सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था कि एक सुबह खबर आयी कि दीदी का एक्सीडेंट हो गया। मैं क्षणांश के लिए स्तब्ध रह गयी। लगा कि काश मेरे पास पंख होते तो उड़कर दिल्ली से जौनपुर चली जाती। मैंने यह खबर अपने पति सुधाशुं को सुनाई। वे उनींदी आंखों से बोले, बेकार परेशान हो रही हो। सब ठीक हो जाएगा।” उन्होंने करवट बदलकर चेहरा दूसरी तरफ कर लिया। पर न जाने क्यों मेरी बेचैनी थमने का नाम नहीं ले रही थी। पता नहीं दीदी कैसी होगी? उनके पास कौन कौन होगा? एक्सीडेंट में कहीं उनका कोई अंग भंग हो गया तो? सोचकर ही मैं सिहर गयी।

पैंतालीस वयसी दीदी अविवाहित थी। शादी न करने का उनका फैंसला अपना नहीं था। वे तो चाहती थी कि उनका घर बस जाए। पर क्या पुरूषोचित समाज से लड़ना आसान था? जहां मां रिश्ते के लिए जाती वहीं पापा के बारे में पूछा जाता। मां के पास इसका समुचित जवाब नहीं होता। क्या जवाब दे कि पिता ने हम सबको मंझधार में छोड़कर दूसरा घर बसा लिया। कोई पापा में खोट नहीं देखता। उन्हें तो बस मां में ही खोट नजर आता। मां तेजतर्रार होगी या फिर बदचलन। और न जाने क्या क्या पीठ पीछे सुनने को मिलता।

मां हताश घर आकर सुबकने लगती। उन्होंने कभी अपनी पीड़ा हमारे सामने नहीं जाहिर होने दी। उल्टे हम सबका हौंसला बुलंद करती। पापा थोड़ा बहुत रुपया शुरू में भेजते थे, मगर बाद में वह भी देना बंद कर दिया। तब मां ने छोटा मोटा काम करना शुरू दिया। सीमित आमदनी में बड़ी मुश्किल से हम सबने पढ़ाई लिखाई की। मैंने बीए करके एक कारखाने में नौकरी कर ली। वही दीदी एक प्राईवेट स्कूल में टीचर हो गयी। हम दोनों बहनों की दिली इच्छा थी कि हमारा छोटा भाई पप्पू पढ़ लिख कर अच्छे ओहदे पर जाए। इसलिए उसे कभी भी अभाव महसूस होने नहीं दिया।

हमारे लिए पापा एक पहेली थे। मां ने उनके बारे में हमें कुछ नहीं बताया। बस यही कहती नौकरी करने गये हैं, आ जाएंगे। कब आयेगें के सवाल पर वे टाल जाती। मैं जब थोड़ी बड़ी हुई और कुछ कुछ समझने तो मां से पूछना बंद कर दिया। क्योंकि मुझे लगता इससे मां को तकलीफ होती थी। तकलीफ होना स्वाभाविक था। मां चोरी छिपे साल में एकाध बार सीतापुर जाती और लड़ झगड़ कर घर खर्च के लिए रूपये ले आती थी। ऐसा दीदी ने बताया था। एकबार मां मुझे भी पापा के पास ले गयी तो मैंने देखा कि वे मां को रुपये देने में बड़ी हुज्जत करते। वे मां को अपमानित करने से भी बाज नहीं आते। वही उनकी दूसरी पत्नी हमें हिकारत भरी नजरों से देखती। जो मुझे अच्छा न लगा।
‘‘मम्मी मैं उनके यहां नहीं जाउॅंगी, ‘‘घर आकर मैं बोली। ‘‘क्यों क्या हुआ?”

