वैशाली, ‘हाँ, बताइये। क्या बात है?’

शहंशाह, ‘आपने घर के लिए एक महिला स्टाफ तलाश करने के लिए बोला था, न?’

वैशाली की दफ्तर वाली औपचारिक भाषा सहसा सहज एवं लोचपूर्ण हो गई, ‘हाँ-हाँ, बोला था। कोई मिली क्या?’

शहंशाह, ‘मैडम, प्लेसमेन्ट एजेन्सी वालों ने आज एक लड़की को ऑफिस भेजा है, किन्तु वह ऑफिस मे प्यून का काम नहीं करना चाहती, परन्तु घर पर काम करने के लिए वह राजी है। यदि आप कहें तो मैं उसे आपसे मिलवा दूं।’

वैशाली, ‘अरे! नेकी और पूछ-पूछ। आप उसे मेरे चैम्बर में लेते आइये।’ दरअसल वैशाली अपनी दोनों किशोर हो रही बेटियों की देखभाल को लेकर चिंतित रहती है। पति निखिल और स्वयं के ऊंचे ओहदे पर होने के नाते घरेलू कार्यों के लिये उसके पास कई सरकारी और निजी स्टाफ है, लेकिन वे सभी पुरूष हैं। इसलिये वह एक महिला सहायिका घर पर रखना चाह रही थी ताकि उसकी अनुपस्थिति में वह उसकी बेटियों की देखभाल कर सके।

सुपरवाइजर शहंशाह कुछ ही देर में वैशाली के चैम्बर में एक लड़की को लेकर आया। उसकी उम्र रही होगी यही कोई बीस-बाइस वर्ष की, दिखने में छरहरी और शक्ल सूरत से भली सी। उसने हाथ जोड़कर बहुत सलीके से वैशाली को अभिवादन किया।

वैशाली, ‘क्या तुम मेरे घर पर काम करना चाहोगी?’

लड़की, ‘जी।’

वैशाली, ‘बहुत अच्छा। अरे सॉरी! मैंने तो तुम्हारा नाम ही नहीं पूछा। क्या नाम है तुम्हारा?’

लड़की, ‘जी, सुधा।’

वैशाली, ‘वाह! बहुत प्यारा नाम है। लेकिन सुधा, तुम यह बताओ। क्या तुम्हें इस तरह के काम करने का कोई अनुभव है?’

सुधा, ‘मैडम, घर के बाहर कभी काम करने की जरूरत ही नहीं पड़ी, किन्तु आप निश्चिंत रहिये। चूंकि अपने घर के सारे काम मैं ही करती हूँ, इसलिये कोई दिक्कत नहीं होगी। मै जैसे अपने घर का ध्यान रखती हूँ वैसे ही आपके घर का ध्यान भी रखूंगी।’

वैशाली, ‘बहुत अच्छा।’

वैशाली, ‘हाँ, बताओ।’

सुधा, ‘मैडम! क्या मैं दोपहर बाद आपके घर ड्यूटी करने आ सकती हूँ?’

वैशाली, ‘सुधा, मुझे कोई दिक्कत नहीं। लेकिन सेकेन्ड शिफ्ट में ड्यूटी करने पर तुम्हें घर वापस जाने में काफी देर हो जाएगी और रात के समय तुम्हारा इतनी दूर जाना शायद ठीक नहीं होगा।’

सुधा, ‘मैडम! आप सही कह रही हैं, परन्तु दरअसल मुझे ही घर का खाना बनाना पड़ता है। सुबह की शिफ्ट में ड्यूटी करने पर घर में दोपहर का खाना नहीं बन पायेगा, और…।

वैशाली, ‘और क्या? खुल कर बताओ।’

सुधा हिचकिचाते हुये बोली, ‘मैडम मेरा एक वर्ष का बेटा है। उसे नहलाने, खिलाने, उसके कपड़े धुलने आदि में सुबह देर हो जाती है।’

वैशाली, ‘अच्छा, तुम्हारा बेटा भी है। लेकिन इसमें शरमाना कैसा?’

