एक रोज हमारी रांची वाली बुआ, बैशाली दीदी के लिए एक रिश्ता लेकर आई। लड़का खानदान सब बहुत अच्छा अच्छा था। कहने लगी, देखो भैया, ऐसा रिश्ता बार-बार नहीं मिलता। आप चाहो तो लड़के और उसके परिवार को अच्छे से देख-परख लो, तभी हाँ कहना, फिर बुआ कहने लगी, वो तो हमारी बैशाली भाग्य बहुत अच्छा है। वरना बैठे-बिठाये कहाँ किसी किसी को इतना अच्छा घर-वर मिल जाता है, बुआ के बहुत समझाने पर पापा मान गए और लड़के वालों से मिल भी आए। उन्हें भी घर-वर बहुत पसंद आया।
लेकिन दीदी, वह तो अपनी शादी की बात सुनते ही भड़क उठी, कहने लगी, नहीं पापा अभी मैं शादी नहीं करुंगी और आपको तो पता है न, मेरा सपना विमान परिचारिका बनने का है तो क्या मैं अपना सपना टुट जाने दूं।
एक लंबी सांस भरते हुए पापा बोले हुम्म…….मुझे पता है बेटा, इसलिए तो मैंने लड़के वालों से इस बारे में बात कर ली है। उन्हें कोई एतराज नहीं होगा तुम्हारी आगे की पढ़ाई से, तुम जो चाहो कर सकती हो, इस बार दीदी पापा की बातों को ठुकरा नहीं पाई, कुछ ही दिनों में सगाई जो गयी। और फिर शादी का दिन भी नजदीक आ गया। हम जोर-शोर से शादी की तैयारियों में जूट गए, गहने पड़े श्रृंगार का सामान सब कुछ दीदी की पसंद से खरीदा जा रहा था, हम काफी खुश थे खासकर माँ, वो तो न जाने कितनी बार दीदी की बलैया लेती रहती थी। पापा कहते, देखो मैं न कहता शा हमारी बेटी गलत नहीं हैं, तुम तो बेकार में ही इस पर संदेह करती रहती थी।
आखिर शादी वाला दिन भी आ ही गया। दुल्हन के रुप में दीदी इतनी प्यारी लग रही थी कि जो भी देखता ही रह जाता । जब दीदी थी ही इतनी सुंदर तो ! बारात दरवाजे पर खड़ी थी। लड़का भी दुल्हे के जोड़े में बहुत मनोहर लग रहा था। जयमाल की रस्में पूरी होने के कुछ देर बाद, जब मैं दीदी को लिवाने उनके कमरे में गयी तो देख कर मेरा कलेजा धक्क रह गया। दीदी अपने कमरे में नही थी, फूलों की माला नीचे जमीन पर बिखरी पड़ी थी। मेरा मन घोर आशंकाओं से घिर उठा ! हाँ, टेबल पर एक चिट्ठी भी पड़ी मिली।
लिखा था……….
माँ-पापा, मैं शादी नहीं कर सकती क्योंकि मैं किसी और से प्यार करती हुं। और उससे ही शादी करुंगी, मैं जा रही हुँ, ढुंढने की कोशिश बेकार जाएगी।
बैशाली
जानकर सब हतप्रभ रह गए! माँ तो दहाड़े मार-मार कर रोने लगी और बुआ कहने लगी, ‘अरे बाप रे! यह क्या कर दिया इस लड़की ने, बारात दरवाजे पर खड़ी है और दुल्हन भाग गयी! अब क्या जबाब दूंगी मैं लड़के वालों को? पापा को तो जैसे शॉक लग गया। कितना भरोसा था उन्हें दीदी पर, लेकिन उसे पापा की इज्जत और उनकी मान-मर्यादा का जरा भी ख्याल नहीं रहा। भागने से पहने, एक बार यह नहीं सोचा की जात-समाज के सामने कैसे पापा का सिर झुक जाएगा। लड़के वालों को, शादी में आए मेहमानों को अब क्या जबाब देगें यह सोच-सोच कर हमारे पसीने छुट रहे थे। शादी का मुर्हुत बिता जा रहा था। सो अलग, तभी, बुआ की सलाह पर दीदी की जगह मुझे मंडप पर बैठा दिया गया। क्या करती मैं, मां पापा की इज्जत की खातिर चुप ही रही, क्या होना था और कया हो रहा था। सोच सोच कर डर के मारे में मरी जा रही थी। कि जब लड़के वालों को सारी सच्चाई का पता चलेगा तब क्या होगा, लेकिन जब मुझे देख कर उन लोगों में कोई प्रतिक्रिया न दिखी तो मैं अचंभित रह गयी। नवीन जो मेरे जीजाजी बनने वाले थे। वो मेरे पति बन चुके थे। उन्होनें ही मुझे बताया कि बुआ ने पहले ही उनसब को सब कुछ बता दिया था। गुस्सा तो बहुत आया था। उन्हें, पर माँ-पापा की हालत देख और उनकी इज्जत के खातिर उन्हें भी यही सही लगा। दीदी की करतूतों को लेकर कभी भी मेरे ससुराल वालों ने मुझ पर कोई छिटाकशी नहीं की, बलि्क पूरे सम्मान के साथ मुझे बहू का दर्जा दिया।