‘‘मम्मी पापा वहां क्यों रहते है? वे दोनों लड़कियां कौन थी? जब मैं यह प्रश्न किया तब मेरी उम्र यही कोई दस साल की रही होगी। मां सुनकर क्षणांश ख्यालों में खो गयी। जब उबरी तो उनकी आंखों के दोनों कोर भींगे हुए थे। मुझे मां के आंसू अच्छे नहीं लगे। उन्हें पोंछते हुए बोली, ‘‘मम्मी,” मुझे माफ कर दे। अब मैं आपका दिल नहीं दुखाउंगी।” मां ने मुझे अंक में भर लिया। मैं तो संभली हुई थी। मगर दीदी की झुंझलाहट उम्र के साथ बढ़ती गयी। घर की आर्थिक स्थिति को लेकर वे अक्सर तनावग्रस्त रहती। किसी तरह बीए करके वे एक प्राईवेट स्कूल में अध्यापिका हो गयी। आगे पढ़ना चाहती थी मगर रूपया कहां से आये। मां की आमदनी अपर्याप्त थी।

वे चाहती थी कि दीदी जल्दी से जल्दी अपने पैरों पर खड़ी हो जाए ताकि घर चलाने में आसानी हो जाए। समय के साथ वे कुंठा ग्रस्त हो गयी। शादी के नाम पर पिता और दहेज दोनों चाहिए था। न मां के पास पति था न ही दहेज। एक जगह बात बनी। लड़का दुहाजू था। दीदी को पसंद नहीं था। पर मां ने मेरा वास्ता दिया तो वे बेमन से तैयार हो गयी। यह सोचकर कि लड़के की सरकारी नौकरी है दाल रोटी की कमी नही रहेगी। आखिर जिंदगी का इतना लंबा रास्ता इन्हीं आर्थिक अनिश्चिताओं में कटी। अंगूठी की रस्म हुई। मगर यहां भी भाग्य ने उन्हें धोखा दे दिया। ऐन वक्त लड़के वाले ने खबर भिजवाई कि चाहे जैसे भी हो

लड़की के पिता का था। वे लगभग टूट चुकी थी। दीदी का रूलाई रूकने का नाम नहीं ले रही थी। उन्हें अपना भविष्य अंधकारमय लगने लगा। दुहाजू भी तैयार नहीं तो समझा जा सकता है कि बिन बाप की बेटी का क्या हश्र करता है समाज। मां पापा के लिए अपशब्दों का प्रयोग करने लगी। मैंने रोका । मां बड़बड़ती रही, ”तीन बेटियों को पैदा करके भाग गया बेशर्म। एकबार भी नहीं सोचा इन सबका क्या होगा?” बड़ी मौसी सांत्वना दे रही थी। ‘‘दीदी, निराश मत हो जो होना था हो गया । अब आगे ही सोचो। हो सकता है भगवान कुछ बेहतर ही सोच रखा हो।”

‘‘वह क्या सोचेगा? सोचा होता तो यह दिन देखना न पड़ता।” वह नाक सुघड़ते हुए बोली। ‘‘मेरा भाग्य फूटा था सो सोची बच्चे अपने भाग्य से आगे बढ़ेगें। बाप की गलतियों की सजा बच्चे भुगत रहे हैं और वह बगैरत आदमी वहां गुलछर्रें उड़ा रहा है।”

मां शांत हुई तो मैंने मौसी से पूछा कि क्यों पापा ने हमें छोड़ दिया? बताइयें। आप लोग न सही मैं उन्हें सबके सामने लताड़ूंगी । सबके सामने जलील न किया तो मेरा भी नाम नहीं।, मैं आवेशित थी। आज तक मैंने कभी मां से पापा की दूसरी शादी की वजह नहीं जाननी चाहीं। न मां ने कभी जिक्र किया। मैं उनसे घृणा करती थी। आजन्म करूंगी। पिता को बेटी से सबसे ज्यादा लगाव होता है। जिस उम्र में बेटी को पिता के लाड़प्यार दुलार के तपिश की जरूरत होती है अपनी सरकारी नौकरी की सारी तनख्वाह उसपर लुटा रहे थे। ऐसे बेगैरत पिता का नाम भी लेना नहीं चाहती थी। मगर एक जिज्ञासा थी। क्या मां भी कर सकती थी। मां ही क्यों हर औरत रख सकती है। फिर क्यों उसे ही बदचलन कहा जाता है। क्या नैतिकता का ठेका औरतों ने ही ले रखा है । पति से वितृष्णा पत्नी को भी हो सकती है मगर जिस तरह से पापा ने भागकर कायरता का परिचय दिया वह मेरे लिए अक्षम्य था।

