक उनके विचार-प्रवाह में एक विचित्र परिवर्तन हुआ। निराशा की जगह सुख पर एक दृढ़ संकल्प की आभा दिखाई दी, जैसे किसी गृह स्वामिनी की झिड़कियां सुनकर एक दीन भिक्षुक के तेवर बदल जाते हैं। ‘नहीं, कदापि नहीं मैं अपने प्रिय पुत्र और अपनी प्राण-प्रिया पत्नी पर प्रारब्ध का अत्याचार न होने दूंगा’। अपने कुल की मर्यादा को भ्रष्ट न होने दूंगा। एक अबला को जीवन की कठिन परीक्षा में न डालूंगा। मैं मर रहा हूं लेकिन प्रारब्ध के सामने सिर न झुकाऊंगा। उसका दास नहीं, स्वामी बनूंगा। अपनी नौका को निर्दय तरंगों की आश्रित न बनने दूंगा।
‘निस्संदेह संसार मुंह बनाएगा। मुझे दुरात्मा, घातक, नराधम कहेगा। इसलिए कि उसके पाशविक आमोद में, उसकी पैशाचिक क्रीड़ाओं में एक व्यवस्था कम हो जायेगी । कोई चिन्ता नहीं, मुझे संतोष तो रहेगा कि उसका अत्याचार मेरा बाल भी बांका नहीं कर सकता, उसकी अनर्थ-लीला से मैं सुरक्षित हूं।’
जीवनदास के मुख पर वर्णहीन संकल्प अंकित था। वह संकल्प जो आत्म-हत्या का सूचक है। वह बिछौने से उठे, मगर हाथ-पांव थर-थर कांप रहे थे। कमरे की प्रत्येक वस्तु उन्हें आंखें फाड़-फाड़कर देखती हुई जान पड़ती थी। अलमारी के शीशे में अपनी परछाई दिखाई दी। चौंक पड़े, वह कौन? ख्याल आ गया, यह तो अपनी छाया है। उन्होंने अलमारी से एक चमचा और एक प्याला निकाला। प्याले में वह जहरीली दवा थी, जो डॉक्टर ने उनकी छाती पर मलने के लिए दी थी। प्याले को हाथ में लिए चारों ओर सहमी हुई दृष्टि से ताकते हुए वह प्रभावती के सिरहाने आकर खड़े हो गए। हृदय पर करुणा का आवेश हुआ – ‘आह! इन प्यारों को क्या मेरे ही हाथों मरना लिखा था? मैं ही इनका यमदूत बनूंगा। यह अपने ही कर्मों का फल है। मैं आंखें बन्द करके वैवाहिक बन्धन में फंसा। इन भावी आपदाओं की ओर क्यों मेरा ध्यान न गया? मैं उस समय ऐसा हर्षित और प्रफुल्लित था, मानो जीवन एक अनादि सुख-स्वर है, एक सुधामय आनन्द-सरोवर। यह इसी अदूरदर्शिता का परिणाम है कि आज मैं यह दुर्दिन देख रहा हूं।’
हठात् उनके पैरों में कम्पन हुआ, आंखों में अंधेरा छा गया, नाड़ी की गति बन्द होने लगी। वे करुणामयी भावनाएं मिट गई। शंका हुई, कौन जाने यही दौरा जीवन का अन्त न हो। वह संभल कर उठे और प्याले से दवा का एक चम्मच निकालकर प्रभावती के मुंह में डाल दिया। उसने नींद में दो-एक बार मुंह डुलाकर करवट बदल ली। तब उन्होंने लखनदास का मुंह खोलकर उसमें भी एक चम्मच भर दवा डाल दी और प्याले को जमीन पर पटक दिया। पर, हा! मानव-परवशता। हा प्रबल भावी! भाग्य की विषय क्रीड़ा अब भी उससे चाल चल रही थी। प्याले में विष न था। वह टॉनिक था, जो डॉक्टर ने उनका बल बढ़ाने के लिए दिया था।
प्याले को रखते ही उनके कांपते पैर स्थिर हो गए, मूर्च्छा के सब लक्षण जाते रहे, चित्त पर भय का प्रकोप हुआ। वह कमरे में एक क्षण भी न ठहरकर सके। हत्या-प्रकाश का भय हत्या-कर्म से भी कहीं दारुण था। उन्हें दंड की चिंता न थी, पर निन्दा और तिरस्कार से बचना चाहते थे। वह घर से इस तरह निकले, जैसे किसी ने उन्हें घर से धकेल दिया हो। उनके अंगों में कभी इतनी स्फूर्ति न थी, घर सड़क पर था, हार पर एक तांगा मिला! उस पर जा बैठे। नाड़ियों में विद्युत-शक्ति दौड़ रही थी।
तांगेवाले ने पूछा – कहां चलूं ?
