………… हर मंजिल पर एक चौड़ी बालकनी थी जहां बीच के कमरे के किनारों से फिर अगली मंजिल की सीढ़ियां चढ़ती थीं। राधा आगे बढ़ती ही गई बिना खटके। उनकी आहट पाकर हर मंजिल पर जाती सीढ़ियों के कोनों-कतरों में छिपे चमगादड़ या उल्लू फड़फड़ाकर सिर के ऊपर से निकल जाते थे परंतु राधा पर इसका प्रभाव ज़रा भी नहीं पड़ा। वह सबसे ऊंची मंजिल पर पहुंची। खुला हुआ आकाश, ठंडी-ठंडी हवाएं मुखड़े को छू गईं, सूर्यास्त होने के बाद अब आकाश मानो गरीबों के रक्त में डूबा हुआ था। राधा ने दूर-दूर तक निगाह डाली, उसी जगह खड़े होकर जहां कभी जीवन में पहली बार उसने रामगढ़ का पूरा नक्शा अपनी आंखों से देखा था।

 आज सब कुछ कितना बदल चुका है‒सब कुछ ही, कुछ भी तो नहीं बचा। केवल एक याद ही हर वस्तु की बाकी है। सामने का वृक्ष सूख चला है, उसकी बिना पत्तियों की टहनी पर कौवे स्पष्ट दिखाई पड़ रहे थे। आगे जहां कैम्प लगा था वहां नौकरों ने लकड़ियां जला रखी थीं। शायद खाना पका रहे हों। वह हवेली के पिछले भाग की ओर भी पलटी। ताड़ के लंबे-लंबे वृक्ष करीब हो गए। दूर तक कोई आबादी नहीं, कोई जीव-जन्तु नहीं, एक अबला की आहों का शिकार होकर सब कुछ तहस-नहस हो चुका था। उसने नीचे झांका। जिस तालाब के स्वस्थ तथा सुगंधित पानी को उसने कभी गरीबों का रक्त समझकर अपने नथुनों पर उंगुली रख देनी चाही थी आज वह गंदा और बदबूदार होने के पश्चात् भी सुगंधित तथा स्वच्छ प्रतीत हो रहा था। मानव का दिल भी विचित्र है। अपनी भावनाओं के आधार पर अच्छी-से-अच्छी वस्तु को बुरा तथा बुरी वस्तु को अच्छा समझ लेता है। गंदा तालाब अंधकार में मृत्यु का कुआं प्रतीत हो रहा था। अंदर कुछ पानी था। शायद पिछली वर्षा के कारण एकत्र हो गया हो। मेंढ़कों की टर-टर ने यहां का वातावरण और बरसाती बना दिया था। जब इसके अंदर कीड़े-मकौड़े करवट लेते तो सतह पर एक लहर उत्पन्न होकर चमक उठती और फिर अंधकार के गर्भ में डूब जाती।

 कमल ने इस पर टार्च का प्रकाश फेंका, परंतु यहां के वातावरण का भयानकपन ज़रा भी दूर नहीं हुआ। वहां कीड़े-मकौड़ों के लिए शायद कोई बिजली चमकी थी और चमककर ठहर गई थी, उस समय तक जब तक कि कमल वहां प्रकाश फेंकता रहा। राधा और कमल बिलकुल ही किनारे खड़े हुए थे, ईंट की रेलिंग के सहारे सहसा राधा तालाब का गंदापन देखने के लिए थोड़ा और झुकी कि तभी वहां से एक ईंट सरक गई। उड़ती हुई वह ईंट छपाक से तालाब में गिरी तो पिछले भाग में पशु खड़खड़ाकर इधर-उधर भागने लगे। कीड़े-मकोड़े का शोर बंद हो गया। कमल ने राधा की बांहें पकड़ लीं। ऐसा न हो कि पूरी रेलिंग ही गिर पड़े। वे कुछ पीछे हट गए तो नीचे एक गीदड़ बहुत ज़ोर से चीख़ा और इस चीख़ के साथ ही अचानक किसी ने बहुत ज़ोरदार ठहाका लगाया ‒ हा… हा… हा… हा… हा… हा… हा… हा… हा… हा… हा… हा।

 ठहाका हवेली के अंदर से आया था। खिड़कियों तथा दरवाज़ों की दरार से निकलकर बाहर गूंजा और राधा व कमल के कानों से टकराकर रामगढ़ के भयानक वातावरण में डूब गया। राधा कांपकर कमल की छाती से लग गई। कमल का दिल भी कांप उठा, परंतु उसने स्वयं को संभालकर इधर-उधर प्रकाश फेंका। फिर चाहा कि इस स्वर का पीछा करे कि राधा ने उसका हाथ थाम लिया।

 ‘नहीं बेटा!’ उसे मना करती हुई बोली, ‘इससे कोई लाभ नहीं होगा।’

 ‘मां!’ कमल ने आश्चर्य से देखा।

 ‘हां बेटे!’ राधा की आवाज़ भर्रा गई, ‘यह कोई जीवित पुरुष नहीं है। यह तो किसी की भटकती हुई आत्मा है।’

 ‘मां!’ कमल को अपनी मां के विश्वास पर दुःख भी हुआ और आश्चर्य भी। उसने कहा ‒ ‘इस ज़माने में भी तुम ऐसी बातें करती हो?’

