how to wash woolen clothes
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Grehlakshmi Story:”आज समृद्धि के लिए कुछ लेना है…उसका जन्मदिन आने वाला है न!”
सर्दियां पड़नी शुरू हो गई थी यह सोचकर कि उसे गर्म कपड़े ही देना चाहिए… मैं मॉल में गर्म कपड़े वाले शॉप में घुस गई।

वहां उसके लिए ऊन के कपड़े पसंद करते हुए मेरी नजर सामने रखे रंग-बिरंगे ऊनों पर पड़ी। उन्हें देखते ही मेरा मन ललक उठा।

जब भी कभी भी ऊनों के लच्छों या गोलों पर मेरी नजर पड़ती है तो मुझे विभोर की वह बातें याद आ जाती हैं।वह हमेशा कहता था
” वैशाली, तुम कुछ भी मत देना…बस मुझे अपने हाथों से नरम नरम स्वेटर बनाकर जरूर दिया करना!”

” क्या….!!!” मैं जोर से चिल्ला पड़ती थी…। मेरे माथे पर पसीने की बूंदे झिलमिला उठी थीं।

… यह क्या कह रहे हो विभोर… मैं और नीटिंग… यह मुझसे नहीं होगा… मुझे तो सलाइंया चलानी भी नहीं आतीं…!”

” हा…हा… हा…!!! विभोर हंसने लगता था।
” क्या तुम्हें लगता है कि मैं रसायन और तरह-तरह के संगठनों के साथ प्रयोग कर कुछ बना सकता हूं और इंजीनियरिंग कर सकता हूं ?
जब मैं इंजीनियर बन सकता हूं तो तुम भी निटर बन सकती हो।यू आर ए गुड निटर…! आई नो!”

“ओ विभोर…मुझे ऐसे सपने मत दिखाओ… मैं गिर पडूंगी…!” मैं हकलाते हुए कहती थी।

उसने मेरी शक्ल देखी और जोर से हंस पड़ा था।

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” कोई बात नहीं! वैशाली…, कभी भी जब भी तुम्हें मौका लगे तुम सीख लो… मेरी खातिर !”

“जरूर…!” मैंने उसकी बातें हवा में उड़ा दिया था।

मैं और विभोर बहुत दोनों स्कूल के समय से ही फ्रेंड थे। किसी कारणवश उसने अपना दसवीं रिपीट किया था और वह मेरे साथ आ गया था ।

हम दोनों ने साथ-साथ बोर्ड एग्जामिनेशन और 12वीं की परीक्षा दी।

12वीं के बाद उसने इंजीनियरिंग क्लियर कर लिया था और फिर वह पढ़ने के लिए भुनेश्वर चला गया था ।

मैंने अपना स्ट्रीम चेंज कर आर्ट्स ले लिया था। उसके बाद ग्रेजुएशन फिर बीएड।

बीच-बीच में हमारी मुलाकात होती रहती थी क्योंकि वह हमारे पड़ोस में ही रहता था।
हम दोनों दोस्ती से कब ऊपर उठकर एक दूसरे को दिल दे बैठे थे यह मुझे भी नहीं पता चला और ना ही विभोर को।

हम एक दूसरे के सपनों में खोए रहते थे। जहां मैं उससे हजारों महंगी फरमाइशें कर दिया करती थी, वहां शीतल शांत बैठा रहता था। कभी कुछ भी नहीं कहता था।

वह अपने कॉलेज में पार्ट टाइम ट्यूशन भी करता था जिसके कारण उसे पैसे बनते जाते थे।

वह अपने ट्यूशन के पैसों से मेरे लिए वह उपहार खरीद लाया करता था।

जब भी वह मुझसे मिलता तो उसकी आँखों में एक ललक मुझे दिख जाया करती थी..।वह अपने स्वेटर प्रेम को जरूर जाहिर किया करता था… जब कभी वह मेरे घर आता मेरी मां और चाची को बुनते हुए देखा करता तो बड़ी हसरतों से कहा करता था

“चाची, इसे भी निटिंग सिखाया कीजिए ना ..!”

तब मां जोर से हंस पड़ती थी और कहती थी

“यह तो शेरनी है उसे क्या जरूरत है ..यह अपने दहाड़ से अपना घर संभाल लेगी!”

जब भी मैं बैठकर सिखाती हूं यह उठ कर भाग जाती है… अब मैं क्या करूं?”

