वैज्ञानिकों के मुताबिक कृत्रिम मिठास (आर्टिफिशियल स्वीटनर्स) के कारण वजन बढऩे व मधुमेह यानी डायबिटीज होने का खतरा बढ़ जाता है। इसकी वजह है कि इनके मीठे स्वाद से शरीर के मेटाबॉलिज्म को अधिक कैलोरी लेेने का भ्रम हो जाता है।
मिठास से ऊर्जा होने का पता चलता है और उसकी तीव्रता बताती है कि शरीर में कितनी ऊर्जा उपलब्ध है।
यूएस की येल यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के मुताबिक, जब कोई पेय पदार्थ उसमें होने वाली कैलोरी की मात्रा से अधिक या कम मीठा होता है तो दिमाग तक न्यूट्रीशन की मात्रा पहुंचाने वाला सिग्नल और मेटाबॉलिक रिस्पॉन्स बाधित हो जाता है।
शोधकर्ताओं ने बताया कि अधिक मेटाबॉलिक रिस्पॉन्स के लिए ज्यादा कैलोरी वाले मीठे पेय पदार्थों की तुलना में कम कैलोरी वाले पेय पदार्थ फायदेमंद होते हैं। इससे कृत्रिम मिठास और मधुमेह के बीच का संबंध स्पष्ट होता है, जो कि पहले हुए शोध में साबित हो चुका है।
करेंट बायोलॉजी नामक जर्नल में एक स्टडी प्रकाशित हुई थी। उसके मुताबिक, मिठास यह निर्धारित करने में मदद करती है कि कैलोरी को कैसे मेटाबोलाइज कर मस्तिष्क तक उसका संकेत भेजा जाता है।
जब मिठास और कैलोरी का मिलान किया जाता है तो कैलोरी मेटाबोलाइज हो जाती है और यह प्रक्रिया मस्तिष्क के रिवॉर्ड सर्किट में पंजीकृत हो जाती है।
हालांकि, उनके बेमेल साबित हो जाने पर कैलोरी शरीर की मेटाबॉलिज्म की क्षमता को ट्रिगर करने में विफल हो जाती है। इसकी वजह से कैलोरी को उपभोग करने की बात मस्तिष्क के रिवॉर्ड सर्किट में पंजीकृत नहीं हो पाती है।
‘यह माना जाना गलत है कि ज्यादा कैलोरी से अधिक मेटाबॉलिज्म और ब्रेन रिस्पॉन्स मिलता है।’ येल यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर डाना स्मॉल ने बताया।
उन्होंने आगे बताया कि कैलोरी इस समीकरण का आधा हिस्सा मात्र ही हैं, बाकी का आधा हिस्सा मीठे स्वाद की धारणा से बनता है। उनके अनुसार, कई प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों में ऐसे बेमेल पाए जाते हैं, जैसे कि कम कैलोरी वाली मिठास से युक्त दही।
स्मॉल ने आगे कहा, ‘हमारे शरीर इस तौर पर विकसित हुए हैं कि हम प्रकृति में उपलब्ध ऊर्जा के स्त्रोतों का भलीभांति उपयोग कर सकें। खाने के आधुनिक वातावरण में ऊर्जा के ऐसे स्त्रोत मौजूद हैं, जिन्हें हमारे शरीर ने पहले कभी नहीं देखा है।’
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