kaayar by munshi premchand
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युवक का नाम केशव था, युवती का प्रेमा। दोनों एक ही कॉलेज के और एक ही क्लास के विद्यार्थी थे। केशव नये विचारों का युवक था, जात-पाँत के बन्धनों का विरोधी। प्रेमा पुराने संस्कारों की कायल थी, पुरानी मर्यादाओं और प्रथाओं में पूरा विश्वास रखनेवाली; लेकिन फिर भी दोनों में गाढ़ा प्रेम हो गया था और बात सारे कॉलेज में मशहूर थी। केशव ब्राह्मण होकर भी वैश्व-कन्या प्रेमा से विवाह करके अपना जीवन सार्थक करना चाहता था। उसे अपने माता-पिता की परवाह न थी। कुल-मर्यादा का विचार भी उसे स्वाँग-सा लगता था। उसके लिए सत्य कोई वस्तु थी तो प्रेमा, किन्तु प्रेमा के लिए माता-पिता और कुल-परिवार के आदेश के विरुद्ध एक कदम बढ़ाना भी असम्भव था।

संध्या का समय है। विक्टोरिया-पार्क के एक निर्जन स्थान में दोनों आमने-सामने हरियाली पर बैठे हुए हैं। सैर करनेवाले एक-एक करके विदा हो गये किन्तु ये दोनों अभी वहीं बैठे हुए हैं। उनमें एक ऐसा प्रसंग छिड़ा हुआ है, जो किसी तरह समाप्त नहीं होता है।

केशव ने झुंझलाकर कहा-इसका यह अर्थ है कि तुम्हें मेरी परवाह नहीं है।

प्रेमा ने शान्त करने की चेष्टा करके कहा-‘तुम मेरे साथ अन्याय कर रहे हो, केशव! लेकिन मैं इस विषय को माता-पिता के सामने कैसे छेडूँ, यह मेरी समझ में नहीं आता। वे लोग पुरानी रूढ़ियों के भक्त हैं। मेरी तरफ़ से कोई ऐसी बात सुनकर उनके मन में जो-जो शंकाएँ होंगी उनकी कल्पना कर सकते हो?’

केशव ने उग्र भाव से पूछा-‘तो तुम भी उन्हीं पुरानी रूढ़ियों की ग़ुलाम हो?’

प्रेमा ने अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मृदु स्नेह भरकर कहा-‘नहीं, मैं उनकी गुलाम नहीं हूँ, लेकिन माता-पिता की इच्छा मेरे लिए और सब चीज़ों से अधिक मान्य है।’

‘तुम्हारा व्यक्तित्व कुछ नहीं है?’

‘ऐसा ही समझ लो।’

‘मैं तो समझता था कि वे ढकोसले मूर्खों के लिए ही हैं; लेकिन अब मालूम हुआ कि तुम जैसी विदुषियाँ भी उनकी पूजा करती हैं। जब मैं तुम्हारे लिए संसार को छोड़ने पर तैयार हूँ, तो मैं तुमसे भी यही आशा करता हूँ।’

प्रेमा ने मन में सोचा, मेरा अपनी देह पर क्या अधिकार है। जिन माता-पिता ने अपने रक्त से मेरी सृष्टि की है और अपने स्नेह से मुझे पाला है, उनकी मरज़ी के खिलाफ़ कोई काम करने का मुझे कोई हक़ नहीं।

उसने दीनता के साथ केशव से कहा-क्या प्रेम स्त्री और पुरुष के रूप ही में रह सकता है, मैत्री के रूप में नहीं? मैं तो प्रेम को आत्मा का बन्धन समझती हूँ।

केशव ने कठोर भाव से कहा -‘इन दार्शनिक विचारों से तुम मुझे पागल कर दोगी, प्रेमा! बस, इतना ही समझ लो कि मैं निराश होकर जिंदा नहीं रह सकता। मैं प्रत्यक्षवादी हूँ और कल्पनाओं के संसार में अप्रत्यक्ष का आनंद उठाना मेरे लिए असम्भव है।’