पहले मौसी ने नानूकर किया। मैंने जिद पकड़ ली तो वे खुलने लगी।

‘‘देख मम्मी से कुछ नहीं कहना।”

‘‘मैं कुछ नहीं कहूंगी।” मेरे आश्वासन पर वे कहने लगी।

‘‘तेरे पिता का काम के सिलसिले अक्सर साहब के पास जाना होता था। वही उनकी जानपहचान उनकी बेटी हुई।” अब मुझे कुछ समझने की जरूरत नहीं रही। पापा ने साहब की बेटी बरगलाया होगा। वर्ना एक शादीशुदा मर्द को स्वयं दूरी बनाकर रखनी चाहिए। मर्यादा भी कोई चीज होती है। ऐसा हर मर्द करने लगे तो हो चुका परिवार का स्थायित्व। वैवाहिक स्थायित्व परिवार को ताकतवर बनाते है। तलाक हो या परस्त्री संबंध, परिवार विघटन का कारण होता है। यही बिखराव कुंठा को जन्म देता है। कुंठित व्यक्ति अनैतिकता का सहारा लेता हैं। वह तो मां के गहरे संस्कारों थे जो तमाम झंझावतों के बीच हमें बिखरने नहीं दिया। वर्ना हम तीन बहनें थी। बड़े आराम से कोई भी बदनाम कर सकता था। हमें ही क्यों मां को भी नहीं छोड़ता। पापा के न रहने पर मां के संस्कारों का असर था कि हम बहनों को समाज सम्मान की दृष्टि से देखता था यही हमारे लिए फर्क का विषय था।

दीदी ने तब से कसम खा लिया कि अब वे न तो लड़के वालों के लिए नुमाइश बनेगी न ही शादी करेगी। मां ने सुना तो सन्न रही गयी। लाख समझाया मगर दीदी टस से मस नहीं हुई। मौसी के भी समझाने का उन पर असर नहीं हुआ। मां चिंता में डूब गयी। उन्हें इस बात का भय था कि अगर दीदी ने शादी नहीं की तो मेरा क्या होगा? बड़ी के रहते छोटी का ब्याह न तो तर्क संगत था न ही व्यावहारिक। दीदी का यह फैसला कोढ में खाज की तरह था। पिता के न होने का कलंक तो था ही उस दीदी के शादी न करके का फैसला पूरे परिवार के भविष्य पर ग्रहण लगने जैसा था। कौन मां चाहेगी कि उसकी तीन तीन बेटियां अविवाहित रहे। पापा न रहने का दंश तो झेल गयी अब क्या बेटियों के हाथ पीले न कराने का भी पीडा इस उम्र में झेले। वे रूआंसी हो गयी। कहने लगी, ‘‘मेरे न रहने के बाद इनका क्या होगा? घर बस जाता तो तसल्ली हो जाती। हर मां की तरह मैं भी चाहती हूं कि मेरी बेटियों का घर बस जाए। ‘‘सुनकर दीदी उबल पड़ी।

‘‘मां बिना पति के क्या घर नहीं होता? अगर नहीं तो आपको क्या मिला? मौसी को नागवार लगा। दीदी को डांटा ।

‘‘मौसी मैं जानती हूं कि आपको भी बुरा लगा होगा पर मां की ऐसी सोच हमें कमजोर करते हैं। शादी अकेलापन दूर करता है। सुख दुःख का साथी मिलता है न कि घर बसता है। अब मेरे भाग्य में किसी का साथ नहीं लिखा है तो मैं क्या कर सकती हूं। ‘‘कहते कहते दीदी का गला भर आया। वे मुँह छुपाकर सुबकने लगी। मैं दीदी की पीड़ा को गहराई से महसूस कर रही थी। इन सबके लिए पापा जिम्मेदार थे। अपनी संतानों को पीड़ा देने वाले पापा को मैं कभी माफ नहीं कर सकती। एक उसांस के साथ मेरा भी दिल भर आया।

न बात बनी न ही दीदी ने हठ छोड़ा। हो सकता है अगर कोई ढंग का लड़का मिलता तो दीदी शादी के लिए ना न करती। पर मिले तब न। किसको गरज पड़ी है जो हमारे साथ खड़ा होता। एक अकेली औरत क्या क्या देखे? घर चलाये कि बेटी के लिए लड़का ढूंढे। देखते-देखते मैं भी तीस की हो चली। आस तो मैंने भी छोड़ दी थी। मगर भाग्य में लिखा था सो मामा के साले के रिश्ते से मेरे लिए आफर आया। सहसा मुझे विश्वास नहीं हुआ।

