आज मन बहुत उदास है। रह-रह कर कानों में वही आवाज गूंज रही है। लगता है काश, मैं पूरी तरह बहरा हो जाता तो ज्यादा अच्छा होता। कम से कम किसी अपने से ऐसी हृदय विदारक बात सुन कर कलेजा छलनी तो न होता। बहुत भुलाने की कोशिश की मैंने, पर जितना भुलाने की कोशिश की उससे कहीं ज्यादा ही वह वाकया याद आ जाता है।

जब मन ही अशान्त व रोगी हो तो तन भी रोगी हो ही जाता है। स्थाई रूप से मन के अन्दर घात लगा कर बैठी वेदनाओं ने अब तन को खोखला करना शुरू कर दिया है। आए दिन कोई न कोई रोग जकड़ ही लेता है। मेरी आदत भी तो ऐसी है, जब तक रोग उग्र रूप न ले ले तब तक डॉक्टर के पास अस्पताल जाना मैंने कभी मुनासिब ही न समझा।

कई दिन से खास-खास कर बुरा हाल था। इस खांसी ने तो गला ही जकड़ लिया। अब आवाज भी बैठ गई। मॅंह से कुछ बोला ही न जा रहा था। यूँ भर्राई आवाज और गले के दर्द ने आखिर अस्पताल का रास्ता दिखा ही दिया। बचपन से ही मेरे आवाज की तारीफ होती थी। यूँ  मैं कोई गायक भी नहीं हूँ फिर भी मेरे गले की तारीफ तो होती ही थी। मुझे यह बात भी परेशान कर रही थी कि मेरी जिस आवाज को एक पहचान मिली हुई थी, वही आवाज कहीं खो न जाए। सो, इस डर ने मुझे आज डॉक्टर के पास जाने हेतु मजबूर कर ही दिया।

सारी आवश्यक जॉच डाक्टर ने की। पर यह क्या? गले की जॉच के दौरान एक और तकलीफ डॉक्टर की पकड़ में आई। मेरे दोनों कान के पर्दे में छेद था, जिसका मुझे कभी आभास ही न हुआ। खैर जैसे आज तक आभास न हुआ, शायद आगे भी होता। पर यह क्या ! मेरे जिस अपने को, मेरी इस तकलीफ से दुःख होना चाहिए था, उसी ने मेरी इस कभी पर ऐसा ताना कसा कि दिल जार-जार रो उठा।

टी.वी. क्या देख रहे हो? कुछ सुनाई भी दे रहा है? कान के दोनों छेद तो बन्द है।”
यह केवल शब्द नहीं थे, शब्दबाण थे। केवल ताना न ही, तलवार थे जो सीने के आरपार हो गए थे और कभी ने भरने वाला जख्म दे गए थे। किसी अपने के द्वारा कहे गए इन शब्दों ने हृदय को विर्दीण ही कर दिया। आंसू थमने का नाम ही न ले रहे थे।

सुना था दुःख दर्द में अपने ही काम आते हैं, पर यहां तो बिल्कुल उलटा ही हुआ। किसी गैर ने नहीं, अपने और वह भी दिल के सबसे करीबी ने यह ताना कसा तो पीड़ा और भी दुगुनी हो गई। यह अपना कोई सखा मात्र नहीं कोई माता-पिता नहीं, भाई बहन नहीं, बल्कि मेरी पत्नी रेखा है।

हां, मेरी वही पत्नी, जिसने विवाह के वक्त सुख दुःख में मेरा साथ निभाने का वचन अग्नि के समक्ष दिया था। अभी तो जीवन के कई थपेड़े खाने बाकी थे, पहली ही बार में एक छोटी सी कमी को लेकर यूं ताना मार कर आगे का जीवन और भविष्य ही असुरक्षित कर दिया। रामायण की पंक्तियां चरितार्थ होती दिखाई दे रही थी।

‘‘धीरज धर्म मित्र अरू नारी, आपद काल परखिए चारी।”