जीवनदास – जहां चाहो?
तांगेवाला – स्टेशन चलूं।
जीवनदास – वहीं सही।
तांगेवाला – छोटी लेन चलूं या बड़ी लेन।
जीवनदास – जहां गाड़ी जल्दी मिल जाये ।
तांगेवाले ने उन्हें कौतूहल से देखा। परिचित था, बोला – आपकी तबीयत अच्छी नहीं है, क्या और कोई साथ न जायेगा?
जीवनदास ने जवाब दिया – नहीं, मैं अकेला ही जाऊंगा।
तांगेवाला – आप कहां जाना चाहते हैं?
जीवनदास – बहुत बातें न करो। यहां से जल्दी चलो।
तांगेवाले ने घोड़े को चाबुक लगाया और स्टेशन की ओर चला। जीवनदास वहां पहुंचते ही तांगे से कूद पड़े और स्टेशन के अंदर चले। तांगेवाले ने कहा – पैसे?
जीवनदास को अब ज्ञात हुआ कि मैं घर से कुछ लेकर नहीं चला, यहां तक कि शरीर पर वस्त्र भी न थे। बोले – पैसे फिर मिलेंगे।
तांगेवाला – आप न जाने कब लौटेंगे।
जीवनदास – मेरा जूता नया है, ले लो।
तांगेवाले का आश्चर्य और भी बढ़ा। समझा, इन्होंने शराब पी है, अपने-आप में नहीं हैं। चुपके से जूते लिए और चलता हुआ।
गाड़ी के आने में अभी घंटों की देर थी। जीवनदास प्लेटफार्म पर जाकर टहलने लगे। धीरे-धीरे उनकी गति तीव्र होने लगी, मानो कोई पीछा कर रहा है। इन्हें बिलकुल चिन्ता न थी मैं खाली हाथ हूं। जाड़े के दिन थे। सर्दी के मारे ठिठुरे जाते थे, किन्तु उन्हें ओढ़ने-बिछौने की सुधि न थी। उनकी चैतन्य-शक्ति नष्ट हो गई थी, केवल अपने दुष्कर्म का ज्ञान जीवित था। ऐसी शंका होती थी कि प्रभावती मेरे पीछे दौड़ी चली आती है, कभी भ्रम होता कि लखनदास भागता हुआ आ रहा है, कभी पड़ोसियों की धर-पकड़ की आवाज कानों में आती थी, उनकी कल्पना प्रतिक्षण उत्तेजित होती जाती थी, यहां तक कि प्राण-भय से माल के बोरों के बीच में जा छिपे। एक-एक मिनट पर चौंक पड़ते थे और सशंक नेत्रों से इधर-उधर देखकर फिर छिप जाते थे। उन्हें अब यह भी स्मरण न रहा कि मैं यहां क्या करने आया हूं केवल अपनी प्राण-रक्षा का ज्ञान शेष था। घंटियां बजी, मुसाफिरों के झुंड-के-झुंड आने लगे, कुलियों की बक-झक, मुसाफिरों की चीख और पुकार, आने-जाने वाले इंजन की धक-धक से हाहाकार मचा हुआ था। जीवनदास उन बोरों के बीच में इस तरह पैंतरे बदल रहे थे, मानो वे चैतन्य होकर उन्हें घेरना चाहते हैं।
निदान गाड़ी स्टेशन पर आकर खड़ी हो गई। जीवनदास संभल गए। स्मृति जागृत हो गई। लपक कर बोरों में से निकले और एक डिब्बे में जा बैठे।
इतने में गाड़ी के द्वार पर ‘खट-खट’ की ध्वनि सुनाई दी। जीवनदास ने चौंक कर देखा, टिकट का निरीक्षक खड़ा था। उनकी अचेतावस्था भंग हो गई। वह कौन-सा नशा है, जो मार के आगे भाग न जाये। व्याधि की शंका संज्ञा को जागृत कर देती है। उन्होंने शीघ्रता से जल-गृह खोला और उसमें घुस गए। निरीक्षक ने पूछा – ‘और कोई नहीं ?’ मुसाफिरों ने एक स्वर से कहा – ‘अब कोई नहीं है।’ जनता को अधिकारी वर्ग से एक नैसर्गिक द्वेष होता है। गाड़ी चली तो जीवनदास बाहर निकले। यात्रियों ने प्रचंड हास्य ध्वनि से उसका स्वागत किया। यह देहरादून मेल थी।
रास्ते-भर जीवनदास कल्पनाओं में मग्न रहे। हरिद्वार पहुंचे तो उनकी मानसिक अशांति बहुत कम हो गई थी। एक क्षेत्र से कम्बल लाए, और भोजन किया और वहीं पड़ रहे। अनुग्रह के कच्चे धागे को वह लोहे की बेड़ी समझते थे, पर दुरावस्था ने आत्म-गौरव का नाश कर दिया था।