सुधा, ‘मैडम! कोई मुश्किल नहीं होगी। मेरा विश्वास कीजिये, मै अपने घर की कठिनाईयों को ड्यूटी के आड़े कभी भी आने नहीं दूंगी। मै मन लगाकर काम करूंगी।’ वह हाथ जोड़कर कातर हिरणी की भांति वैशाली को देखने लगी।

वैशाली के मन में सुधा के प्रति अनायास प्यार और सहानुभूति का ज्वार उठने लगा। वह बोली, ‘सुधा मुझे कोई प्राब्लम नहीं है। बस तुम्हें कोई कठिनाई न हो।’ वांछित की प्राप्ति से भावविभोर सुधा वैशाली को धन्यवाद देते हुये वहाँ से चली गयी। सुधा के जाने के बाद सुपरवाइजर शहंशाह वैशाली को बताने लगा, ‘मैडम! यह एक अच्छे घर की लड़की है। इंटर तक पढ़ी हुई भी है। इसके पिता की कपड़े की दुकान थी, लेकिन मंदी के कारण कुछ खास मुनाफा नहीं हो रहा था। फिर इसकी शादी में दहेज की रकम जुटाने के लिये उन्हें कई लोगों से कर्ज लेना पड़ा, जिसे चुकाने के लिये उन्हें अपनी दुकान तक गिरवी रखनी पड़ी किन्तु इसके बावजूद वे कर्ज अदा नहीं कर पाये। कोई न कोई साहूकार उनके दरवाजे पर पैसे माँगने के लिये हमेशा खड़ा ही रहता था, जिससे मोहल्ले और बाजार में उनकी बदनामी हो रही थी। रोज-रोज की जलालत से तंग आकर इसकी शादी के कुछ महीनों बाद ही उन्होंने खुदखुशी कर लिया। इधर इसका पति कहीं काम करता था लेकिन पता नहीं किसी वजह से उसकी नौकरी भी छूट गई। तब सुधा की माँ ने अपना मकान गिरवी रखकर बैंक से लोन लेकर इसके पति को बिजनेस शुरू कराया परन्तु किस्मत ने वहाँ भी साथ नहीं दिया। घर की माली हालत निरन्तर खराब होते जाने के कारण दो पैसे कमाने के लिये इसे बाहर निकलना पड़ रहा है।’

वैशाली, ‘ओह! पर इसकी मुस्कराहट देखकर कोई सोच भी नहीं सकता कि वह ऐसी कठिन मुसीबतों से इस कदर दो-चार हो रही है।’ सुधा अगले दिन से वैशाली के घर ड्यूटी पर आने लगी। अपने अच्छे व्यवहार के कारण उसने घर के सभी सदस्यों का दिल कुछ ही समय में जीत लिया। सबसे ज्यादा खुशी वैशाली की दोनों बेटियों को हुई, जिन्हें सुधा के रूप में दोस्त समान एक बड़ी बहन मिल गई थी। उनके स्कूल से लौटने पर वह उन्हें खाना परोसती, बालों में कंघा करती और समय मिलने पर उनके साथ बैडमिंटन भी खेल लेती। तमाम जिम्मेदारियों का बोझ उठाये और अपने घर की देहरी के बाहर काम करने का कोई अनुभव न होने के बावजूद सुधा ने कार्य को पूजा की तरह समझा।

वैशाली के घर में सुधा को काम करते-करते तीन-चार महीने हो चुके थे। इधर कुछ दिनों से वैशाली अनुभव कर रही थी कि सुधा बहुत चुपचाप सी रहने लगी है। अक्सर वह खोई-खोई सी रहती है। जब कभी उसे पुकारो तो ऐसे लगता जैसे वह किसी शून्य से निकल कर बाहर आ रही हो। वैसे तो किसी के निजी जीवन में दखल देना वैशाली को पसन्द नहीं था लेकिन सुधा अब उस घर की एक सदस्य हो चुकी थी। वैशाली को उसे उदास देखना अच्छा नहीं लग रहा था। उसने एक दिन प्यार से उससे पूछा, ‘सुधा! कोई परेशानी है, क्या?’

सुधा, ‘नहीं मैडम!’