यह कहकर, उसने प्रेमा का हाथ पकड़कर, अपनी ओर खींचने की चेष्टा की। प्रेमा ने झटके से हाथ छुड़ा लिया और बोली-नहीं केशव, मैं कह चुकी हूँ। कि मैं स्वतंत्र नहीं हूँ। तुम मुझसे वह चीज़ न माँगो, जिस पर मेरा कोई अधिकार नहीं है।

केशव को अगर प्रेमा ने कठोर शब्द कहे होते, तो भी उसे इतना दु:ख न हुआ होता। एक क्षण तक वह मन मारे बैठा रहा, फिर उठकर निराशा भरे स्वर में बोला-‘जैसी तुम्हारी इच्छा!’ और आहिस्ता-आहिस्ता कदम उठाता हुआ वहाँ से चला गया! प्रेमा अब भी वहीं बैठी आँसू बहाती रही।

रात को भोजन करके प्रेमा जब अपनी माँ के साथ लेटी, तो उसकी आँखों में नींद न थी। केशव ने उसे एक ऐसी बात कह दी थी, जो चंचल पानी में पड़ने वाली छाया की तरह उसके दिल पर छायी हुई थी। प्रतिक्षण उसका रूप बदलता था। वह उसे स्थिर न कर सकती थी। माता से इस विषय में कुछ कहे तो कैसे? लज्जा मुँह बंद कर देती थी। उसने सोचा, अगर केशव के साथ मेरा विवाह न हुआ, तो उस समय कर्तव्य क्या होगा! अगर केशव ने कुछ उद्दंडता कर डाली तो मेरे लिए संसार में फिर क्या रह जायेगा, लेकिन मेरा बस ही क्या है? इन भाँति-भाँति के विचारों में एक बात जो उसके मन में निश्चित हुई, वह यह थी कि केशव के सिवा वह और किसी से विवाह न करेगी।

उसकी माता ने पूछा-‘क्या तुझे अब तक नींद न आयी? मैंने तुझसे कितनी बार कहा कि थोड़ा-बहुत घर का काम-काज किया कर; लेकिन तुझे किताबों ही से फुरसत नहीं मिलती। चार दिन में तू पराये घर जायेगी, कौन जाने, कैसा घर मिले! अगर कुछ काम करने की आदत न रही, तो कैसे निबाह होगा?’

प्रेमा ने भोलेपन से कहा-‘मैं पराये घर जाऊँगी ही क्यों?’

माता ने मुस्कराकर कहा-‘लड़कियों के लिए यही तो सबसे बड़ी विपत्ति है, बेटी। माँ-बाप की गोद में पलकर ज्यों ही सयानी हुई, दूसरों की हो जाती हैं। अगर अच्छा प्राणी मिल गया, तो जीवन आराम से कट गया, नहीं रो-रोकर दिन काटने पड़ते हैं। सब कुछ भाग्य के अधीन है। अपनी बिरादरी में तो मुझे कोई घर नहीं भाता। कहीं लड़कियों का आदर नहीं लेकिन करना तो बिरादरी में ही पड़ेगा। न जाने, यह जात-पाँत का बंधन कब टूटेगा?’

प्रेमा डरते-डरते बोली-‘कहीं-कहीं तो बिरादरी के बाहर भी विवाह होने लगे हैं।’

उसने कहने को कह दिया; लेकिन उसका हृदय काँप रहा था कि माताजी कुछ भाँप न जायँ।

माता ने विस्मय के साथ पूछा-‘क्या हिन्दुओं में ऐसा हुआ है?’

फिर उसने आप-ही-आप उस प्रश्न का जवाब भी दिया-अगर दो-चार जगह ऐसा भी हो गया, तो उससे क्या होता है?

