लघुकथा
जैसे ही चौराहे की लाल बत्ती पर गाड़ी रुकी गाड़ी के आसपास एक-दो बच्चे आ गए। एक के हाथ में डस्टर था जिससे वह कार साफ करने लगा। एक बच्चा पानी की थैलियां झोले में भरे पानी-पानी की आवाज लगाता कारों में झांक रहा था।
गाड़ी में बैठी महिला ने जो चेहरे से काफी रईस दिख रही थी, पानी की आवाज लगाते और खिड़की से झांकने का असफल प्रयास करते बच्चे को जरा सी विन्डो खोलकर झिड़का, ‘क्या, चैन नहीं है, हटो यहां से, गाड़ी में क्यों झांक रहे हो, क्या कुछ चुराने का इरादा है?
बच्चा मायूसी से हटकर दूसरी कार में झांकने लगा। सिग्नल हरा हो गया, गाडिय़ां स्टार्ट होकर रेंगने लगी। तभी जो बच्चा कार साफ कर रहा था उसने तेजी से अपना हाथ फैलाया, मात्र एक रुपये के लालच में, जो कि उसका मेहनताना था पर उसे भी झिड़क दिया गया। उसकी आंखों में नमी मैंने दूर से देखी।
संयोगवश मेरी एक्टिवा उस कार के पीछे ही थी। कुछ दूर जाने के बाद गाड़ी फुटपाथ पर बनी झोपड़पट्टियों के पास रुकी।
गाड़ी से एक महिला व पुरुष उतरे। ड्राइवर गाड़ी से कपड़े व खाने का सामान निकाल रहा था और वो दोनों वहां मौजूद बच्चों को सामान बांट रहे थे।
एक दो गाडिय़ां और आ गई, अब सब मिलकर सामान बांट रहे थे। तेजी से कैमरे फ्लैश चमका रहे थे। खुशी-खुशी सारा सामान बांटकर गाडिय़ां अपने रास्ते पर चली गई।
ये सारा नजारा मेरी आंखों ने देखा। मैं सोचने पर मजबूर थी कि चौराहे पर अपना पसीना बहाते वो मेहनत करते बच्चे क्या बच्चे नहीं थे? उनका भी इस सामान पर बराबर का हक था, पर इन लोगों का मात्र प्रसिद्धि के लालच में समाज सेवा या नेकी करना क्या सही था? इसका जवाब मेरे पास नहीं था।