पितृविहीन पुत्री के लिए भी समाज में ऐसे लोग है जो शादी के लिए प्रस्ताव भेज सकते हैं? अब तक तो हम अछूत थे। ऐसा कौन विद्रोही था जिसने सब जानते हुए भी मुझसे शादी की इच्छा जाहिर की। यह मेरे लिए जिज्ञासा का विषय था। पता चला कि लड़के ने किसी शादी में मुझे देखा था। मेरी खुशी का पारावार न रहा। मगर जैसी ही दीदी का ख्याल आया मन मुरझा गया। मां के चेहरे पर वर्षों बाद मैंने मुस्कराहट के भाव देखे। उनकी आंखों में खुशी की चमक थी। दीदी ने भले ही जाहिर न होने दिया हो पर क्या मैं नहीं समझती थी कि उनके ऊपर क्या गुजरेगी जब मेरी डोली उठेगी । चाहती तो मैं भी नहीं थी कि बिना दीदी के हाथ पीले किये ससुराल जाउॅं। पर मां के चेहरे पर वर्षों बाद आई खुशी को टूट कर बिखर देना नहीं चाहती थी।

करीब बीस साल बाद मां पापा के पास गयी। शुरू के दोचार साल ही उन्होंने कुछ रूपये मां को घर चलाने के लिए दिये। उसके बाद साफ कह दिया कि मुझसे कोई उम्मीद न रखें। मां के आत्मसम्मान का धक्का लगा। उन्हें लगा कि जब पति ही नहीं रहा तो क्यों उसके सामने कुछ रूपयों के लिए हाथ पसारा जाए। सो एक बार जो मुख मोड़ा तो सीधे बीस साल बाद ही उनके पास गईं। जाने की विवशता थी वर्ना हम सब कोई भी नहीं चाहता था कि वे पापा के सामने हाथ पसारे । जब उन्हें अपने बेटी का ध्यान नहीं तो वे भी हमारे पिता नहीं। मां कहने लगी ”, हमारे पास बचत के नाम पर फूटी कौड़ी भी नहीं। मेहमान आएंगे तो क्या खाली पेट भेज देगें? क्या तुझे सगुन के तौर पर दो साड़ी गहने भी नहीं दूंगी? क्या सोचेंगे तेरे ससुराल वाले?” मां का कथन वाजिब था। मैंने चुप्पी साध ली।

पापा बड़ी मुश्किल से दो लाख देने को तैयार हुए। रूपयों की कोई कमी नहीं थी उनके पास । अच्छी खासी सरकारी नौकरी थी। दूसरी पत्नी के लिए घर बनवाया। उनसे हुए दो संतानों को बेहतर शिक्षा दिलवा रहे थे। मगर हमारे लिए बहुत हुज्जत की। बहरहाल शादी सकुशल संपन्न हो गयीं।

आहिस्ता आहिस्ता वक्त गुजरता रहा। इस बीच मैं एक बच्चे की मां बनी। बच्चों की परवरिश में थोड़ा कम वक्त मिलता मम्मी का हालचाल लेने के लिए। पहले जहां रोज लेती अब हफ्तों गुजर जाते। एकदिन मेरे छोटे भाई पप्पू का फोन आया। सहर्ष बोला, ‘‘दीदी , अब पापा हमारे पास ही रहेंगे। ‘‘सुनकर मुझे कतई अच्छा नहीं लगा। क्यों रहेंगे? ऐसी क्या मजबूरी आ पडी पापा को जो अपनी जमी जमाई गृहस्थी को छोड़कर मां के पास रहेंगे? जरूर कोई बात है? या तो दूसरी पत्नी से कहा सुनी हुई होगी या फिर पापा को कोई स्वार्थ होगा। खुदगर्ज तो वे शुरू से ही थे। ऐसे पुरूष का क्या भरोसा?

