Swami Dayanand Saraswati: अध्यात्म और देश-प्रेम दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, क्योंकि बिना अध्यात्म के एक सुन्दर व्यक्तित्व की कल्पना करना असंभव है, बिना सुन्दर व्यक्तित्व के एक सुन्दर राष्ट्र की कल्पना करना असंभव है, जो स्वयं सुन्दर नहीं बना वह औरों को क्या सुन्दर बनाएगा, क्या मात्र कुछ कर्मकांड कर देने से धर्म का वास्तविक रूप प्रकट हो जाता है? वास्तव में जब तक मनुष्य धर्म की गहरी परतों को समझेगा नहीं तब तक मानव निर्माण और राष्ट्र निर्माण की मजबूत इमारत को खड़ा करना असंभव है। जब भी धर्म का विकृत स्वरूप प्रारंभ हुआ, बहुत सारे आध्यात्मिक चिन्तकों ने धर्म का परिमार्जित रूप हमें बताया, इन्हीं चिन्तकों और समाज सुधारकों में स्वामी दयानन्द सरस्वती का स्थान प्रमुख है।
1.आधुनिक भारत के नवनिर्माता
स्वामी जी का चिन्तन भी ऐसा ही था, स्वामी जी आधुनिक भारत के नवनिर्माता थे, स्वामी जी ने अपने उपदेशों में बहुदेववाद, मूर्तिपूजा अवतारवाद, पशुबलि, जंत्र, तंत्र, मंत्र, झूठे कर्मकांडों की आलोचना की, स्वामी जी का मुख्य उद्देश्य था बुराइयां दूर हों और अच्छाइयों का मार्ग प्रशस्त हो, इन्हीं विचारों को दृढ़ करने के लिए स्वामी जी ने 1875 ई. में आर्यसमाज की स्थापना की, इन्होंने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नामक पुस्तक की रचना भी की। स्वामी जी ने विदेशी शासन को ललकारा उन्होंने कहा
‘बुरे से बुरा देशी राज्य भी अच्छे से अच्छे विदेशी राज्य से बेहतर होता है।’ स्वामी जी स्वदेशी और देश भक्ति के प्रबल समर्थक थे, इन्होंने शुद्धि आन्दोलन चलाया जिसका प्रभाव ये पड़ा कि जिन
लोगों ने किसी कारणवश इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था, वे लोग पुन: हिन्दू हो गए।
2.वेदों में गहन आस्था
वेदों के प्रति इनकी गहन आस्था थी, ये कहते थे वेद ही सत्य-ज्ञान के स्रोत हैं अत: वेदों को सुनना-सुनाना प्रत्येक आर्य का परम धर्म एवं कर्तव्य होना चाहिए। सदा सत्य को ग्रहण करने और असत्य को त्यागने से बुराइयां नष्ट हो सकती हैं, सब काम धर्मानुसार अर्थात्स त्य और असत्य का विचार करके करने चाहिए। संसार का उपकार करना समाज का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए। अर्थात्समाज को मानव की शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति में सहयोग देना चाहिए, मनुष्य का कर्त्तव्य है सबसे प्रेमपूर्वक, धर्मानुसार और यथायोग्य व्यवहार करे, ‘सर्वे भिवन्तु सुखिन, और
‘सर्वे सन्तु निरामया:’ की भावना प्रत्येक व्यक्ति में होनी चाहिए।
3.समाज में फैली कुरीतियों से बचाया
आर्य समाज ने बाल-विवाह, छुआछुत और जाति-प्रथा का डटकर विरोध किया, विवाह के लिए लड़कों की आयु 25 वर्ष एवं लड़कियों की आयु 16 वर्ष निर्धारित की। सन् 1908 में आर्य समाज