प्रेमा ने इसका कुछ जवाब न दिया। भय हुआ कि माता कहीं उसका आशय न समझ जायँ। उसका भविष्य एक अँधेरी खाई की तरह उसके सामने मुँह खोले खड़ा था, मानो उसे निगल जायेगा।

उसे न जाने कब नींद आ गयी।

प्रात:काल प्रेमा सोकर उठी, तो उसके मन में एक विचित्र साहस का उदय हो गया था। सभी महत्त्वपूर्ण फ़ैसले हम आकस्मिक रूप से कर लिया करते हैं, मानो कोई दैवी शक्ति हमें उनकी ओर खींच ले जाती है; वही हालत प्रेमा की थी। कल तक वह माता-पिता के निर्णय को मान्य समझती थी, जिसके सामने कोई पर्वत आ गया हो। वही मंद वायु प्रबल वेग से पर्वत के मस्तक पर चढ़ जाती है और उसे कुचलती हुई दूसरी तरफ़ जा पहुँचती है। प्रेमा मन में सोच रही थी-माना, यह देह माता-पिता की है, किंतु आत्मा को जो कुछ भुगतना पड़ेगा, वह इसी देह से तो भुगतना पड़ेगा। अब वह इस विषय में संकोच करना अनुचित ही नहीं, घातक समझ रही थी। अपने जीवन को क्यों एक झूठे सम्मान पर बलिदान करे? उसने सोचा, विवाह का आधार अगर प्रेम न हो, तो वह तो देह का विक्रय है। आत्मसमर्पण क्या बिना प्रेम के भी हो सकता है? इस कल्पना ही से कि न जाने किस अपरिचित युवक से उसका ब्याह हो जायेगा, उसका हृदय विद्रोह कर उठा।

वह अभी नाश्ता करके कुछ पढ़ने जा रही थी कि उसके पिता ने प्यार से पुकारा-मैं कल तुम्हारे प्रिंसिपल के पास गया था, वे तुम्हारी बड़ी तारीफ कर रहे थे।

प्रेमा ने सरल भाव से कहा-आप तो यों ही कहा करते हैं।

‘नहीं, सच।’

यह कहते हुए उन्होंने अपनी मेज़ की दराज़ खोली और मखमली चौखटों में जड़ी हुई एक तस्वीर निकालकर उसे दिखाते हुए बोले-यह लड़का आई. सी. एस. के इम्तहान में प्रथम आया है। इसका नाम तो तुमने सुना होगा?

बूढ़े पिता ने ऐसी भूमिका बाँधी थी कि प्रेमा उनका आशय समझ न सके; लेकिन प्रेमा भाँप गयी। उसका मन तीर की भाँति लक्ष्य पर जा पहुँचा। उसने बिना तस्वीर की ओर देखे ही कहा-नहीं, मैंने तो उसका नाम नहीं सुना।

पिता ने बनावटी आश्चर्य से कहा-क्या? तुमने उसका नाम ही नहीं सुना? आज के दैनिक-पत्र में उसका चित्र और जीवन वृत्तान्त छपा है।

प्रेमा ने रुखाई से जवाब दिया- ‘होगा; मगर मैं तो इस परीक्षा का कोई महत्त्व नहीं समझती। मैं तो समझती हूँ, जो लोग इस परीक्षा में बैठते हैं, वे परले सिरे के स्वार्थी होते है। आख़िर उनका उद्देश्य इसके सिवा और क्या होता है कि अपने ग़रीब, निर्धन, दलित भाइयों पर शासन करें और ख़ूब धन-संचय करें। यह तो जीवन का कोई ऊँचा उद्देश्य नहीं है।

इस आपत्ति में जलन थी, अन्याय था, निर्दयता थी। पिताजी ने समझा था, प्रेमा वह बखान सुनकर लट्टू हो जायेगी। यह ज़बान सुनकर तीखे स्वर में बोले-‘तू तो ऐसी बात कर रही है, जैसे तेरे लिए धन और अधिकार का कोई मूल्य ही नहीं।’

प्रेमा ने ढिठाई से कहा- ‘हाँ, मैं तो इसका मूल्य नहीं समझती; मैं तो आदमी में त्याग देखती हूँ। मैं ऐसे युवकों को जानती हूँ, जिन्हें यह पद ज़बर्दस्ती भी दिया जाय, तो भी स्वीकार न करेंगे।’