उसे क्या मालूम, मैंने उसके लिए क्या कुछ नहीं किया, और क्या कुछ नहीं सहा। ताना मारने का पहला हक तो मेरा बनता था। उसकी हजार कमियों और खामियों को दिल में दबा कर रखा। शारीरिक और मानसिक कष्ट सह कर भी मैंने अपनी सारी जिम्मेदारियां निभाई। घर की जिम्मेदारियों से उसे दूर ही रखा। इतने ऐशो आराम की जिंदगी उसे मैने ही दी है।

मेरी एक छोटी सी शारीरिक कमी का ताना मारते वक्त उसने एक बार भी नहीं सोचा कि इस वक्त मुझे ताने की नहीं सहारे की जरूरत है। विवाह जैसी प्रथा तो शायद बनी ही इसी लिए है कि विवाह के बाद पति-पत्नि जीवन भर के लिए एक-दूसरे का हर सुख-दुःख में साथ निभायें। एक दूसरे के प्रति वफादारी से अपने-अपने कर्तव्य का निर्वहन करें। पर उसके लिए तो ये सब बातें फिजूल की है। उसे तो हमेशा सिर्फ मेरी नौकरी और मेरे पैसे से ही मतलब रहा। शादी भी उसने सिर्फ इसीलिए की थी, क्योंकि उसे पति नहीं, पैसों की जरूरत थी।

मैंने कभी भी उसके साथ सुखद दाम्पत्य नहीं जिया। उसके विवाह पूर्व सम्बन्धों ने हमारे दाम्पत्य जीवन में हमेशा-हमेशा के लिए जहर ही घोल दिया। यही कारण है कि हमारा दाम्पत्य हमेशा कड़वा ही रहा। मेरे प्रति लापरवाही, घर के प्रति गैर जिम्मेदारी भी इसी का नतीजा है।

आज मुझे जो ताना सुनना पड़ा। उसकी वजह भी यही है। मुझसे तो सिर्फ कमी ही कमी नजर आती है। मेरी नौकरी और मेरे पैसे के अलावा उसे मुझसे कुछ भी अच्छा नजर नहीं आती। हकीकत तो यह है कि उसकी ढेर सारी कमियों को नजर अंदाज कर मैंने उसके साथ जैसा तालमेल बनाने की कोशिश की है, वह किसी और के बस की बात नहीं थी। बावजूद उसके, उसने कभी मेरी कद्र नहीं की। मुझे उससे ज्यादा कुछ नहीं, सिर्फ थोड़े से प्यार की जरूरत थी, लेकिन प्यार की जगह मुझे हमेशा ताने उलाहने ही सुनने को मिले।

यूं तो मैं बड़ा ही जिंदादिल इंसान रहा हूं। परिस्थिति चाहे जितनी भी विपरीत हो और चाहे जितने कष्ट हो, उन्हें भीतर ही छिपा कर उपर से हंसते-हंसाते रहना मेरा स्वभाव है। जिन्दगी को जिन्दादिली के साथ जीने की मेरी फितरत रही है, पर अब धीरे-धीरे जीने की चाहत ही मिटने लगी है। क्या है और कौन है जिसके लिए जिया जाए। यही कारण है कि बीमार होने पर मैं इलाज करवाने ही नहीं जाता। पर कभी-कभी हालात बेकाबू हो जाते हैं, तब जाना ही पड़ता है, क्यों कि नौकरी भी तो करनी है आखिर।

जब शरीर ही साथ न देगा तो नौकरी कैसे करूंगा। रेखा ने मेरे साथ जो किया सो किया, मुझे तो अपना कर्जा निभाना ही पड़ेगा न! कई बार लगता है कि एक दिन उसे अपनी गल्तियों का एहसास जरूर होगा पर उससे क्या? मेरे जीवन के वे अनमोल पल तो बीत ही गए। मेरे जीवन का जो आधारभूत है, वह तो अब भरने से रहा। जो अकेलापन है, वह तो मिटने से रहा।