ने दलितों के उद्धार के लिए आन्दोलन चलाया, आर्य समाज ने ही भारत के अनेक स्थानों पर दयानन्द ऐंग्लो वैदिक कॉलेजों की स्थापना की। इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वामी जी के अध्यात्म दर्शन का मुख्य उद्देश्य ही देश प्रेम और मानव मूल्यों के प्रति मनुष्य को जागरुक करना था।
4. ईश्वर के स्वरूप की व्याख्या

आर्यसमाज के माध्यम से स्वामी जी ने जन-चेतना को उत्साहित किया, स्वामी जी ने कहा ‘समस्त सत्य विद्या और पदार्थ आदि का मूल परमेश्वर है।’ इन सभी को विद्या के आधार पर जाना जाता है। इन्होंने ईश्वर के स्वरूप को बड़े ही सरल ढंग से समझाया, इनका मानना था ईश्वर अजन्मा, अमर, सबका रूपक, अजेय एवं अनन्त सृष्टि की उत्पत्ति का कारण है यही पालनकर्ता और विनाशकर्ता भी है।
5.आध्यात्म की यात्रा का खाका तैयार किया
स्वामी जी ने धर्म की सुप्त चेतना को सशक्त चेतना के रूप में लिया। इन्होने अध्यात्म की पर यात्रा कर देश-प्रेम का एक सशक्त खाका तैयार किया। स्वामी जी का जन्म सन् 1824 ई. में गुजरात के मौरवी नामक स्थान पर हुआ था, बचपन में स्वामी जी को ‘मूलशंकर’ के नाम से जाना जाता था। स्वामी जी के जीवन की एक घटना है। ये बचपन में महादेव जी के मन्दिर में गए और वहां इन्होंने देखा एक चुहिया प्रसाद में से एक लड्ïडू ले जा रही है, मूलशंकर ने सोचा कि ये कैसे भगवान हैं जो कुछ बोल नहीं रहे हैं, जो ईश्वर स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकता वह हमारी रक्षा क्या करेगा बस यहीं से मूलशंकर को मूर्तिपूजा से विरक्ति हो गई, इन्होंने वेदों का गहन अध्ययन किया और वैदिक धर्म को पुन: स्थापित करने का प्रयास किया, क्योंकि जिस समय स्वामी जी का आविर्भाव हुआ उस समय भारतवर्ष धार्मिक, सामाजिक व राजनीतिक रूप से कई रूपों में विभक्त हो चुका था, स्वामी जी साधु संन्यासियों के साथ भ्रमण करते भ्रमण करते-करते वह मथुरा पहुचें वहीं पर उनकी मुलाकात विरजानन्द से हुई, विरजानन्द से इन्होंने शुद्ध वैदिक धर्म के विषय में ज्ञान प्राप्त किया, इन्होंने वेदों का गहन अध्ययन किया, ईश्वरीय ज्ञान ग्रहण करते हुए स्वामी जी इस निष्कर्ष पर पहुचें कि हमें वेदों की तरफ पुन: लौटना होगा। हमारे ‘यजुवे र्द’ में कहा गया है।
‘आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतो दब्धासो अपरीतास उद्भिद:। देवा नो यथा सदमिद् वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवे-दिवे।’
यजुवे र्द 25/14
अर्थात् ‘कल्याणकारी विघ्नरहित, अप्रतिहत, शुभफलप्रद विचार हमें सभी ओर से प्राप्त हों, जिससे
आलस्यरहित और रक्षा करने वाले देवता प्रतिदिन सदा ही हमारी समृद्धि
करें ।’
स्वामी जी के प्रति अपना दृष्टिकोण व्यक्त करते हुए ‘महर्षि अरविन्द घोष’ ने कहा था-
वे परमात्मा की इस विचित्र सृष्टि के अद्वितीय योद्धा तथा मनुष्य और मानवीय संस्थाओं का सत्कार करने वाले अद्भुत शिल्पी थे।’
मनुष्य एक चिन्तनशील प्राणी है, अत: उसे चिन्तन करना चाहिए, और आर्य समाज से प्रेरणा लेनी चाहिए।