इस भांति कई दिन बीत गए, किन्तु मौत का कहना ही क्या, वह व्याधि भी शांत होने लगी, जिसने जीवन से निराश कर दिया था। उनकी शक्ति दिनों-दिन बढ़ने लगी। मुख की कांति प्रदीप्त होने लगी, वायु का प्रकोप शांत हो गया, मानो दो प्रिय प्राणियों के बलिदान ने मृत्यु को तृप्त कर दिया था।
जीवनदास को यह रोग-निवृत्ति उस दारुण रोग से भी अधिक दुखदाई प्रतीत होती थी। वे अब मृत्यु-आह्वान करते, ईश्वर से प्रार्थना करते कि फिर उसी जीर्णावस्था का दुरागमन हो, नाना प्रकार के कुपथ्य करते, किन्तु कोई प्रयत्न सफल न होता था। उन बलिदानों ने वास्तव में यमराज को सन्तुष्ट कर दिया था।
अब उन्हें चिंता होने लगी, क्या मैं वास्तव में जिन्दा रहूंगा। लक्षण ऐसे ही दीख पड़ते थे। नित्यप्रति यह शंका होती जाती थी। उन्होंने प्रारब्ध को अपने पैरों पर झुकाना चाहा था, पर अब स्वयं उसके पैरों की रज चाट रहे थे। उन्हें बार-बार अपने ऊपर क्रोध आता, कभी व्यग्र हो कह उठते कि जीवन का अन्त कर दूं तकदीर को दिखा दूं कि मैं अब भी उसे कुचल सकता हूं किन्तु उसके हाथों में विकट यंत्रणा भोगने के बाद उन्हें भय होता था कि कहीं इससे भी जीवट समस्या न उपस्थित हो जाये, क्योंकि उन्हें उसकी शक्ति का कुछ-कुछ अनुमान हो गया था। इन विचारों ने उनके मन में नास्तिकता के भाव उत्पन्न किए। वर्तमान भौतिक-शिक्षा ने उन्हें पहले ही आत्मवादी बना दिया था। अब उन्हें समस्त प्रकृति अनर्थ और अधर्म के रंग में डूबी हुई मालूम होने लगी। यहां न्याय नहीं, दया नहीं, सत्य नहीं। असम्भव है कि वह सृष्टि किसी कृपालु की शक्ति के अधीन हो और उसके ज्ञान में नित्य ऐसे वीभत्स, ऐसे भीषण अभिनय होते रहें। वह न दयालु है, न वत्सल है। वह सर्वज्ञानी और अन्तर्यामी भी नहीं, निस्संदेह वह एक विनाशिनी, वक्र और विकारमयी शक्ति है। सांसारिक प्राणियों ने उसकी अनिष्टा क्रीड़ा से भयभीत होकर उसे सत्य का सागर, दया और धर्म का भण्डार प्रकाश और ज्ञान का स्रोत बना दिया है। यह हमारा दीन-विलाप है। अपनी दुर्बलता का करुण अश्रुपात। इसी शक्तिहीनता को, इसी विसहायता को हम उपासना और आराधना कहते हैं और उस पर गर्व करते हैं। दार्शनिकों का कथन है कि यह प्रकृति अटल नियमों के अधीन है, यह भी उनकी श्रद्धालुता है। नियम जड़, अचैतन्य होते हैं, उनमें कपट के भाव कहां? इन नियमों का संचालक इस इन्द्रजाल का मदारी अवश्य है, यह स्पष्ट है किन्तु वह प्राणी देवता नहीं पिशाच है। इन भावों ने शनैः शनैः क्रियात्मक रूप धारण किया। सद्भक्ति हमें ऊपर ले जाती है, असद्भक्ति हमें नीचे गिराती है। जीवनदास की नौका का लंगर उखड़ गया, अब उसका न कोई लक्ष्य था और न कोई आधार, तरंगों में डावांडोल होती रहती थी।
पन्द्रह वर्ष बीत गए। जीवनदास का जीवन आनन्द और विलास में कटता था। रमणीक निवास-स्थान था, सवारियां थी, नौकर-चाकर थे। नित्य राग-रंग होता रहता था। अब इंद्रियलिप्सा उनका धर्म था, वासना-तृप्ति उनका जीवन तत्त्व। वे विचार और विवेक के बन्धनों से मुक्त हो गए थे। नीति और अनीति का ज्ञान लुप्त हो गया था। साधनों की भी कमी नहीं थी। बंधे बैल और खुले सांड़ में बड़ा अन्तर है। एक रातिब पाकर भी दुर्बल है, दूसरा घास-पात ही खाकर मस्त हो रहा है। स्वाधीनता बड़ी पोषक वस्तु है।