वैसे रेखा इतनी बुरी भी नहीं है, सिर्फ गलत संगतों की शिकार हो गई। उसके भीतर कई अच्छाइयां भी है। उन्हीं अच्छाइयों ने तो मुझे अब तक उससे बांध कर रखा हुआ है। गुण अवगुण तो हर इंसान में होते हैं। मुझमें भी अवगुण हैं, पर कम से कम इतना तो है कि मेरी उसे कभी उपेक्षित नही किया, कभी ताना भी नहीं दिया। उस पर अपना हक जमाने की कोई कोशिश भी नहीं की। यदि उसके मन में मेरे प्रति समर्पण का कोई भाव नहीं है। तो मैं भी समर्पण की लालसा क्यों करूं। प्रेम व समर्पण तो एक भाव है जो हृदय में उत्पन्न होते हैं। उसका हृदय तो कभी मेरे लिए था ही नहीं, जिसकी पीड़ा भी मैने हमेशा महसूस की।

शायद सब लोग ही सोचते होंगे कि ऐसी स्थिति में मैने उसके साथ सामन्जस्य क्यों और कैसे स्थापित किया होगा? कारण था-मेरे संस्कार, सामन्जस्य की प्रवृति और अपने कर्तव्य तथा जिम्मेदारी का एहसास। दूसरा कारण यह भी रहा कि रेखा में स्वार्थ के अलावा कुछ अन्य अच्छाइयां भी थी जिसने मुझे उससे बांध कर रखा। उसने खुद मुझे भले ही हमेशा उपेक्षा की नजर से देखा, लेकिन मेरे घरवालों की खूब इज्जत और खातिहारी की है।

यही कारण है कि मेरे सब रिश्तेदारों की नजर में वह काफी अच्छी और महत्वपूर्ण है, उसने मेरे प्रति अपना कर्तव्य भले न निभाया हो, पर मेरे घर वालों और रिश्तेदारों की सेवा और खातिरदारीर में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी। यही कारण है कि मेरे घरवाले भी मुझे ही गलत ठहराते रहे और उसे अच्छा समझते रहे। दरअसल उसे अच्छा बनने का ढोंग करना भी खूब आता है।

खैर,सच-झूठ का फैसला तो एक दिन हो ही जाता है। वैसे सच तो यही है कि वह मुझे चाहे जितना भी उपेक्षित करें, पर मेरे मन में उसके प्रति बदले की भावना की आती ही नहीं। जो भी हो मैने, जीवन भर के लिए उसका हाथ थामा है। मैं उसके प्रति अपनी जिम्मेदारी समझता हूं। निभाता भी हूं। बस, उसका मेरे प्रति जो व्यवहार है, उसके कारण हृदय में एक टीस जरूर होती है। मुझे ताने देना, रिश्तेदारों बीच में जलील करना शायद उसे आनन्द पहुंचाता है तो यही ठीक है। अपनी -अपनी फितरत है।

आज फिर दर्द बहुत बढ़ गया है। डॉक्टर के पास अकेले जाने में बड़ा डर लगता है। कोई साथ होता है तो हिम्मत रहती है, पर किसे मैं साथ ले कर जाऊं? है ही कौन? पिछली बार रेखा ही साथ गई थी। मेरी बीमारी से दुखी होने और मेरा हौंसला बढ़ाने की बजाय ताना और मारने लगी। उस ताने से जो दुख और ठेस पहुँची थी, उतनी तो बीमारी से भी नहीं पहुंची थी।

खैर, जाना तो होगा ही। कहते है न कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का वास होता है। मुझे स्वस्थ तो होना ही होगा। मुझे जीना है अपनी पत्नी रेखा के लिए। भले ही उसने मुझे पति का दर्जा और मान-सम्मान न दिया हो, पर मैं उसे पत्नी मानता हूं। मेरे सिवा उसका है भी कौन? मुझे अपना इलाज कराना ही होगा। मुझे ठीक होना है अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए रेखा के लिए । हां, अपनी पत्नी के लिए मुझे ठीक होना ही होगा। मैं जीना चाहता हुँ अपनी पत्नी के लिए । मुझे जीना ही होगा। आखिर जिम्मेदारी और वफादारी भी कोई चीज है वरना मुझसे और उसमें अन्तर ही क्या रह जाएगा? इसी अन्तर ने तो अब तक हम दोनों को एक दूसरे से बांधकर रखा है।