वैशाली, ‘तो आजकल इतनी बुझी-बुझी सी क्यों रहती हो?’ पहले तो उसने नकारना चाहा, परन्तु जब वैशाली ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा कि अपने आप में घुटते रहने से बेहतर है कि दर्द को साझा कर लिया जाये तो उसके अन्दर कैद दर्द का दरिया स्नेहसिक्त पथ पाकर आँखों के जरिये बह निकला। सुधा, ‘मैडम, क्या बताऊँ? बोलते हुये अच्छा नहीं लग रहा है।’

वैशाली, ‘क्यों, ऐसी क्या बात हो गयी?’

सुधा, ‘मैडम! इधर कुछ दिनों से अखिलेश का व्यवहार कुछ अजीब सा हो गया है। वे बात-बात पर मुझ पर शक करने लगे हैं।’

वैशाली, ‘पर, ऐसा क्यों?’

सिर झुकाये-झुकाये सुधा बोली, ‘मैडम! आपके ड्राइंग रूम में वो आपकी फैमिली फोटो लगी है न, उसकी तस्वीर मैने अपने मोबाइल से खींच लिया था। एक दिन मैं मोबाइल में वह फोटो इन्हें दिखा रही थी। बातों-बातों में मैने इन्हें बताया कि मैडम के साथ-साथ साहब भी मेरा बहुत ध्यान रखते हैं। वे मुझसे बहुत प्यार से बोलते हैं। यह बात उन्हें शायद अच्छी नहीं लगी। उस दिन से उनका रवैया बदल गया है। खुल कर तो कुछ नहीं कहते पर उनके कटाक्ष का अभिप्राय मैं समझती हूँ। मै जब भी अपनी कोई बात उन्हें बताना चाहती हूँ, तो वे यही बोलते हैं कि मुझे क्यों बता रही हो? जाओ! अपने साहब को बताओ, वही तुम्हारी बात सुनेंगे! और वो भी प्रेम से।’

वैशाली, ‘ओह! तो यह बात है। जिसके कारण तुम परेशान हो।’

वैशाली, ‘सुधा! तुम परेशान मत हो। मुझे लगता है कि अखिलेश इस समय नौकरी चले जाने और बिजनेस ठप्प पड़ जाने से बहुत परेशान है और शायद तुम्हारे नौकरी करने से उसके अन्दर किंचित हीनभावना घर कर गयी है।

वह बोली, ‘क्या, मैं तुम्हारी कोई मदद कर सकती हूँ?’

सुधा, ‘मैडम! आपके तो पहले से ही मुझ पर अनेक अहसान हैं। अब मैं आपको ज्यादा परेशान नहीं करना चाहती।’

वैशाली, ‘अरे! इसमें परेशानी की क्या बात है। इंसान ही तो इंसान के काम आता है। मैं आज ही निखिल से इस संबंध में बात करती हूँ। शायद, कोई हल निकल आये।’

शाम को जब निखिल घर आये तो वैशाली ने बताया कि सुधा और उसका परिवार इस समय परेशानियों के चक्रव्यूह में बुरी तरह उलझा हुआ है। निखिल एक बहुत ही सुलझे हुये और जिन्दादिल इंसान थे। यह सुनते ही वे झट से बोले, ‘अरे! तुमने पहले क्यों नहीं बताया। अभी पिछले महीने ही बैंकों में डिजिटल सिक्योरिटी सिस्टम लागू करने के लिये शहर के सभी प्रमुख बैंकों के चीफ मैनेजर के साथ मेरे ऑफिस में मीटिंग हुयी थी, जिसके दौरान सभी प्रमुख बैंकों के चीफ मैनेजर से अच्छी-खासी जान-पहचान हो गयी है। तुम सुधा को बताओ कि वह अपने पति के साथ कल मेरे ऑफिस में लोन के सारे कागज लेकर आ जाये। सुधा का लोन जिस बैंक से हुआ है। मैं उसके बैंक के चीफ मैनेजर से बात कर कोई न कोई रास्ता निकालता हूँ।’

