……… ‘घबराओ नहीं बाबा…।’ चौधरी कृपाल सिंह ने अपने बदले की भावना छिपाकर कहा‒‘राधा हमारी बेटी के समान है। हम उन जागीरदारों में से नहीं हैं, जो किसी की बहू- बेटियों पर आंख उठाएं। यदि कुछ दिनों तक काम करने के बाद तुम्हें अच्छा नहीं लगे तो निःसंकोच तुम जा सकते हो।’ विजयभान सिंह से बदले की भावना ने उसके अंदर राधा के प्रति उत्पन्न हुई रुचि को दबा दिया था। वैसे ही राधा अब चूंकि लुट ही चुकी थी तो उसमें उनके रुचि लेने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था। राधा को अब वह ऐसे हथियार के रूप में उपयोग करना चाहते थे, जिससे विजयभान सिंह का सिर नीचा हो सके, वह तड़पे, फड़फड़ाए, सिर पटके तथा राधा को पाने के लिए अपनी सारी दौलत उन्हें सौंप दे।

उन्हें विश्वास था कि विजयभान सिंह राधा को दिलोजान से चाहता है। यदि ऐसा नहीं होता तो वह रुक्मिणी जैसी सुंदर लड़की को कभी नहीं ठुकराता। राधा के अंदर अवश्य कोई ऐसा जादू है, जिसका वह गुलाम होकर रह गया है। यह जादू उन पर भी प्रभाव डाल सकता था, यदि वह अपनी बेटी की उपस्थिति का विचार करके स्वयं को संभाल नहीं लेते।

बाबा की आंखें छलक आईं। अपने मन में चौधरी कृपाल सिंह के लिए आए गलत विचारों के कारण वह लज्जित हुआ। उसका मन चाहा वह इस देवता के चरण छू ले। एक राजा विजयभान सिंह है, जिसने आज तक किसी जवान लड़की पर अच्छी दृष्टि डाली ही नहीं और दूसरे यह जागीरदार हैं, जो राधा को अपनी बेटी के समान सम्मान दे रहे हैं। वह इसका पीछा कर रहे हैं और यह इन्हें शरण दे रहे हैं। उसने राधा को देखा, फिर रुक्मिणी को।

 ‘राधा मेरी बहन के समान रहेगी।’ रुक्मिणी ने कहा।

 बाबा और राधा ने संतोष की गहरी श्वांस ली।

 कृपाल सिंह और रुक्मिणी तथा उनके भाइयों ने भी अंत तक राधा तथा बाबा के आगे यह भेद नहीं खोला कि वे भी रामगढ़ से ही आ रहे हैं। विजयभान सिंह ने रुक्मिणी को ठुकरा दिया है, इस वंश का अपमान किया है, इत्यादि-इत्यादि। ऐसा करने से उनके सारे इरादों पर पानी फिर जाता। विजयभान सिंह से उन्हें किसी भी अवस्था में बदला अवश्य लेना था‒ इस वंश के लिए यह एक चुनौती बन चुकी थी।

सुबह का समय था। एक काफिला कृष्णानगर से कुछ दूर जाकर ठहरा। छह घोड़ों की बग्गी…टमटम… सारे-के-सारे घोड़े सफ़ेद थे, जिनका रंग धूप में दूध के समान चमक रहा था। बग्गी को फूलों द्वारा सजाकर रास्ते में हर पल इन पर पानी छिड़का जा रहा था ताकि कृष्णानगर पहुंचते-पहुंचते ये मुरझा न जाएं…या इनकी मुस्कान में कमी न आ जाए। कुछेक घुड़सवार शाही वर्दी में सुसज्जित…बग्गी के आगे-पीछे खड़े थे। ऐसा लगता था मानो यह शाही काफिला किसी राजकुमारी को लेने के लिए वहां पहुंचा है। राजा विजयभान सिंह ने अपनी वापसी के शानदार स्वागत का प्रबंध भी राजमहल के कार्यकर्ताओं को आज्ञा देकर पूरा कर दिया था।

‘तुम लोग यहीं प्रतीक्षा करो…।’ दूर तक दृष्टि दौड़ाने के बाद राजा विजयभान सिंह ने अपने काफिले को आज्ञा दी। फिर प्रताप सिंह की ओर मुड़े, ‘तुम मेरे साथ आओ।’

