कानपुर में मेरा बचपन बीता। सावन में पेड़ों पर झूले पड़ते ही मेरी मौज हो जाती थी क्योंकि एक झूले में 8-10 सहेलियां झूलती थी और मैं अपनी शरारतों के कारण सबसे आगे बैठती थी। सड़क पर राहगीर के अंगोछे खींच लेती और उनसे पैसे मांगती कि पहले जन्माष्टमी का चंदा दो तभी अंगोछा वापस होगा। दस पैसे में अंगोछा वापस करती। शाम को सहेलियों के साथ उन पैसों से गुड़ की सेवियां और लाई-चना खाकर ऐसा लगता था जैसे कि कुबेर का खजाना हाथ लग गया हो। घर वापस जाने पर मां की डांट पड़ती जिसका मुझ पर कोई असर नहीं होता था और अगले दिन फिर वही सिलसिला होता था। सावन आते ही पुरानी यादें ताजा हो जाती है और उन शरारतों को याद करके मैं मन ही मन बहुत खुश होती हूं। काश! वो बचपन दोबारा लौट सकता।
इन्द्रपुरी (नई दिल्ली)
