दुनिया के हर एक क्षेत्र में आज की नारी ने अपनी उपस्थिति दज़र् करवाकर यह साबित कर दिया है कि वो अब पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने का साहस रखती है। परिवार हो या व्यवसाय, महिलाओं ने यह साबित कर दिया है कि वो कोई भी काम कर सकती हैं। उनमें आत्मनिर्भर बनने की सोच भी तेज़ी से पनपने लगी है। वो घर चलाने तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि वो अपने पंखो से नई उड़ान भरने को भी तैयार हैं। वर्तमान दौर में महिलाओं ने अपनी ताकत को पहचान कर न केवल अपने अधिकारों के लिए लड़ना सीखा है बल्कि वो दिन-प्रतिदिन खुद को नए-नए सांचो में ढाल रही हैं और नित नए सपनो को बुन और चुन रही हैं।
फैसला व सपना, दोनों हो अपना
शिक्षित होने के साथ ही महिलाओं की खुद की समझ में भी आमूलचुल परिवर्तन देखने को मिला है। महिलाओं ने खुद पर विश्वास करना सीखा है और घर की चहार-दीवारी से बाहर निकलकर दुनिया को जीतने का सपना सच करने कि दिशा में कदम आगे बढ़ाए हैं। यहां तक की महिलाएं अब ऐसे क्षेत्रों में भी दस्तक दे रही हैं जहां अभी तक सिर्फ पुरुषों का ही वर्चस्व माना जाता था, लेकिन सामाजिक परिवर्तनों के इस दौर में आज भी भावनात्मक स्तर पर महिलाओं को अब भी वो ऊंचाई छूना बाकी है, जहां से वो सशक्त और गंभीर भूमिका को सुनिश्चित कर सकें।
महिला सशक्तीकरण की मूल भावना असल में यही है की देश में महिलाओं के लिए ऐसी स्थिति बन सके जहां वो शक्तिशाली बन सके और अपने फैसले खुद ले सके। सामाजिक स्तर पर भी उन्हें सक्षम बनाना महिला सशक्तीकरण की नीति का आधार है। विकास की मुख्यधारा से जोड़ना भी इसका एक अंग हैं लेकिन संस्कृति और संस्कार की साड़ी में लिपटी भारतीय नारी भारतीय पुरुष प्रधान समाज में कुछ ज़्यादा कमज़ोर नज़र आती है। हालांकि यह अलग बात है कि विश्व के लगभग हर कोने में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की स्थिति सामाजिक स्तर पर कमज़ोर ही है।
सम्मान के साथ हक भी मिले
महिलाओं को सम्मान देने के लिए हर वर्ष 8 मार्च को विश्व भर में अंतरर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है, संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी महिलाओं के लिए दुनिया भर के मापदंड निर्धारित किये हैं। संसद में भी महिलाओं की संख्या की स्थिति में सुधार देखने में आने लगा है, सेना में भी महिलाओं को स्थाई कमीशन मिलने से अब सेना में महिलायें भी पुरुषों के समान पदों पर काम कर पायेंगी, लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के 74 वर्ष बाद भी भारत में 70 प्रतिशत महिलाएं अकुशल कार्यों में लगी है। जिस कारण उनको काम के बदले कम मजदूरी मिलती है।
पुरुषों की तुलना में महिलाएं औसतन हर दिन छ: घंटे ज्यादा काम करती हैं। चूल्हा-चौका, खाना बनाना, सफाई करना, बच्चों का पालन-पोषण करना तो महिलाओं के कुछ ऐसे कार्य हैं, जिनकी कहीं गणना ही नहीं होती है। दुनिया में काम के घंटों में 60 प्रतिशत से भी अधिक का योगदान महिलाएं करती हैं। जबकि उनका संपत्ति पर मात्र एक प्रतिशत ही मालिकाना हक है।
जहां एक तरफ हम महिला सशक्तीकरण और बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ की बात कर रहे हैं वहीं दूसरी तस्वीर भी दिखती है कि तमाम नियम और कानून के बावजूद, हिंसा और अत्याचार के आंकड़ों में कोई गिरावट नहीं आ रही। कामकाजी महिला से लेकर घरेलू महिलाओं पर होने वाले अत्याचार के लाखों मामले सालाना दज़र् किये जाते हैं, जबकि इससे कई गुणा अधिक मामले दबकर रह जाते हैं।
समाज में मिले बराबर का स्थान
एक ओर शहरों में रहने वाली महिलाएं शिक्षित, आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं, जो पुरुषों के अत्याचारों का मुकाबला करने में सक्षम हैं। वहीं दूसरी तरफ गांवों में रहने वाली महिलाओं को तो अपने अधिकारों का भी पूरा ज्ञान नहीं है। वे चुपचाप अत्याचारों को सहती रहती हैं और सामाजिक बंधनों में इस कदर जकड़ी हैं कि वहां से निकल नहीं सकती हैं। सशक्तीकरण के अधिकांश दावे कागज़ों तक ही सीमित रह गए हैं। अधिकतर महिलाएं घर परिवार में इतना उलझी हैं कि बाहर की दुनिया से उनका कोई सरोकार ही नहीं, लेकिन इस स्थिति को बदलने का बीड़ा महिलाओं को स्वयं उठाना होगा। जब तक महिलायें स्वयं अपने सामाजिक स्तर व आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं करेंगी तब तक समाज में उनका स्थान गौण ही रहेगा। समाज में अपने अधिकारों एवं सम्मान पाने के लिए अब महिलाओं को स्वयं आगे बढ़ना होगा। देश में जब तक महिलाओं का सामाजिक, वैचारिक एवं पारिवारिक तौर पर उत्थान नहीं होगा तब तक महिला सशक्तीकरण की बातें करना बेमानी होगा।
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