………… राजेश की आंखें भर आईं। उसने कुछ कहना चाहा, परंतु फिर ख़ामोश हो गया। राधा ठीक ही कहती है, जब मूर्तियां नहीं रहीं तो यहां उसके आने का तात्पर्य ही क्या? वह तो यहां मूर्तियां ही ख़रीदने आता था‒केवल मूर्तियां‒जिसके अंदर दिल भी होता है तो केवल पत्थर का। उसकी इच्छा हुई कि वह राधा को अपने बारे में सब कुछ बता दे, परंतु साहस नहीं कर सका। बात और भी मज़ाकपूर्ण बन सकती थी। राधा का दिल अभी इतना प्रभावित नहीं हुआ है, जो वह विजयभान सिंह को क्षमा कर दे। वह उससे अब भी घृणा करती है‒घृणा से कोसती है। ऐसा न हो कि इस राज़ के खुल जाने से राधा उससे और भी घृणा करने लगे, थोड़ी-सी भलाई, चंद सुविधाएं तथा रुपए देकर कोई अपने पापों की क्षमा थोड़े ही पा सकता है। राधा उसे इतनी आसानी से कभी क्षमा नहीं करेगी। राजा विजयभान सिंह ने तो इसकी आत्मा तक कुचलकर रख दी है।

 सहसा अंदर कमल के रोने का स्वर गूंजा। शायद वह सो रहा था कि जाग गया। उसका मन हुआ अंदर जाकर उसे गोद में उठा ले‒उसे चूमे, उसे प्यार करे। उसने अपने हाथ में लिए पैकेट को देखा, फिर राधा को। राधा उसके दिल की बात पर ध्यान दिए बिना ही अंदर चली गई और वह वहीं खड़ा रह गया, कुछ पल बाद कमल के रोने का स्वर रुक गया, परंतु राधा बाहर नहीं आई। उसने कुछ देर और उसकी प्रतीक्षा की, फिर निराश होकर उसने पैकेट वहीं बरामदे में आगे बढ़कर रख दिया और वापस पलटकर बाहर निकल गया। दरवाज़ा पार करते हुए उसने देखा, बनिए की दुकान पर अगणित औरतों और पुरुषों का जमघट था। उसे देखते ही उनकी आपस की खुसर-फुसर तुरंत ही बंद हो गई। बनिया तराजू उठाकर सामान तौलने लगा। अपना सब कुछ राधा के प्यार में लुटाने के पश्चात् भी राजेश के अंदर राजा विजयभान सिंह का स्वाभिमान कम नहीं हुआ था। वह बनिए की दुकान पर पहुंचा। बनिया ने उसकी उपस्थिति प्रतीत की तो हाथ से तराजू छूट गया। लोग अपने आप ही वहां से हटकर तितर-बितर हो गए और कुछेक दूर जाकर खड़े हो गए। राजेश ने बनिए को घूरकर देखा।

बनिए को पसीना आ गया, थर-थर कांपने लगा। राजेश ने अपने होंठ सख्त किए, मुट्ठियां भींचीं, परंतु कुछ सोचकर उसने ख़ामोशी धारण कर ली, अब ज़माना बदल चुका है। भारत स्वतंत्र है। अपनी गलती, अपनी कमी को देखे बिना ही हर आदमी दूसरे के बराबर अधिकार मांगने लगा है, अच्छा होगा यदि इस बनिए को सबक सिखाने के लिए वह कोई दूसरा रास्ता धारण करे। गर्दन झटककर वह मुड़ा और सड़क पर हो लिया। बहुत दूर जाकर उसने आभास किया, मोहल्ले के निवासी बहुत तिरस्कृत भाव से उसका उपहास उड़ा रहे हैं। वह दांत पीसकर रह गया। दिल में उनके प्रति क्रोध की आग थी तो राधा के बिछड़ने का गम भी। आंखें छलक पड़ना चाहती थीं, परंतु उसने अपने आपको बहुत कठिनाई के बाद संभाल लिया।

आगे की कहानी अगले पेज पर पढ़ें –   

‘प्रताप‒’ विजयभान सिंह कुर्सी पर धंसे हुए चांदी की अंगूठी को उंगली में गोल-गोल घुमाते हुए बोले‒‘राधा से मेरे मिलने का अवसर हमेशा के लिए समाप्त हो गया। अब वह राजेश की सूरत भी नहीं देखना चाहती। लगभग एक वर्ष से मैं बराबर राजेश बनकर उसकी समीपता प्राप्त करता रहा। इस दौरान मैं हमेशा ही इस अंगूठी को उतार देता था, यह अंगूठी तो केवल विजयभान सिंह की ही अमानत है, जब विजयभान सिंह बना तो तुरंत ही पहन ली। इस एक वर्ष में राधा के समीप रहकर मैंने उसके दिल को भलीभांति परखा है। विजयभान सिंह को वह कभी क्षमा नहीं करेगी‒कभी नहीं।’ विजयभान सिंह की आंखें छलक आईं। खड़े होकर उन्होंने एक आह भरी। प्रताप के समीप आए और उनके कंधे पर सिर रखकर सिसक पड़े।