वैशाली की आँखे खुशी से भीग गयी। वह बोली, ‘आई एम प्राउड ऑफ यू, निखिल! मुझे विश्वास था कि आप कोई न कोई रास्ता जरूर निकाल लेंगे।’ खुशी के अतिरेक में उसने निखिल को एक जादू की झप्पी दिया और फिर तुरन्त सुधा को फोन मिला कर बताया कि कल वह अपने पति के साथ निखिल के ऑफिस में लोन के सारे कागज लेकर पहुँच जाये। वे बैंक मैनेजर से बात कर घर की नीलामी रोकने के लिये कोई न कोई उपाय अवश्य निकाल लेंगे।

सुधा, ‘मैडम! मैं कैसे आपका शुक्रिया अदा करूं। मुझे लेकर साहब के प्रति इनकी गंदी सोच जानकर भी आप मेरी इतनी मदद कर रही है, आप इंसान नहीं देवी है।’

वैशाली, ‘अरे! बस, बस। जाओ, अखिलेश को यह बात बताओ।’

सुधा के बोल उसके गले से निकल नहीं पा रहे थे लेकिन वैशाली के कानों में उसके शुक्राने के बोल साफ सुनाई दे रहे थे।

सुधा के सामने अब सबसे बड़ी समस्या यह थी कि वह अखिलेश को साहब के पास ले जाने के लिये कैसे समझाये। उसे डर लग रहा था कि अखिलेश कहीं यह बात सुनते ही भड़क न उठे। लेकिन उसके सामने और कोई विकल्प भी तो नहीं था परन्तु कहते है न कि जहाँ विकल्प नहीं होता, वहाँ संकल्प होता है। 

वह अखिलेश से बोली, ‘आज बातों-बातों में मैडम से बैंक का कर्ज न चुका सकने के कारण घर की नीलामी वाली बात हुयी थी। मैडम ने मुझसे कहा था कि वह साहब से हमें मदद करने के लिये कोई रास्ता निकालने के लिये बोलेंगी। अभी उनका फोन आया था कि कल साहब ने मुझे और आपको ऑफिस में बुलाया है। वे घर की नीलामी रोकने के लिये बैंक के किसी बड़े अफसर से बात करेंगे।’

साहब का नाम सुनते ही अखिलेश की त्योरियां चढ़ गयी और वह सुधा को जली कटी सुनाने लगा, ‘क्या जरूरत थी, अपने घर की बात मैडम और साहब को बताने की? आजकल वे लोग तुम्हारे कुछ ज्यादा ही सगे होने लगे हैं। तुम उन्हीं के यहाँ जाकर क्यों नहीं रह जाती?’ इतना कहकर वह पैर पटकते हुये घर से बाहर चला गया।

घर से बाहर निकलकर अखिलेश बहुत देर तक मन ही मन सुधा पर बड़बड़ाते हुये सड़कों पर इधर-उधर घूमता रहा। फिर उसे लगा इस समय कोई और तो उसका साथ नहीं दे रहा है और यदि साहब ने मदद के लिये बुलाया है, तो चलो मिल आते हैं, पर यदि वहाँ पर सुधा और साहब के बीच उसे कोई खोट नजर आया तो वह उन दोनों को वहीं पर खरा-खरा सुना देगा। फिर चाहे जो होगा देखा जायेगा।

अगले दिन सुधा और अखिलेश निखिल के दफ्तर के लिये निकले। रास्ता एक राही दो, मंजिल एक विचार दो, एक आशा और विश्वास से परिपूर्ण और दूसरा तिरस्कार और उपेक्षा का भाव लिये एक टूटते हुये घर को बचाने के लिये दीपशिखा को दोनो हाथों से तेज हवाओं से सुरक्षित रखने का यत्न करती हुयी तो दूसरा मन बहलाने के लिए जुए का एक दाँव लगाने जाते हुये। निखिल साहब के ऑफिस की विशालकाय बिल्डिंग और वहां गेट पर मुस्तैद खड़े संतरियों की फौज को देखकर अखिलेश की हिम्मत जवाब दे गयी। वह सुधा से व्यंग्य पूर्ण लहजे में बोला, ‘क्या तुम्हें लगता है कि तुम्हारे साहब हमसे मिलेंगे?’