अपनी बातें बनाते हुए भी वह कहता
“चाची, जब आपका दमाद आएगा तो उसकी भी तो ख्वाहिशें होंगी कि वह चाहेगा कि उसकी पत्नी आपकी तरह स्वेटर बुनकर दे”

“नहीं बेटा, मां कहती “उस लड़के की ख्वाहिश इस जन्म में नहीं पूरी होने वाली क्योंकि यह कभी भी नहीं बुनेगी.. मुझे पता है!”
विभोर उदास हो जाता था।

धीरे-धीरे हम दोनों की पढ़ाईयां बढ़ती गई ।हम दोनों एक दूसरे से बिछड़ते चले गए।

जैसे मेरा बीए कंप्लीट हुआ पापा ने मुझे बीएड में डाल दिया।

उसके बाद मैं वहां से दूर बीएचयू उत्तर प्रदेश में आ गई।

बीएचयू में B.Ed करते-करते ही मेरी चाची के रिश्तेदारी में मेरा विवाह तय हो गया।

उधर विभोर को जब यह पता चला कि मेरा विवाह तय हो गया है तब वह चुपचाप मेरे रास्ते से हट गया। अब वह बहुत ही कम मधुपुर आया करता था ताकि उसका और मेरा सामना ना हो।

मेरे कुछ समझ में नहीं आया… मैं विभोर से बहुत कुछ चाहती थी।

जब उसने मुझे बिल्कुल ही इग्नोर कर दिया तो मेरा दिल टूट गया।

टूटे दिल से मैं साकेत के गले में जयमाला डालकर उसका हाथ पकड़ कर उसके घर आ गई और मरे हुए मन से उसके घर गृहस्थी संभाल ली।

अब जाकर मुझे समझ में आने लगा था विभोर की बातें…वैशाली मेरे लिए कुछ भी मत करना… प्लीज मेरे लिए एक स्वेटर जरूर बुनना।”

उसे मेहंदी वाला हरा रंग बहुत ही ज्यादा पसंद था।अब जब मैं मायके जाती थी तो उसे ढूढा करती लेकिन अब कहाँ विभोर…!

फिर विभोर के पापा का ट्रांसफर हो गया। वह लोग वहां से चले गए थे।

कोई ठोस खबर भी नहीं थी कि यह लोग कहां गए हैं..न ही फोन पर बात हो पाती थी। लेकिन विभोर के बारे में कुछ भी पता नहीं चल पाता था कि वह कहां है…!

” बहन जी…!!!, यह ऊन आपको लेना है क्या?”

दुकानदार की आवाज़ सुन कर मैं विचारों से बाहर निकल आई।

मैंने कहा
“ये हरी वाली एक किलो दे दो।”

” एक किलो..!,बहन जी ..इतने सारे ऊन लेकर आप क्या करेंगी?” दुकान वाला हंसने लगा ।

“आज के जमाने में कोई नहीं लेता है तो आपने क्यों रखे हैं..!”मैं खिसिया गई।

“हम ऑर्डर पर स्वेटर में ही बुनते हैं बहन जी इसलिए हमने ऊन लगा रखा है।”

मैंने कहा”पर मुझे बुनना पसंद है।”

मेरी भतीजी समृद्धि का बर्थडे अच्छी तरह से सेलिब्रेट हो गया था। मेरी छोटी बहन रुचि मेरे ही पास थी।

घर में दो दिन तक काफी गहमागहमी रही। मेहमान चले गए ।
मेरे हाथों में ऊन का थैला देखकर रुचि चौक गई।

उसने कहा” दीदी यह क्या है?”

“कुछ पुरानी यादें है,रुचि.. मैं सोच रही हूं इसे पूरी कर लूं!”

” कैसी यादें दीदी?”

“कुछ नहीं रुचि तुम नहीं समझोगी।

मेरे अंदर एक आत्मग्लानि का भाव दौड़ गया। विभोर को खोने के बाद मैंने जरूर सलाइयाँ चलानी सीख ली थी बल्कि अच्छी खासी स्वेटर भी बुन लेती थीं।

अपने दोनों बच्चों के लिए, स्वेटर, फ्रॉक यहां तक की अपने लिए शॉल और साकेत के लिए भी कई स्वेटर बुन लिया था।

यह बात एक आश्चर्यचकित करने वाली थी।जब भी मैं छुट्टियों में मम्मी के पास जाया करती.. उनसे तरह-तरह के डिजाइन और निटिंग के टिप्स लेकर आया करती थी। मां को भी आश्चर्य होता था यह देखकर जो लड़की सलाइंया देखकर भागती थी वह आज कैसे इतनी स्वेटर कैसे बुन लेती है?