 प्रताप सिंह की आंखें भी छलक आईं। उसने उन्हें समझाया‒किसी के प्यार की तपस्या कभी खाली नहीं जाती। जो पाप उन्होंने किया है, उससे कहीं अधिक वह प्रायश्चित भी कर चुके हैं, जुल्म का मूल्य भी दे चुके हैं। यह राधा की ज्यादती होगी, अगर अब वह हक़ीक़त जानने के बाद उन्हें क्षमा नहीं करेगी। वह बोला‒‘आपने अच्छा ही किया, जो उन्हें अपनी वास्तविकता नहीं बताई। खैर, निःस्वार्थ प्रेम कभी व्यर्थ नहीं जाता। भगवान आपकी परीक्षा ले रहा है। आपको कदापि निराश नहीं होना चाहिए।’

काफी देर बाद विजयभान सिंह रंगमहल में आकर बैठ गए, इस तहखाने के अंदर अगणित आत्माओं का ख़ून हुआ था। ऐसा प्रतीत होता था मानो वे आत्माएं इसी में कैद होकर रह गई हैं, उन ढेर सारी मूर्तियों में समा गई हैं, जिन्हें विजयभान सिंह ने बाबा हरिदयाल से ख़रीदा था। मूर्तियां बेजुबान थीं, मगर अपनी कहानियां दोहरा रही थीं। सभी मूर्तियों में गांव की लड़कियों का रूप था, जो उसकी जुल्म का प्रतीक मालूम पड़तीं। आंखें डबडबायी, होंठ सूजे, सिसकते, आह टपकाते, लटें बिखरी, शरीर अर्धनग्न, कपड़े फटे हुए। कोई हाथ जोड़कर अपने प्यार की दुहाई दे रही थी तो कोई घुटने टेककर इज्जत की भीख मांग रही थीं। बाबा हरिदयाल ने मानो किसी और का नहीं, उन्हीं का अर्थात् राजा विजयभान सिंह का ही जुल्म इनके द्वारा प्रकट किया था। एक किनारे प्रभु यीशु मसीह की भी एक मूर्ति थी, दूसरी भगवान श्रीकृष्ण की, तीसरी मूर्ति अधूरी थी, फिर भी इसके प्रतिबिम्ब में राधा का रूप स्पष्ट झलक रहा था। इस मूर्ति के चरणों में ही राधा के साधारण गहने थे। कानों के झुमके, गले का हार, करधनी, चूड़ियां, कड़े, अंगूठियां। इसमें से एक अंगूठी उनके बाएं हाथ की अंगुली में भी थी।  राधा।

एक ओर अक्वेरियम था‒बिलकुल खाली। राधा के जाने के बाद इसमें कभी किसी मछली को कैद नहीं किया गया।

आगे की कहानी अगले पेज पर पढ़ें –    

 फिर भी कमरा रंगमहल‒सुसज्जित था, ख़ूबसूरत था। मूर्तियां सजाकर रखी गई थीं, इस प्रकार कि इनके पीछे बड़े-बड़े दर्पणों में इनकी गिनती और बढ़ गई थी। विजयभान सिंह को इस बात की बड़ी आशा थी कि राधा उन्हें क्षमा कर देगी और जब वह उन्हें क्षमा कर देगी तो वह उसे रंगमहल में लाकर प्यार का यह ठोस प्रतीक दिखाएंगे। तब वह कितनी अधिक ख़ुश होगी, परंतु सपना पूरे होने में देर थी।