मैंने दीदी को फोन लगाया। ‘‘दीदी, पप्पू ने जो बताया क्या वह सच है?” क्षणांश हिचक के बाद दीदी ने हां में जवाब दिया।

‘‘अचानक हृदय परिवर्तन की वजह? वह बताने लगी कि जब पापा रिटायर होने को हुए तो विभाग के कुछ लोग मां के पास आये कहने लगे कि आप खड़ी हो जाएं तो पेंशन  आपके नाम हो जाएगी। वर्ना उनकी दूसरी पत्नी हकदार बनकर पेंशन का लाभ उठायेगी। ” उन्हें हमारे परिवार से सहानुभूति थी। सो सोचविचार कर मां साहब से मिली। कानूनन पत्नी का नाम तो मां का ही दर्ज था सो दूसरी पत्नी को उभरने का मौका ही विभाग वालों ने नहीं दिया। इस तरह मां पापा के न रहने पर पेशन की आजीवन हकदार बन गयीं।” मैंने यहां कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई। मां का यह अपना फैसला था। मैंने आगे पूछा? ‘‘लेकिन पापा का यहां रहने की क्या तुक?”

वे कहने लगी, ‘‘ जब पेंशन वाली बात उनकी दूसरी पत्नी को पता चली तो दोनों में काफी झगड़ा हुआ। पापा ने लाख सफाई दी मगर वे उनकी एक न सुनी । उन्हें इस बात की कोफ्त थी कि पत्नी की जगह अब तक पापा ने उनका नाम क्यों नहीं चढ़ाया । ये तो पापा ही बता सकते थे कि ऐसा उन्होंने क्यों नहीं किया। हो सकता है कि कोई कानूनी अडचन रही होगी या फिर लापरवाही। विभाग में ऐसे भी लोग थे जिनको पापा की दूसरी शादी से चिढ़ थी। वर्ना वे मां को आगाह न करते। इस बीच पापा के पैरों में फोड़ा हुआ। लापरवाही के कारण उसमें मवाद भर गया। वे चलने फिरने में असमर्थ हो गए।”

‘निश्चय ही जब तक पापा दूसरी पत्नी की झोली भरते रहे वह खुश थी। अब जबकि रिटायर हो कर बोझ हो गये तो क्यों सेवा करें एक फालतू आदमी की। यही सब सोचकर उन्होंने उनकी उपेक्षा की होगी। ऐसे समय पापा को मां की याद आई, सो सेवा करवाने चले आये।” मैंने रही- सही कसर पूरी कर दी। दीदी ने कोई जवाब नहीं दिया। मेरा मन खिन्न हो गया। सोचने लगी ऐसे दोगले चरित्र के आदमी की सेवा से मां को क्या मिलेगा? मैं विचारप्रकिया से गुजरने लगी। ताउम्र अभाव, उपेक्षा, तिरस्कार में काटी। सामाजिक रूसवाईयों का सामना किया सो अलग। असुरक्षित भविष्य की तलवार हमेशा हूक उठती। इनका सबका कारण पापा थे। यह जानते हुए भी उनकी सेवा कर रही है। मां से पूछा तो कहने लगी ‘‘उन्होंने मुझे छोड़ा मैंने नहीं। आज तक उनके नाम का सिंदूर लगाती हूं। पति पत्नी के संबंध इतनी आसानी से नहीं टूटते। चाहे इसे एक औरत की मजबूरी समझो या फिर संस्कारों की गहरी जड़ें। आसानी से नहीं भूल पाती एक स्त्री अपने पति को। उन्होनें जो किया उसका उन्हें दण्ड मिलेगा। मैं क्यों अपना पति धर्म छोड़कर पाप का भागीदार बनूं।” गुस्से में मैंने फोन काट दिया।

‘‘पाप पुण्य का ठेका सिर्फ औरतों ने ले रखा है। ‘मैं मन ही मन बड़बड़ाई। पूरा दिन मूड खराब रहा। पापा के तो मजे ही मजे हैं। जब तक दूसरी पत्नी में आकर्षण था। बंधे रहे। अब उसने उन्हें बेकार अनुपयोगी समझकर ठकेल दिया। तो यहां चले आये। क्या पता ठीक होने के बाद फिर वही रहने चले जाए। मां कब समझेगी पापा को। मैं मन की मन कूढ़ी।

