……….. ‘तुमको शायद नहीं मालूम कि आज तक हमारी इच्छा के विरुद्ध इस इलाके में एक पक्षी भी नहीं फड़फड़ाया है।’ राजा विजयभान सिंह ने उसे बांहों से पकड़कर झंझोड़ दिया। फिर उसका मुखड़ा अपनी ओर करते हुए क्रोध से कहा, ‘हमने कभी ऐसी जुर्रत बर्दाश्त नहीं की है।’
‘अपनी दौलत के नशे में तुम कुछ भी कर सकते हो।’ राधा ने अपने दिल को मजबूत करते हुए कहा‒ ‘परंतु तुम्हारा यह जुल्म अधिक दिन तक नहीं चलेगा।’ राजा विजयभान सिंह एक शेर के समान बल खाकर रह गया। राधा के गाल पर उसने एक ऐसा सख्त थप्पड़ मारा कि एक ओर रखे बड़े चांदी के फूलदान से टकराकर वह वहीं गिर पड़ी, उसकी कनपटी के समीप घाव बन गया। रक्त की तेज धार निकल आई।
राजा विजयभान सिंह ने दुबारा जाम डाला। पीता ही गया‒ कई-कई बार, यहां तक कि उसकी गुस्से- भरी आंखों में भी शराब का रंग उतर आया। चेहरा तमतमा उठा, होंठ भिंच गए और जब उसने अपने पैर राधा की ओर बढ़ाए तो वे लड़खड़ा रहे थे।
राधा एक घायल मृग के समान फर्श से उठने का प्रयत्न करती-सी सहमी- सहमी आंखों से उसे देख रही थी, जिसके चंगुल से बच जाना एक दैवीय चमत्कार ही होता। शेर की मांद में आया शिकार भी कभी वापस गया है?
विजयभान सिंह उसके समीप आया, झुककर उसकी बांहें थामीं और उसे खड़ा किया। राधा एक बेजान लाश के समान थी। उसने पलकें झुकाये रखीं तो राजा विजयभान सिंह ने अपनी एक अंगुली द्वारा उसकी उलझी लटों को और उलझा दिया। चंद्रमा पर मानो बादलों के टुकड़े आ गए। उसने उसके मुखड़े को ठोड़ी पकड़कर ऊपर उठाया, देखने लगा… देखता रहा, बहुत देर तक जाने क्या ढूंढ रहा था।
फिर अचानक ही कुछ सोचकर वह चौंक पड़ा, उसकी एक बांह थामकर वह उसे पलंग की ओर ले गया। उसे बिठाकर उसने समीप रखी शमा जलाई, फिर राधा के समीप ही बैठ गया। कुछ देर उसी प्रकार देखते रहने के बाद जाने क्यों उसने अपने अंदर एक परिवर्तन प्रतीत किया। राधा की पलकों पर अटके आंसू उसके दिल पर अंगारे बनकर जलने लगे थे। शमां की लौ द्वारा इनकी चमक में एक अजीब-सी रंगत उभर आई थी।
और इससे पहले कि वह रंगत उसके दिल पर पूरी तरह छाकर एक नई प्रेरणा को जन्म दे, उसके मन को एक नई करुणा का आभास कराए, उसके दिल पर छाले उत्पन्न कर दे और वह तरस खाकर उसे छोड़ दे, उसने हाथ बढ़ाकर अपनी हथेली को शमा की लौ पर रख दिया, कमरे में घना अंधेरा छा गया। राधा की काली लटों से भी अधिक घना अंधकार।
राधा को जब उसने अपनी ओर खींचा तो वह अपनी चिता पर भेंट चढ़ने को तैयार हो गई। वह जानती थी इस रंगमहल में राजा विजयभान सिंह के हाथों से बचने का कोई रास्ता नहीं है। गरीब के आंसुओं का मूल्य शायद भगवान के समक्ष भी कुछ नहीं, परंतु अपने दिल के अंदर उसने एक पक्का विचार अवश्य कर लिया था, यदि जीवन ने साथ दिया तो वह एक दिन अपनी नफरत की चिंगारी से इस महल को जलाकर राख कर देगी। कोई भी जुल्म अधिक दिन नहीं टिकता, हर वस्तु की एक सीमा होती है।……….
आगे की कहानी कल पढ़ें, इसी जगह, इसी समय….
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