घोड़ों को ऐड़ लगाकर वे लोग आगे बढ़े। एक टीले पर चढ़कर उन्होंने कुछ दूर तक दृष्टि डाली…छोटा-सा गांव कल के समान आज भी गंवार तरीके से व्यस्त था।

‘कल वह मुझे यहीं मिली थी।’ नीचे एक पगडंडी पर निगाह करते हुए राजा विजयभान सिंह ने बहुत भावुक होकर कहा‒ ‘कल इसी जगह मैंने उसके सुंदर हाथों को अपने हाथों में थामा था। उससे अपने दिल का भेद कहा था तो वह तड़प उठी थी, मेरी तड़प देखकर उसकी आंखों में आंसू छलक आए थे, वे आंसू जो मेरी आंखों में आकर मोती बन गए थे। मैंने उन मोतियों को संभालकर अपने दिल में बसा लिया है।’

प्रताप सिंह ने राजा विजयभान सिंह की बात सुनी तो दिल भर आया। अब देर ही कितनी थी राधा को पाने में, उसने पूछा ‒ ‘हमारी होने वाली महारानी कहां मिलेगी महाराज?’

‘अभी हम पता लगाते हैं’ उन्होंने कहा और टीले से उतरकर गांव की ओर बढ़ गए, ‘वह यहीं कहीं रहती है।’

प्रताप सिंह उनके पीछे-पीछे हो लिया। उसके मालिक को अपने प्यार पर कितना अधिक विश्वास था।

दोनों घोड़े पर सवार बस्ती में पहुंचे तो यहां हलचल मच गई। छोटे-छोटे बच्चे पीछे हो लिए। औरतें अपनी-अपनी खिड़कियों से झांकने लगीं। पुरुष बाहर आकर खड़े हो गए। उनके बारे में कुछ न जानते हुए भी उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर वे झुक-झुककर सलाम करने लगे।

एक स्थान पर पहुंचकर राजा विजयभान सिंह ने अपने घोड़े की लगाम खींची तो अपने घोड़े पर से प्रताप सिंह नीचे उतर गया। एक बूढ़ा आदमी खड़ा बहुत गौर से इन्हें देख रहा था। वह उसी के पास पहुंचा।

‘बाबा…यहां कोई राधा नाम की लड़की रहती है?’ उसने पूछा।

‘राधा?’

‘हां!’ बीच में अपने घोड़े पर बैठे-बैठे राजा विजयभान सिंह ने कहा। ‘जो बाबा हरिदयाल की पोती है। दोनों अभी कुछ ही दिन पहले रामगढ़ से आकर यहां बसे हैं।’

‘कहीं आप उस आदमी का वर्णन तो नहीं कर रहे हैं, जो मूर्तियां बनाता है!’

‘हां-हां बाबा! वही…बिलकुल वही।’ लगभग दोनों ने ही एक साथ उत्तर दिया।

‘वे लोग यहां से चले गए।’

‘‘चले गए! कहां…?’ प्रताप सिंह ने चौंककर पूछा।

राजा विजयभान सिंह के दिल पर बिजली गिर पड़ी। वह झट घोड़े से नीचे कूद पड़े।

‘कहां चले गए?’ उन्होंने पूछा।

‘कुछ पता नहीं। अपने जाने की उन्होंने किसी को ख़बर नहीं दी।’

‘लेकिन…कल दिन तक तो राधा यहीं पर थी!’

‘हां…और कल रात में ही उन्होंने चुपके से गांव छोड़ दिया। इस बात का पता हमें कल रात लगभग नौ बजे चला, जब मेरी पत्नी उन दोनों के लिए रोटी लेकर गई थी।’

‘रोटी?’

‘हां! कई दिनों से उन्होंने कुछ नहीं खाया था। हम उनकी मदद करना चाहते थे, परंतु उन्होंने कभी मुफ्त की वस्तु स्वीकार नहीं की। इसलिए मैंने उनसे भगवान कृष्ण की एक मूर्ति ख़रीद ली और फिर दिन में स्वयं ही खाना बनाकर उन्हें देने चला गया था। राधा को तो ज्वर था, फिर भी जाने क्यों वे यहां से चले गए?’ उस बूढ़े ने आश्चर्य प्रकट किया।……………….

आगे की कहानी कल पढ़ें, इसी जगह, इसी समय….

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