एक हफ्ते में घर खाली हो गया।साकेत ऑफिस के टूर से मुंबई निकल गए ।दोनों बच्चे हॉस्टल में थे।

मेरे हाथ सलाइयों पर अनवरत चल रहे थे।
विभोर की पसंदीदा रंग मेहंदी ग्रीन…अब मैं अपने लिए एक शॉल बना रही थी।

चार दिनों बाद साकेत घर लौट कर आ गए।
उन्होंने मुझे बुनते हुए देखा पर उन्होंने टोका नहीं। वैसे भी साकेत की ऐसी आदत नहीं थी कि वह मेरे कामों में किसी भी तरह के व्यवधान पैदा करें।

मैंने भी उस शॉल को पूरी कर अलमारी में अच्छी तरह से पॉलिथीन में लपेट कर रख दिया।

कई दिन बीते, मैं फेसबुक खंगाल रही थी तभी मेरी नजर ऑनलाइन निटिंग प्रतियोगिता में पड़ी जो किसी पत्रिका द्वारा आयोजित की जा रही थी।

इसमें जीतने वाले को अच्छी खासी रकम और पत्रिका में नाम और पहचान भी मिलने वाली थी। इसके साथ एक कॉन्ट्रैक्ट भी होने वाला था।

मैंने उस शॉल की फोटो खींचकर उस पत्रिका में भेज दिया।

कुछ दिनों बाद मेरा शॉल सेलेक्ट हो गया। उन लोगों ने उस शॉल और उसके डिजाइन की सारी डिटेल्स, साथ में मेरा फोटो और परिचय भी मांगा था।

सब कुछ करने के बाद लगभग दो महीने बाद की मैगजीन में मेरा शॉल मेरे फोटो के साथ छप चुका था।

मेरे दिल में एक खुशी का समंदर उठ चुका था। मेरे साथ मेरे पूरे परिवार के लोग भी खुश थे।दोस्त भी,पड़ोसी सभी बधाइयाँ दे रहे थे पर जिसकी तारीफों का इंतजार था.. वही नहीं था…!!

मेरे अंदर कहीं ना कहीं एक शीशे सा कुछ चटक गया। जिसके लिए मैंने अपने आप को बदल दिया वह मेरे पास आसपास कहीं भी नहीं था।

एक दिन दोपहर मैं आराम कर रही थी तभी मेरा कॉलिंग बेल बजा।

मैं बाहर निकली। एक बहुत ही भव्य पर्सनालिटी का एक व्यक्ति खड़ा था।

“जी,कहिए…?”

वह हँस पड़ा। उसकी हंसी देखकर मुझे याद आ गया। “अरे विभोर…!,तुम?…यहां…!”

“हाँ मैं…!,बड़ी मुश्किल से मैंने तुम्हारा पता ढूंढ निकाला… अब अंदर नहीं बुलाओगी?”

” हां.. हां.. आओ ना! अंदर आओ!” मैंने उसे बुलाया। वह अंदर आया उसने सोफे पर बैठते हुए कहा

” बधाई हो वैशाली! तुमने इस कहावत को बदल दिया सूरज पूरब में नहीं उग सकता है लेकिन वैशाली स्वेटर नहीं बुन सकती… लेकिन तुमने एक अच्छा खासा शॉल बना लिया और प्राइसमनी जीत कर अपना नाम भी कमा लिया। कमाल है…यार !हा.. हा.. हा…!”

उसकी हंसी ड्राइंग में गूंज रही थी।

मैंने अपनी नजरें नीची कर लीं। कहीं मेरे को सच पता ना चल जाए कि मैं मैंने उसी के लिए बुनाई करना सीखा था।

उसकी हंसी मैं एक खालीपन मुझे दिख रहा था पर मै कुछ भी नहीं कर सकती थी।

तभी साकेत ऑफिस से वापस लौटे। दोनों बैठ कर बातें कर रहे थे।

काफी देर बाद बिभोर जाने से पहले अपने से परिचित अंदाज में कहा
” वैशाली, तुमने अपना वादा नहीं पूरा किया। मैंने तुमसे कहा था मुझे एक स्वेटर जरूर गिफ्ट करना !”

फिर उसने साकेत की तरफ मुड़ कर कहा
“साकेत जी इसने अपना वादा पूरा नहीं किया है अब मैं अगली बार तब आऊंगा जब यह मेरे लिए एक हरे रंग का स्वेटर बनाएगी!”

साकेत हँसने लगे।

” हां …हां..श्योर…! मैं एकबारगी से हंस पड़ी।

“वैभव तुम कभी नहीं बदलोगे!” मैं मन ही मन मुस्कुरा उठी।