फिर रिसेप्शन रूम में दाखिल होकर अखिलेश हिचकिचाते हुये रिसेप्शनिस्ट से बोला, ‘निखिल सर से मिलना है।’

रिसेप्शनिस्ट, ‘अच्छा! आप ही अखिलेश और सुधा जी हैं। निखिल सर के पीए ने आप दोनो का नाम हमें पहले से नोट करा रखा है। आप अन्दर जा सकते हैं। अच्छा रुकिये, आपके साथ मैं किसी को भेज देती हूँ, नहीं तो आपको वहाँ तक पहुँचने में दिक्कत होगी।’

रिसेप्शन पर उनके आने की पूर्व सूचना दर्ज होने की बात सुनकर जहाँ अखिलेश भौंचक था, वहीं सुधा श्रद्धा से भींग चुकी थी। साथ गये व्यक्ति ने उन दोनो को बड़े आदर के साथ निखिल के पीए से मिलवा दिया। उस समय निखिल के चैम्बर में मीटिंग चल रही थी। पीए ने बताया कि सर ने उन लोगों के आने के बारे में उसे बता रखा है और यह भी कहा है कि मीटिंग खत्म होते ही वे सबसे पहले उन्हीं से मिलेंगे। तब तक वे लोग गेस्ट रूम में बैठें।

मीटिंग खत्म होते ही निखिल ने उन्हें फौरन अपने चैम्बर में बुला लिया। वे दोनो उसके मेज के पास जाकर खड़े हो गये। निखिल, ‘तुम लोग खड़े क्यों हो? बैठ कर आराम से बताओ, कि मै तुम लोगों की किस प्रकार मदद कर सकता हूँ।’

सुधा की ओर मुखातिब होते हुये निखिल बोले, ‘बेटा! बताओ क्या बात है?’

निखिल के मुँह से सुधा के लिये बेटा संबोधन सुनकर अखिलेश चौंका। वह सोचने लगा कि अरे! साहब तो इसे बेटा कहकर बुला रहे हैं। कहीं उसे सुनने में कोई गलतफहमी तो नहीं हो गयी।

सुधा धीरे से अखिलेश से बोली, ‘आप बताइये।’

निखिल, ‘अच्छा अखिलेश! तुम बताओ मैं तुम्हारी मदद किस प्रकार कर सकता हूँ? सुधा हमारी बेटी की तरह है। मेरे से जो बन पड़ेगा, मैं तुम लोगों के लिये अवश्य करूंगा।’

अखिलेश को कोई जवाब देते नहीं सूझ रहा था। निखिल साहब की आवाज की निश्छलता उसे आभास करा रही थी कि वे बिल्कुल सच्चे मन से सुधा को बेटी कहकर बुला रहे हैं, न कि उसे सामने देखकर भरमाने के लिये।

निखिल साहब की वाणी में सुधा के लिये बिल्कुल वही प्यार झलक रहा था, जैसे एक बाप का अपनी बेटी के लिये होता है। वाणी और निगाहों की पवित्रता ने अब तक अखिलेश का काफी हद तक हृदय परिवर्तन कर दिया था। उसे बहुत पश्चाताप होने लगा कि उसने अपनी पत्नी पर बेबुनियाद शक क्यों किया?

अखिलेश को विचारों में गुम देखकर निखिल ने पूछा, ‘बेटा, तुम निसंकोच होकर पूरी बात बताओ और यह मत समझना कि मैं तुम पर कोई अहसान कर रहा हूँ।’

भरे गले से अखिलेश ने कुछ बोलना चाहा, पर भावातिरेक के कारण बोल उसके कंठ में ही अवरुद्ध हो गये। वह अचानक कुर्सी से उठ कर निखिल साहब की ओर जाने लगा। सुधा को लगा कि कहीं अखिलेश अचानक से साहब के सामने कोई तमाशा न कर दे। लेकिन जब उसने अखिलेश को निखिल साहब के पैरों पर झुकते हुये देखा तो उसे अपनी आँखों पर सहसा विश्वास ही नहीं हुआ। वह रूंधे गले से बोल रहा था, ‘सर! मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा है कि कोई इंसान क्या इतना अच्छा भी हो सकता है, जो अपने एक मामूली स्टाफ के लिये इतनी फिक्र करे।’

