जब काफी देर के बाद मुझे होश आया तो मैंने देखा कि सब मेरा नाम लेकर रो रहे थे और पुलिस वाले उन्हें सांत्वना दे रहे थे। मैं घबरा गई और मैंने रोते-रोते कहा कि मैं यहां हूं। मुझे पेड़ पर देखकर पापा ने खुश होकर मुझे पेड़ से नीचे उतारा। मैं पापा के गले लगकर रोने लगी। आज भी जब मेरे बच्चे आंख-मिचौली खेलते हैं तो मुझे अपना बचपन याद आ जाता है।

2- जन्माष्टमी का चंदा
बचपन में मैं अपनी शरारतों की वजह से घर में बहुत डांट खाया करती थी। कानपुर में मेरा बचपन बीता। सावन में पेड़ों पर झूले पड़ते ही मेरी मौज हो जाती थी, क्योंकि एक झूले में 8-10 सहेलियां झूलती थीं और मैं अपनी शरारतों के कारण सबसे आगे बैठती थी। सड़क पर राहगीर के अंगोछे खींच लेती और उनसे पैसे मांगती कि पहले जन्माष्टमी का चंदा दो, तभी अंगोछा वापस होगा। दस पैसे लेकर ही अंगोछा वापस करती। शाम को सहेलियों के साथ उन पैसों से गुड़ की सेवियां और लाई-चना खाकर ऐसा लगता था जैसे कि कुबेर का खजाना हाथ लग गया हो। घर वापस जाने पर मां की डांट पड़ती, जिसका मुझ पर कोई असर नहीं होता था और अगले दिन फिर वही सिलसिला जारी रहता था। आज भी सावन आते ही पुरानी यादें ताजा हो जाती हैैं और उन शरारतों को याद करके मैं मन ही मन बहुत खुश होती हूं। काश! वह बचपन दोबारा लौट सकता।

3-आई ब्रो का मुंडन
बात है पुरानी, लेकिन मन की गहराई में उतर कर आज भी मुझे गुदगुदाती है। मेरी उम्र होगी आठ या नौ साल, बचपन में नानी-मामा के यहां अपरिहार्य कारणों से रही।
एक दिन मेरे मामाजी शेव करके ब्रश साफ करने बाथरूम में गए। रेजर में ब्लेड लगा हुआ था। जब मामाजी शेव कर रहे थे, तब मैं उन्हें बहुत गौर से देख रही थी। उनके जाने के बाद बस अपनी एक आई ब्रो पर ही रेजर चला दिया। एक आई ब्रो का मुंडन हो गया, जबकि एक सही-सलामत बची थी।
मेरी नानी-मामा, नाना सब मुझे देख कर हंसने लगे। माजरा समझने में नहीं आया। तब नानी जी ने दर्पण में मुझे चेहरा देखने को कहा। देखा तो मैं कार्टून बनी हुई थी। मजबूरी में दूसरी आई ब्रो का भी मुंडन करना पड़ा। सबके बीच में हंसी की पात्र तो बनी ही, साथ ही जीवनभर किसी की नकल न करने का सबक भी मिला।
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