रात के गहन अंधकार को चीरती हुई ट्रेन दौड़ी जा रही थी। मुसाफिर कंबल- चादर ओढ़े सो रहे थे। बहुत तेज हवाएं चल रही थी और इस ठंड से बचने के लिए मैंने भी अपने आप को पूरी तरह ढक रखा था। किसी का चेहरा साफ दिखाई नहीं दे रहा था। सभी कैसे पूरी तरह अपने को छुपाने की कोशिश कर रहे थे कि उन्हें सर्दी न लग सके।

पर एक चेहरा था जो बार-बार मेरी आंखों में आकर ठहर रहा था। वह चेहरा था मेरी मुंहबोली दीदी का। उन्हें याद करते मैं आज से 35 वर्ष पूर्व पहॅुंच गयी।
जब मैं विवाह के बाद अपनी ससुराल गयी थी तब पहली बार मैं उनसे मिली थी। वह मेरे पति के साथ बैंक में काम करती भी और घर पहंचने पर उन्होंने बहुत ही अपनेपन से मेरा दिल खोलकर स्वागत किया था। उन्हें देखते ही मुझे अपनी बड़ी दीदी की याद आ गयी थी अतः मैंने भी उन्हें अपनी बड़ी बहन सा सम्मान देते हुए दीदी कहा या और गले से लग गयी थी।

वह अक्सर हमारे यहां आती जाती थी। उनके आने से मुझे बहुत अच्छा लगता था जैसे कोई मेरे मायके से आ गया हो। वह बहुत हंसमुख स्वभाव की थी। हम लोग एक दूसरे की बहुत मदद करते थे। कुछ समय बाद ही मुझे उनसे पता चला कि वह अविवाहित हैं अपने माता-पिता की एकमात्र सन्तान होने के कारण उन्होंने शादी नहीं की। माता-पिता के प्रति उनका आदर एवं सम्मान देखकर मुझे बहुत अच्छा लगा। 

वह जब भी मेरे यहां होती तो मैं उनसे खूब बातें करते थी लेकिन कहीं ऐसा कुछ था जो मुझे उनसे सहमत नहीं होने देता। मुझे उनसे पता चला कि वह एक उच्च कुल, उच्च परिवार की बेटी हैं और वह जाति-पांति में बहुत विश्वास रखती हैं। तो मुझे कुछ अटपटा सा लगा था। एक इतनी पढ़ी लिखी होकर भी वह कैसे छुआछूत और उॅंचनीच में जा रही थी। ठीक उनके विपरीत मैं एक आर्यसमाजी परिवार में पढ़ी बड़ी लड़की थी।

मेरे पिताजी हमेशा ही मुझे अन्दर से छुआछूत एवं जाति पाति की बुराइयों और उनसे होने वाले प्रभावों के बारें में बताते रहते थे। ‘‘वह हम सभी बहन भाइयों को यही यहते कि हम सभी एक इंसान हैं कहीं कोई बड़ा और छोटा नहीं होता है इसलिये हमें हर किसी से मिलकर रहना चाहिये और जरूरत पड़ने पर सबको एक दूसरे की मदद करनी चाहिए। छुआछूत इंसान को इंसान से दूर करता है और लोगों में मतभेद पैदा करता है”।

पिता जी की बातें बचपन से ही हम लोगों के मन में भरी हुई थी और इधर मेरी मुंह बोली दीदी हमेशा कहती, हम उच्च कुलीन उच्चवर्ण हैं अतः हमारे परिवार की लड़की कोई दूसरी जगह नहीं ब्याही जाती। हम लोग अपने से छोटे घर में शादी करे पाप नहीं कर सकते। उनकी यह दकिनानुसी बातें मेरी समझ से परे थी। मैं सोचती थी इंसान पढ़-लिख कर बहुत आगे निकल चुका है लेकिन उनसे बातें करने के बाद मुझे लगता, हम कुछ मामलों में आज भी वही है जहां वर्षों पहले थे- उॅंच-नीच छुआ-छूत नही मानना, अब भी अपनी जगह है।

कुछ लोगों से मुझे पता चला कि इसी जाति बाद और ऊंचे कुल के कारण वह आज तक अविवाहित थी क्योंकि उनकी भावनाओं से मेल खाता घर परिवार ढूंढते -ढंढते कई वर्ष बीत गये। धीरे-धीरे उम्र बढ़ती गयी और देखते देखते वह उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच गईं कि अब लोग उनके रिश्ते की बात पर हंस देते थे। अब जब भी शादी की बात होती तो सबको लगता कहीं वह पागल तो नहीं हो गयी क्योंकि उनके साथ के लोग अब नानी दादी की पदवी पा चुके थे, पर वह आज भी कुंआरी थी।

समय धीरे-धीरे करके बहुत आगे निकल चुका था। मेरे दोनों बेटे विदेशों में थे और मेरे पति सेवानिवृत्त हो चुके थे। दीदी भी रिटायर हो गयी थी, उनके माता पिता अब इस दुनिया में नहीं थे। वह अब एकदम अकेली सी हो गयी थी। उनके कोई रिश्तेदार भी नहीं थे, जो थे, सब मुंह मोड़ चुके थे। मैंने उनके अकेलेपन को अक्सर उनकी आंखों में पढ़ा। वह अक्सर तन्हाइयों से घबरा जाती। कई परिचित परिवार वालों ने उनसे कहा कि वह किसी को गोद ले लें अथवा किसी समाजसेवी संस्था से जुड जाएं लेकिन उन्हें यह सब पसन्द नहीं आता। उन्हें हमेशा यही लगता कि वह आज भी जाति में सर्वश्रेष्ठ हैं। उन्हें छोटे लोगों की बीच में रहने से पाप लग सकता है, उनके पूर्वज उनसे रूठ सकते हैं।

अपने पति के रिटायर होने के कुछ समय बाद मैं अपने बच्चों के पास चली गयी और लगभग छह माह बाद दादी बनकर वापस आई। यहां आने पर मुझे पता चला कि दीदी बहुत बीमार हैं और कुछ परिचित लोगों की देखरेख में उन्हें इलाज के लिये लखनऊ ले गये हैं। मैं भी उन्हें देखने जा रही थी आंखों में वही दीदी थी जिन्हें मैंने अपनी शादी के बाद पहली बार देखा था। उनकी वह प्यारी सी छवि मेरी आंखों में बनी थी, पर दिल में उनका अकेलापन तन्हाइयां रूढ़िवादी विचार और ऐसे सरकार बसे थे, जिन्हें तोड़ना मुश्किल था और इन्हीं के कारण वह आज एक दम सबसे दूर और अकेली हो गयी है।

ट्रेन तेज रफ्तार में दौड़ती जा रही थी और मेरा मन यह सोच कर परेशान था। अगर दीदी इस सोच से हटकर किसी और परिवार में शादी कर लेती तो क्या आज वह इतनी तन्हा होती, उनका घर होता, बच्चे नाती पोते परिवार सब कुछ होता लेकिन शायद यह बड़े होने का अंहकार उन्हें किसी से मेल नहीं करा सका। आज उनके पास घर है पैसा है लेकिन अपना कोई नहीं है… अचानक ट्रेन के रुकते ही मेरी तन्द्रा भंग हो गयी और मैं लखनऊ स्टेशन पर उतर पड़ी… और चल पड़ी दीदी से मिलने।