दीदी को गए दो साल से ऊपर हो चुके थे, पर इन दो सालों में गलती से भी कभी पापा के जुबां पर दीदी का नाम नहीं आया। घृणा हो चुकी थी। उन्हें दीदी से, पर हाँ, माँ को मैंने कई बार दीदी के लिए रोते-कलपते देखा। अब माँ तो ऐसी ही होती है न। मेरी शादी के बाद, पहली बार उनके चेहरे पर तब हल्की मुस्कान दिखी जब उन्हें पता चला कि वो नाना बनने वाले हैं, प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए उन्होनें मुझे आर्शीवाद दिया। कहना तो बहुत कुछ चाह रहे थे। पर बोल नहीं पा रहे थे। चुंकी यह मेरा पहना बच्चा था, तो माँ चाहती थी। कि मैं उनके साथ ही रहूँ और इसके लिए ससुराल वालों ने भी अनुमति दे दी।
मेरा सातवां महीना चढ़ चुका था। डॉक्टर ने मुझे ज्यादा आराम करने की सलाह दे रखी थी। जनवरी का महीना था इसलिए कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। बरामदे में खुल कर धूप आने की वजह से माँ ने मेरे लिए वहीं चारपाई बिछा दी मैं चारपाई पर लेटी पत्रिका पढ़ रही थी। और माँ अंदर घर के कामों में व्यस्त थी। बीच-बीच में पूछ भी जाती कि मुझे कुछ चाहिए तो नहीं? कुछ देर बाद ही, मेरे कानों में एक मिरमिराती सी आवाज पड़ी, देखा तो एक औरत फटेहाल और गंदेसंदे कपड़ों में हमारे दरवाजे पर खड़ी थी। उसके गोद में एक बच्चा भी था। उस औरत को देख कर लग रहा था। जैसे उसने कितने दिनों से कुछ खाया पिया न हो। शरीर तो जैसे जर-जर हो चुका था। उसका, लग रहा था। जैसे अभी गिर पड़ेगी और सच में थकथका कर वो वहीं दरवाजे के पास ही नीचे जमीन पर बैठ गयी। और माँ …माँ करने लगी। उस मासूम बच्चे पर मुझे बहुत दया आ रही थी। जो कड़कती ठंड में अपनी माँ के पतले से आँचल में दुबका हुआ था। मैंने माँ को आवाज लगा कर कहा कि इस औरत को कुछ खाना और कपड़ा लाकर दे दे और फिर मैं अपनी पत्रिका पढ़ने में लग गयी, पर मुझे लग रहा था। कि वो औरत एक-टक मुझे ही निहारे जा रही थी। माँ ने अंदर से खाना और कुछ पुराने कपड़े लाकर उसे दे दिया और जैसे ही पलटी।
“माँ …….वह औरत बोली।
माँ ने जरा गुस्से आ रहा था। वहाँ से उठ कर मैं अंदर जाने लगी और मन ही मन बुदबुदाई हुम्म…….इन्हें जितना भी दे दी, मन नहीं भरता है, जब भीख मांग कर ही खाना होती है। तो फिर बच्चे क्यूं पैदा करते हैं ये लोग।?
पर वो तो फिर ‘माँ‘ माँ कहने लगी और जब इस बार माँ ने पलट कर देखा तो वो अप्रत्याशित सी उसे देखती रह गयी। बैशाली ! तू….तुम?
मैं जो घर के अंदर जा ही रही थी माँ के मुंह के मुंह से दीदी का नाम सुनकर वही ठिठक कर रुक गयी! मुझे अपनी ही आँखों पर भरोसा नहीं हो रहा था। फिर से मैंने उस औरत को बड़े गौर से देखा, हाँ माँ, यह तो बैशाली दीदी ही है, मैंने कहा, माँ के आँखों से आँसू फुट-फुट कर झरने लगे । उन्होंने दीदी को गले से लगा लिया। दीदी इस स्थिति में!
आखिर हुआ क्या होगा इनके साथ? कई सवाल मेरे मन में उठने लगे और जिसका जवाब सिर्फ दीदी के पास था।
दीदी को देखते ही, लगा पापा को क्या गया ! चिल्लाते हुए बोले कौन है यह भिखमंगी और इसे घर के अंदर क्यूं ले आई हो?
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