पिता ने उपहास के ढंग से कहा-यह तो आज मैंने नयी बात सुनीं। मैं तो देखता हूँ कि छोटी-छोटी नौकरियों के लिए लोग मारे-मारे फिरते हैं। मैं ज़रा उस लड़के की सूरत देखना चाहता हूँ, जिसमें इतना त्याग हो। मैं तो उसकी पूजा करूँगा।

शायद किसी दूसरे अवसर पर ये शब्द सुनकर प्रेमा लज्जा से सिर झुका लेती; पर इस समय की दशा उस सिपाही की-सी थी, जिसके पीछे गहरी खाई हो। आगे बढ़ने के सिवा उसके लिए और कोई मार्ग न था। अपने आवेश को संयम से दबाती हुई, आँखों में विद्रोह भरे वह अपने कमरे में गयी और केशव के कई चित्रों में से वह एक चित्र चुनकर लायी, जो उसकी निग़ाह में सबसे ख़राब था और पिता के सामने रख दिया। बूढ़े पिताजी ने चित्र को उपेक्षा के भाव से देखना चाहा, लेकिन पहली ही दृष्टि में उसने उन्हें आकर्षित कर लिया। ऊँचा क़द था और दुर्बल होने पर भी उसका गठन, स्वास्थ्य और संयम का परिचय दे रहा था। मुख पर प्रतिभा का तेज़ न था; पर विचारशीलता का कुछ ऐसा प्रतिबिम्ब था, जो उसके प्रति मन में विश्वास पैदा करता था।

उन्होंने इस चित्र को देखते हुए पूछा-यह किसका चित्र है?

प्रेमा ने संकोच से सिर झुकाकर कहा-यह मेरे ही क्लास में पढ़ते हैं।

‘अपनी ही बिरादरी का है?’

प्रेमा की मुखमुद्रा धूमिल हो गयी। इसी प्रश्न के उत्तर पर उसकी किस्मत का फ़ैसला हो जायेगा। उसके मन में पछतावा हुआ कि व्यर्थ में इस चित्र को यहाँ लायी। उसमें एक क्षण के लिए जो दृढ़ता आई थी, वह इस पैने प्रश्न के सामने कातर हो उठी। दबी हुई आवाज़ में बोली- ‘जी नहीं, वह ब्राह्मण हैं।’ और यह कहने के साथ ही वह क्षुब्ध होकर कमरे से बाहर निकल गयी; मानो यहाँ की वायु में उसका गला घुटा जा रहा हो और दीवार की आड़ में खड़ी होकर रोने लगी।

लालाजी को तो पहले ऐसा क्रोध आया कि प्रेमा को बुलाकर साफ़-साफ़ कह दे कि यह असम्भव हैं वे उसी ग़ुस्से में दरवाज़े तक आये; लेकिन प्रेमा को रोते देखकर नम्र हो गये। इस युवक के प्रति प्रेमा के मन में क्या भाव थे? यह उनसे छिपा न रहा। वे स्त्री-शिक्षा के पूरे समर्थक थे; लेकिन इसके साथ ही कुल मर्यादा की रक्षा भी करना चाहते थे। अपनी ही जाति के सुयोग्य वर के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर सकते थे, लेकिन उसे क्षेत्र के बाहर कुलीन-से-कुलीन और योग्य-से-योग्य वर की कल्पना भी उनके लिए असह्य थी। इससे बड़ा अपमान वे सोच ही नहीं सकते थे।

उन्होंने कठोर स्वर में कहा- आज से कॉलेज जाना बन्द कर दो। अगर शिक्षा कुल-मर्यादा को डुबाना ही सिखाती है, तो वह कु-शिक्षा है।

प्रेमा ने कातर कंठ से कहा-परीक्षा तो समीप आ गयी है।

लालाजी ने दृढ़ता से कहा-आने दो।

और फिर अपने कमरे में जाकर विचारों में डूब गये।