 ‘बेटा!’ राधा की पलकें भीग गईं। वह अपना मुंह फेरकर बोली, ‘यह आवाज़ तो मेरे कानों का रस है। इसकी एक-एक कंपन को मैं भलीभांति पहचानती हूं। यह दर्द भरी चीख़, यह पुकार, मेरा दम क्यों नहीं निकल जाता, मैं मर क्यों नहीं गई। मेरी जबान क्यों नहीं जल गई जब मेरे होंठों ने इस हवेली को बददुआएं दी थीं?’ राधा तड़प उठी।

 ‘मां!’ कमल ने आश्चर्य से पूछा, ‘यह सब क्या पहेली है? आख़िर क्या बात है जो तुम इतना गंभीर हो। इस हवेली को बददुआ देने से तुम्हारा क्या संबंध? कहीं पिताजी की दोस्ती का लाभ उठाकर राजा विजयभान सिंह ने तुम्हारे साथ तो कोई अन्याय नहीं किया था?’

 ‘कमल!’ राधा ज़ोर से चीख़ी।

 ‘मुझे क्षमा करो मां!’ कमल ने लज्जित होकर कहा, ‘राजा विजयभान सिंह के जुल्म के बारे में कौन नहीं जानता, इसीलिए ऐसा कह दिया। तुम्हीं ने बताया था कि मेरे पिता राजा विजयभान सिंह के गहरे मित्र थे। फिर मेरे पैदा होते ही पिताजी के मर जाने के बाद तुम्हें बेसहारा पाकर एक राजा का हाथ झुक जाना कोई बड़ी बात नहीं होगी। यदि ऐसा नहीं था तो फिर इस हवेली को बददुआ क्यों दी?’

 ‘यह बात नहीं थी बेटा!’ राधा संभलकर बोली। ऐसा न हो कि बनी-बनाई बात बिगड़ जाए, उसकी सारी मेहनत पर पानी फिर जाए। उसने बहाना बनाया, ‘तेरे पिताजी स्वयं हवस के भूखे थे। यही कारण है कि एक अबला की आह उनकी छाती में बरछी बनकर घुसी और उनको सदा के लिए समाप्त कर दिया।’

 ‘मां!’

 ‘हां बेटा!’ राधा बोली, ‘और चूंकि मेरा सब कुछ इस हवेली में उजड़ा था इसलिए जाते-जाते मैंने अपने स्त्रीत्व से घबराकर शाप दे दिया था कि यह उजड़ जाए, बर्बाद हो जाए, मिट जाए।’ राधा ने हकीकत छिपाकर कमल को संतुष्ट कर दिया और साथ ही अपने दिल को भी। उसने दोनों अर्थों में पहेलियों द्वारा सत्य ही कहा था।

 कमल कुछ न बोला। सिर झुकाकर उसकी कमर थामी और सीढ़ियां उतरने लगा। फिर भी उतरते समय उसने सभी स्थान पर टार्च का प्रकाश फेंका। शायद कोई दिखाई पड़ जाए। मानव नहीं तो मानव की छाया हो, भूत-प्रेत पर उसके लिए विश्वास करने का प्रश्न ही नहीं उठता था फिर भी उसे कुछ नहीं मिला। यदि राधा नहीं होती तो वह हर जगह पर दौड़-दौड़कर इस स्वर का पीछा करता। कहीं तो कोई चिह्न अवश्य ही मिलता, परंतु इस समय ऐसा करके वह मां के मन को ठेस नहीं पहुंचाना चाहता था।

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फिर एक पल उसने सोचा, यदि मां के विश्वास अनुसार यह आवाज़ उसके पिता की ही है तो संभवतः यह एक आत्मा ही हो, उसके पिता तो कभी के स्वर्गवासी हो चुके हैं। संभव है यह उसके पिता का स्वर न होकर किसी और का ही स्वर हो। कोई पागल या दीवाना ही इधर-उधर भटक रहा होगा जिसके घर की सभी लड़कियां राजा विजयभान सिंह की वासना का शिकार बन गई होंगी। हां, शायद ऐसी ही बात होगी। मां को व्यर्थ ही इस आवाज़ पर उसके पिता का आभास हो रहा है। वह जीवित होते तो मां का साथ क्यों छोड़ते? मां तो दुखिया है और दुखी दिल सदा भावुक होता है। दुखी दिल सदा वही सोचेगा जिससे उसे नाममात्र भी शांति प्राप्त होने की आशा होगी।

 सीढ़ियां उतरते समय उसकी टार्च के प्रकाश में आए पक्षियों की आंखें इस प्रकार चमक उठती थीं मानो कोने-कतरों में बड़े-बड़े बिल्ले छिपे बैठे हों। कुछ देर का विराम पाकर बरामदे के पशु वापस आ गए थे। उनकी आहट पाते ही ये फिर भाग खड़े हुए।

 कैम्प की ओर वापस आते ही राधा ने एक बार फिर पलटकर हवेली को देखा‒उसकी उजड़ी हुई यादों की कब्र, मुहब्बत का मकबरा, प्यार का मज़ार!! उसकी आंखों से आंसुओं का सोता जारी हो गया।

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