………..और जब सारे मेहमान चले गए, हॉल नौकरों से भी खाली हो गया तो वह एक बड़े दर्पण के सामने जाकर हाथ में जाम लिए खड़े हो गए, फिर उन्होंने एक ज़ोरदार ठहाका लगाया‒ हा-हा-हा-हा… हा-हा-हा-हा। उनका स्वर ऊंचा होकर राजमहल के कोने-कोने में गूंज गया। हा-हा-हा-हा… हा-हा-हा-हा।
‘क्या बात है महाराज? आज आप बहुत अधिक ख़ुश हैं।’ प्रताप सिंह ने अपना जाम खाली करने के बाद समीप आकर पूछा।
‘प्रताप…!’ वह अपनी प्रसन्नता पर काबू पाकर बोले‒‘आज मैं सचमुच बहुत ख़ुश हूं… बहुत अधिक। आज तुम जो भी वस्तु मांगोगे तुम्हें दी जाएगी।’
‘क्या मुझे आपकी इस ख़ुशी में सम्मिलित होने का अधिकार मिल सकता है?’
‘प्रताप…!’ प्रताप सिंह के इस उत्तर पर उनका दिल ख़ुशी से झूम उठा। पलटकर वह उसके समीप पहुंचे। उसके कंधे पर अपना बायां हाथ रखकर उन्होंने गंभीरता से कहा ‒‘यदि तुम इस ख़ुशी में सम्मिलित नहीं होगे, तो कौन होगा? तुम्हीं तो मेरे एकमात्र मित्र हो, मेरे भाई हो, जिस पर मुझे इतना विश्वास है। प्रताप मेरे इस विश्वास को कभी ठेस मत पहुंचाना।’
‘हमारे बाप-दादा ने इस शाही खानदान का नमक खाया है। आपकी सेवा में अपनी जान गंवाना भी हमारे लिए गर्व की बात होगी।’ प्रताप सिंह ने कहा।
‘खानदान की बात छोड़ो…।’ राजा विजयभान सिंह ने प्यार से कहा, ‘हमारे बाप-दादा क्या थे, यह कोई गर्व की बात नहीं। गर्व की बात यह होगी कि जो हम इस समय कर रहे हैं। हमारी बात से किसी को चोट तो नहीं पहुंचती? हमने कितनों की सहायता की? किस-किस के काम आए?
किसी एक का दिल भी जीता है या नहीं या केवल गरीबों की आह ही बटोरते जा रहे हैं?’ उन्होंने एक गहरी सांस ली। कुछ आगे बढ़े और सामने की खिड़की से बाहर के अंधकार में घूरते हुए बोले‒ ‘आज वह मिली थी…’
‘कौन…’ प्रताप सिंह चौंककर उनके समीप पहुंच गया।
‘राधा…!’ उन्होंने कहा‒‘आज उसकी आंखों की काली घटाओं से वर्षा की बूंदें मेरी आंख के सीप के अंदर गिरी। वह सब-की-सब मोती बन गईं। आज उसकी ख़ामोशी में मेरे प्रति निश्चय ही सहानुभूति थी। शायद उसने मुझे क्षमा कर दिया है। शायद वह मुझे स्वीकार कर लेगी।’…………
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……………. ‘क्या?’ प्रताप सिंह को विश्वास ही नहीं हुआ, ‘आज आप कृष्णानगर गए थे?’
‘हां, प्रताप…!’ उन्होंने एक ठंडी सास ली, ‘और कल सुबह मैं फिर उसके पास जाऊंगा। कल तुम भी मेरे साथ चलोगे। मुझे विश्वास है वह मुझे अपने जीवन का नया पथ अपनाने के लिए अवश्य एक अवसर देगी। उससे मेरी अवस्था देखी नहीं गई थी। कल सुबह उसे लेने के लिए हम पूरे काफिले के साथ निकलेंगे।
तुम लोग दूर खड़े होकर मेरे इशारे की प्रतीक्षा करना और फिर जब राधा मान जाएगी तो हम उसे बहुत शान के साथ इस महल में लेकर आएंगे। वह मेरी रानी होगी… और यहां के लोग हमारी प्रजा। फिर मैं उसके हाथों से कस्बे के एक-एक आदमी को इनाम और इकराम बटवाऊंगा। मंदिरों के समीप गरीबों के खाने के लिए पंडाल लगवा दूंगा। मैं…मैं अपना सब कुछ उसे सौंप दूंगा।’
‘वह लड़की वास्तव में बहुत भाग्यशाली है महाराज! जिसे आप इतना अधिक प्यार करते हैं।’
‘नहीं, प्रताप…! वह बोले‒‘सौभाग्यशाली वह नहीं, हम हैं। मेरे दिल में प्यार का सच्चा पौधा उगाकर उसने मुझे एक वास्तविक प्रसन्नता का परिचय दिया है। प्यार क्या वस्तु है‒ इसका आनंद क्या होता है, यह मैं सपने में भी नहीं जान सकता था। जिस मनुष्य को संसार में किसी भी वस्तु की कमी न हो, वह जो चाहे आसानी से प्राप्त कर ले, तो फिर उसके जीवन का महत्त्व ही क्या रह जाएगा। राधा ने मुझसे जितनी घृणा की, मेरे अंदर उसे पाने की इच्छा और भी बढ़ती चली गई। यदि मैं उसके आंसुओं के पीछे अपनी तपस्या का फल प्रतीत नहीं करता, यदि मैं देखता कि वह आज भी मुझसे घृणा कर रही है तो शायद…शायद मैं पागल हो जाता‒ दीवाना हो जाता। कल हम जाएंगे‒ उसे लेने, मुझे विश्वास है वह अब अवश्य मेरी बात मान लेगी।’
प्रताप सिंह ने राधा के भाग्य को मन-ही-मन सराहा। राजा विजयभान सिंह कुछ भी हों, परंतु हैं तो राजा ही, एक बड़े इलाके के एकमात्र मालिक, धन-दौलत, सुंदरता, स्वास्थ्य, क्या नहीं है उनके पास! ऐसे मनुष्य को पाकर राधा अपने आपको सौभाग्यशालिनी समझने लगेगी।
रात का सन्नाटा रेलगाड़ी के शोर से विरक्त था। कोयले का इंजन अपनी चीख़-पुकार के साथ अंधकार की छाती चीरता हुआ भागा जा रहा था। गाड़ी जंगल के बीच से गुज़र रही थी और तीसरे दर्ज़ें के कम्पार्टमेंट में एक बूढ़ा अपनी बेटी को समीप बैठाए बहुत ख़ुशी से जीवन के ताने-बाने से उलझ रहा था। बेटी को हल्का ज्वर था, इसलिए उसने उसके शरीर पर चादर डाल दी थी। कम्पार्टमेंट में जगह कम थी और यात्री अधिक, इसलिए अपनी बेटी को लिए वह नीचे ही एक कोने में दुबक गया था, दुबककर बैठने का एक कारण और था। उसने टिकट नहीं लिया था। पैसे ही नहीं थे, तो टिकट क्या लेता? सभी यात्री आड़े-तिरछे बैठकर ऊंघ रहे थे।………………
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