निखिल अपने हाथों से उसका कंधा पकड़ कर उठाते हुये बोले, ‘अरे भाई! मुझे इतना ऊंचा मत चढ़ाओ। मैं एक साधारण इंसान हूँ और बस इंसान बना रहूँ, यही मेरे लिये बहुत है और यह स्टाफ की बात कहाँ से आ गयी। मैने बोला न कि सुधा मेरी बेटी की तरह है।’

तब तक चाय आ चुकी थी। निखिल अखिलेश से हँसकर बोला, ‘कड़क चाय पीकर अब कड़कती आवाज में मुझे पूरी बात बताओ।’

अखिलेश ने निखिल को सारी बात बताया। संयोग से अखिलेश ने जिस बैंक से लोन लिया था, उसके चीफ मैनेजर निखिल के ऑफिस में पिछले दिनों हुयी मीटिंग में आये थे। निखिल ने तुरन्त अपने पीए को उनसे बात कराने को बोला। निखिल ने उन्हें पूरी बात बताते हुये उनसे इस केस को व्यक्तिगत रूप से ध्यान देने के लिये बोला और कहा कि वह इसके लिये उनके व्यक्तिगत तौर पर अहसानमंद रहेंगे। बैंक के मैनेजर ने निखिल को आश्वस्त किया कि अखिलेश के घर की नीलामी नहीं होगी। वे नोटिस वापस ले लेंगे। बस वह थोड़ी-थोड़ी रकम खाते में जमा कराता रहे। निखिल ने उन्हें आश्वस्त कर दिया कि किस्त समय पर जमा होती रहेगी, चाहे वह किस्त उसे ही क्यों नहीं जमा करना पड़े।

अखिलेश अभी यह तय ही नहीं कर पा रहा था कि वह किस तरह निखिल सर का शुक्रिया अदा करे कि एक अप्रत्याशित ऑफर ने उसे भौंचक्का कर दिया। बैंक मैनेजर से बात करने के बात निखिल अखिलेश को अपना विजिटिंग कार्ड देते हुये बोले, ‘तुम कल एसआईएस ग्रुप के एमडी से मिलकर मेरा कार्ड उन्हें दे देना, वे तुम्हे अपने यहाँ जॉब पर रख लेंगे। तुम्हारी नौकरी के लिये मैने उनसे बात कर लिया है। इससे तुम्हे बैंक की किस्त भरने में मदद मिलेगी।’

कहाँ तो अखिलेश निखिल साहब को परखने आया था, परन्तु अनजाने में उसके स्वयं का आत्मपरीक्षण हो गया। उसे अहसास हो गया कि निर्मूल बातों के भंवर में फंसकर उसने अपने अन्दर के इंसान को लहूलुहान करने के साथ-साथ अपनी निर्दोष सुधा के चरित्र पर काला ग्रहण लगाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा। जबकि उसका चरित्र शरद त्रतु के रात्रिकालीन आसमान की तरह बिल्कुल निर्मल था, जिसमें चाँद-तारे झिलमिला कर अपना प्रकाश बिखेर रहे थे बस वही उनको इतना समीप रहने पर भी नहीं देख पा रहा था।

वहाँ से निकलने के बाद घर पहुँचने तक वह बिल्कुल मौन रहा। सुधा ने एकाध बार उससे बात करने की कोशिश भी किया परन्तु, वह चुप ही रहा। लेकिन घर पहुँचते ही उसके अन्दर का मौन रुदन बनकर फूट पड़ा। वह बोला, ‘सुधा! वैसे तो मैं माफी के लायक नहीं हूँ पर हो सके तो मुझे माफ कर देना। तुम इस घर के लिये इतना कुछ कर रही थी और मैंने तुम्हें कितना गलत समझा और तुम्हारे साथ-साथ निखिल सर जैसे देवतुल्य इंसान को भी। मैं इतना नीचे कैसे गिर गया मुझे समझ में नहीं आ रहा है।’

सुधा उसके कंधे पर हाथ रखते हुये बोली, ‘जो हुआ उसे भूल जाइये। मेरी खुशियों का घरौंदा केवल आपके सहयोग और विश्वास की नींव पर ही टिका है।’

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