 काफी देर तक ख़ामोशी में सिसकते रहने के बाद वह उठे और सीढ़ियां चढ़कर ऊपर पहुंचे। दूसरी मंजिल पर सामने के दरवाजे में वह एक बड़ी कुर्सी में धंस गए। यहां बैठकर कभी उनके दादा गरीबों की फरियाद सुना करते थे। उनके पिता सूर्यभान सिंह भी वहीं बैठा करते थे। यहीं से वह सामने के वृक्ष से बंधे गरीब अपराधियों पर अपनी आज्ञानुसार कोड़े बरसाते भी देखा करते थे। जब सज़ा देकर उनका मन नहीं भरता था तो वह स्वयं वहां से उतरकर अपराधी के पास पहुंच जाते थे, अपने हाथों से कोड़े बरसाकर उन्हें एक विशेष ही संतोष मिलता था। इस जगह पर बैठकर गांव की दूर-दूर की सीमा दिखाई पड़ जाती थी। इस शाही कुर्सी ने वर्षों से अपनी पदवी का लाभ उठाकर गरीबों के साथ अन्याय किया है। वे यहीं बैठ गए। क्रमशः वह हर स्थान पर काफी देर बैठने के बाद थक जाते थे, परंतु यहां बैठते तो उनका मन करता कि अच्छा होगा यदि उनका दम इसी प्रकार बैठे-बैठे निकल जाए। यहां उन्हें तड़प-तड़पकर दम तोड़ते हुए गांव के लोग आसानी से देख सकेंगे। इस कुर्सी पर बैठकर राजाओं-महाराजाओं ने जिस प्रकार अपनी प्रजा को तड़प-तड़पकर दम तोड़ते हुए देखा है, उसी प्रकार यह प्रजा भी इन राजाओं-महाराजाओं की संतानों में से किसी एक को इसी कुर्सी पर तड़प-तड़पकर मरता हुआ देख ले तो अच्छा होगा।

 उन्होंने तय कर लिया, राधा के प्यार की ख़ातिर वह अपना सब कुछ पहले से भी अधिक लुटाते रहेंगे। राधा को पाने की आस तो अवश्य निर्बल पड़ रही थी, परंतु यह आस ज़रा भी कम नहीं हुई कि राधा उन्हें क्षमा कर देगी। मानव तो अपने सात जन्म के पापी तक को क्षमा कर देता है, फिर राधा तो सुंदरता के वेश में देवी लगती थी।

 कमल की आयु की मांग के अनुसार उन्होंने उन स्कूलों में फंड खोल दिए, जहां कहीं भी उसने प्रवेश लिया‒ऐसी प्रतियोगिताएं उन्होंने आरंभ कीं जिनमें उनके लड़के की रुचि थी‒और उनके लड़के ने अगणित इनाम बचपन से ही जीतने आरंभ कर दिए‒ख़ूब नाम कमाया‒स्कूलों से पढ़कर कॉलेज़ में आ गया, परंतु वह इस बात का अनुमान कभी नहीं लगा सका कि उसकी सफलता के पीछे किसी और का हाथ है। राधा अपने बेटे पर गर्व करती कि वह बहुत होनहार है। कॉलेज़ उस पर कृपालु है, प्रिंसिपल उसके बच्चे को बहुत मानते हैं। कमल बढ़ता गया‒सफलता-पर-सफलता पाता गया, उसका रंग दिन-प्रतिदिन अपने पिता के समान ही खिलता गया। राधा जब अपने लाड़ले को देखती तो एक पल के लिए खो जाती‒उसकी ख़ामोशी के पर्दे पर अपने आप ही उसकी आंखों में राजा विजयभान सिंह की उदास तस्वीर दौड़ जाती, घनी पलकों के बीच छाई वह उदासी, जो उसने अंतिम बार उनकी आंखों में देखी थी‒जब कृष्णानगर में वह उनके आगे घुटने टेकते हुए प्यार की भीख मांग बैठे थे‒वह तड़प उठती, दिल की गहराई से उनसे घृणा करने के पश्चात् भी उनकी याद कभी-कभी उसके सामने तस्वीर का रूप लेकर आ ही जाती थी और तब एक पल के लिए उसकी शांति छिन जाती, वह खो जाती, अपने बेटे को गले से लगा लेती, अपने आपको तसल्ली देने के लिए उन्हें कोसती‒बद्दुआ देने लगती, दिल की गहराई से निकले शाप के पीछे कैसी भावनाएं थीं‒प्यार या घृणा? वह स्वयं समझने से वंचित थी, फिर भी राजा विजयभान सिंह को कोसते रहने की उसे आदत-सी पड़ गई थी या फिर जैसे वह स्वयं को झूठा संतोष देना चाहती थी, यदि वह ऐसा नहीं करती तो यूं महसूस करती मानो उसकी बहन, उसके पिता, उसके बाबा और साथ ही गांव की उन तमाम लड़कियों की आत्माएं उसे धिक्कार रही हैं, उसका मज़ाक उड़ा रही हैं। विजयभान सिंह किसी भी सहानुभूति के योग्य नहीं है, उसका सर्वनाश होना ही चाहिए।

ये भी पढ़ें-

कांटों का उपहार – पार्ट 30

कांटों का उपहार – पार्ट 31

कांटों का उपहार –  पार्ट 32

कांटों का उपहार – पार्ट 33 

कांटों का उपहार – पार्ट 34

नोट- कांटों का उपहार के पिछले सभी पार्ट पढ़ने के लिए जाएं –

कांटों का उपहार – पार्ट 1