इंटरनेट के इस युग में नेटबंदी किसी आपातकाल की स्थिति से कम नहीं है। ऑक्सीजन की तरह काम करता ये नेट जब बंद होने की कगार पर आ जाता है तो लोगों का सांस लेना मुश्किल हो जाता है। ऐसे में ये व्यंग्य नेटबंदी के जरिए मौजूदा दौर की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों पर कटाक्ष है।
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ठेस
मुझे जीना है अपनी पत्नी रेखा के लिए। भले ही उसने मुझे पति का दर्जा और मान-सम्मान न दिया हो, पर मैं उसे पत्नी मानता हूं। मेरे सिवा उसका है भी कौन? मुझे अपना इलाज कराना ही होगा। मुझे ठीक होना है अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए रेखा के लिए…
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वो हमें अंगूठा दिखा गई
अंगूठे का जिक्र आया तो कॉलेज के जमाने का जख्म हरा हो गया। जिस हसीना से मुहब्बत की पींगे बढ़ाई थी, वही एक दिन हमें अंगूठा दिखा गई। आज तक वह अंगूठा दर्द से सालता है।