पेंशन देकर पापा ने मां को खरीद लिया। तनख्वाह देकर दूसरी पत्नी को। ब्रिकी अंततः स्त्री। जिसे सदियों से पुरूष अपने स्वार्थों के लिए इस्तेमाल करता रहा।

मैं अतीत से उबरी। मन किसी काम में न लगा। ध्यान दीदी पर ही अटका रहा। पता नहीं किस हाल में होगी? फोन ही सहारा था। करीब आधा घंटा बाद मौसी का फोन आया। बड़ी मुश्किल से उनके मुख से शब्द फूटे। ‘‘सुनंदा, तेरी दीदी नहीं रही। ” मुझे काटो तो खून नहीं। क्षणांश स्तब्ध हो गयी सुनकर। जब चेतन में आयी तो पागलों की भांति विलखने लगी। मेरे पति बाथरूम में थे। भागकर मेरे पास आये। ‘‘क्या हुआ सुनंदा? तुम रो क्यों रही हो?

विलखने लगी। मेरे पति बाथरूम में थे। भागकर मेरे पास आये। ‘‘क्या हुआ सुनंदा? तुम रो क्यों रही हो?

‘‘दीदी नहीं रही।” मेरे पति ने किसी तरह मुझे संभाला। अपने बास को फोन कर तत्काल छुट्टी ली। गाड़ी का रिजरवेशन इंटरनेट से किया। पूरे रास्ते दीदी के साथ गुजारे पल मेरे जेहन में चलचित्र की भांति तैरने लगे। विश्वास नहीं हो रहा था कि अब दीदी से कभी भी नहीं मिल पाउंगी। उम्र के साथ जाती तो थोड़ी तसल्ली होती। मगर यूं अकाल मृत्यु के साथ जाना मुझे अंदर तक झकझोर दिया। मेरी शादी का सारा इंतजाम उन्होंने ही किया। मुझे क्या बिदा किया अपनी सारी ख्वाहिशों को भी हमेशा के लिए बिदा कर दिया। वे एक जिंदा लाश थी। न उमंग न ही उल्लास था उनके जीवन में । बस जीना है सो जीये जा रही थी। एक निरूद्देश जीवन। बिन पतवार की नाव की तरह। जीवन का मोह सभी को होता है। मगर इसके साथ एक उद्देश्य हो तब। काश! दीदी का भी अपना घर परिवार होता। निश्चय ही दीदी अपने प्रति लापरवाह हो गयी थी वर्ना यू कोई ट्रक वाला धक्का थोड़े ही देता?

ट्रक जैसे ही जौनपुर पहुंची मैंने भरसक प्रयास किया कि जल्द से जल्द घर पहुंच कर दीदी के अंतिम दर्शन कर लूं। पर यह मेरे नसीब में नहीं लिखा था। दीदी का अंतिम संस्कार हो चुका था। जानकर मेरे सब्र का बांध टूट गया। मैं बिलखते हुए बोली” मां, क्या मैं इतनी गैर हो चुकी थी कि आपने मेरे आने तक का इंतजार नहीं किया?

मां नाक सुड़कते हुए बोली, ‘‘तू उसे देख नहीं पाती इतना विकृत हो चुका था उसका शरीर।” मेरी छोटी बहन चंदा ने विस्तार से सारा वाकया सुनाया। कैसे ट्रक वाले ने पहले उनका धक्का दिया उसके बाद उनके शरीर को कुचलते हुए भाग निकला। सुनकर मेरी रूह कांप गयी। इतनी दर्दनाक मौत थी दीदी की। भगवान किसी जालिम को भी ऐसी मौत न दे। न जाने किस पाप का दण्ड भुगत कर दीदी को इस दुनिया से रूखसत किया। अनायास मेरा ध्यान पापा की तरफ गया। जो मुखाग्नि देकर चौकी पर लेटे थे। उन्हें देखते ही मेरा पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। ज्यादा कहने सुनने को रह ही क्या गया था। कहा सुना उससे किया जाता है जिससे लगाव हो। इसलिए सिर्फ इतना ही कह पायी, ‘‘पापा जश्न मनाइये डोली न सही अर्थों को कंधा तो दे ही दिया। ” मेरे चेहरे पर व्यंग्य के भाव तिर गये।