kaayar by munshi premchand
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छ: महीने गुज़र गये।

लालाजी ने घर में आकर पत्नी को एकांत में बुलाया और बोले-जहाँ तक मुझे मालूम हुआ है, केशव बहुत ही सुशील और प्रतिभाशाली युवक है। मैं तो समझता हूँ, प्रेमा इस शोक में घुल-घुलकर प्राण दे देगी। तुमने भी समझाया, मैंने भी समझाया, दूसरों ने भी समझाया; पर उस पर कोई असर ही नहीं होता। ऐसी दशा में हमारे लिए क्या उपाय है?

उनकी पत्नी ने चिंतित भाव से कहा-कर तो दोगे; लेकिन रहोगे कहाँ? न-जाने कहाँ से यह कुलच्छनी मेरी कोख में आयी?

लालाजी ने भँवें सिकोड़कर तिरस्कार के साथ कहा-यह तो हज़ार दफ़ा सुन चुका; लेकिन कुल-मर्यादा के नाम को कहाँ तक रोयें। चिड़िया का पर खोलकर यह आशा करना, कि तुम्हारे आँगन में ही फुदकती रहेगी, भ्रम है। मैंने इस प्रश्न पर ठंडे दिल से विचार किया है और इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि हमें इस आपद्धर्म को स्वीकार कर लेना ही चाहिए। कुल-मर्यादा के नाम पर मैं प्रेमी की हत्या नहीं कर सकता। दुनिया हँसती हो, हँसे; मगर वह ज़माना बहुत जल्द आनेवाला है, जब ये सभी बंधन टूट जायेंगे। आज भी सैकड़ों विवाह जात-पाँत के बंधनों को तोड़कर हो चुके हैं। अगर विवाह का उद्देश्य स्त्री और पुरुष का सुखमय जीवन है, तो हम प्रेमा की उपेक्षा नहीं कर सकते।

वृद्धा ने क्षुब्ध होकर कहा-जब तुम्हारी यही इच्छा है, तो मुझसे क्या पूछते हो? लेकिन मैं कहे देती हूँ कि मैं इस विवाह के नज़दीक न जाऊँगी, न कभी इस छोकरी का मुँह देखूँगी। समझ लूँगी, जैसे और सब लड़के मर गये, वैसे यह भी मर गयी।

‘तो फिर आख़िर तुम क्या करने को कहती हो?’

‘क्यों नहीं उस लड़के से विवाह कर देते, उसमें क्या बुराई है? वह दो साल में सिविल सर्विस पास करके आ जायेगा। केशव के पास क्या रखा है? बहुत होगा, किसी दफ़्तर में क्लर्क हो जायेगा!’

‘और अगर प्रेमा प्राण-हत्या कर ले, तो?’

‘तो कर ले, तुम तो उसे और शह देते हो। जब उसे हमारी परवाह नहीं है, तो हम उसके लिए अपने नाम को क्यों कलंकित करें? प्राणहत्या करना कोई खेल नही है। यह सब धमकी है। मन घोड़ा है, जब तक उसे लगाम न दो, तो पुट्ठे पर हाथ न रखने देगा। जब उसके मन का यह हाल है, तो कौन कहे, वह केशव के साथ ही जिन्दगी-भर निबाह करेगी। जिस तरह आज उससे प्रेम है, उसी तरह कल दूसरे से हो सकता है। तो क्या पत्ते पर अपना मांस बिकवाना चाहते हो?’

लालाजी ने स्त्री को प्रश्नसूचक दृष्टि से देखकर कहा-और अगर वह कल ख़ुद जाकर केशव से विवाह कर ले, तो तुम क्या कर लोगी? फिर तुम्हारी कितनी इज़्ज़त रह जायेगी! चाहे वह संकोचवश या हम लोगों के लिहाज़ से यों ही बैठी रहे, पर यदि ज़िद पर कमर बाँध ले, तो हम-तुम कुछ नहीं कर सकते।

इस समस्या का ऐसा भीषण अंत भी हो सकता है, यह इस वृद्धा के ध्यान में भी न आया था। यह प्रश्न बम के गोले की तरह उसके मस्तिष्क पर गिरा। एक क्षण तक वह अवाक् बैठी रह गयी, मानो इस आघात ने उसकी बुद्धि की धज्जियाँ उड़ा दी हों। फिर पराभूत होकर बोली-तुम्हें अनोखी ही कल्पनाएँ सूझती हैं! मैंने तो आज तक कभी भी नहीं सुना कि किसी कुलीन कन्या ने अपने इच्छा से विवाह किया है।

‘तुमने न सुना हो; लेकिन मैंने सुना है, और देखा है कि ऐसा होना बहुत सम्भव है।’

‘जिस दिन ऐसा होगा, उस दिन तुम मुझे जीती न देखोगे।’

‘मैं यह नहीं कहता कि ऐसा होगा ही; लेकिन होना सम्भव है।’

‘तो जब ऐसा होना है, तो इससे तो यही अच्छा है कि हमी इसका प्रबंध करें। जब नाक ही कट रही है, तो तेज़ छुरी से क्यों न कटे। कल केशव को बुलाकर देखो, क्या कहता है।’

केशव के पिता सरकारी पेंशनर थी, मिज़ाज़ के चिड़चिड़े और कपण। धर्म के आडम्बरों में ही उनके चित्त को शांति मिलती थी। कल्पनाशक्ति का अभाव था। किसी के मनोभावों का सम्मान न कर सकते थे। वे अब भी उस संसार में रहते थे, जिसमें उन्होंने अपने बचपन और जवानी के दिन काटे थे। नवयुग की बढ़ती हुई लहर को वे सर्वनाश कहते थे, और कम-से-कम अपने घर को दोनों हाथों और दोनों पैरों का ज़ोर लगाकर उसमें से बचाये रखना चाहते थे; इसलिए जब एक दिन प्रेमा के पिता उनके पास पहुँचे और केशव से प्रेमा के विवाह का प्रस्ताव किया, तो बूढ़े पंडितजी अपने आपे में न रह सके। घुँधली आँखें फाड़कर बोले-आप भंग तो नहीं खा गये हैं? इस तरह का सम्बंध और चाहे जो कुछ हो, विवाह नहीं है। मालूम होता है, आपको भी नये ज़माने की हवा लग गयी।

बूढे़ बाबूजी ने नम्रता से कहा-मैं ख़ुद ऐसा सम्बंध पसन्द नहीं करता। इस विषय में मेरे विचार वही हैं, जो आपके; पर बात ऐसी आ पड़ी है कि मुझे विवश होकर आपकी सेवा में आना पड़ा। आजकल के लड़कें और लड़कियाँ कितने स्वेच्छाचारी हो गये हैं, यह तो आप जानते ही हैं। हम बूढ़े लोगों के लिए अब अपने सिद्धांतों की रक्षा करना कठिन हो गया है। मुझे भय है कि कहीं ये दोनों निराश होकर जान पर न खेल जायँ।

बूढ़े पंडितजी ज़मीन पर पाँव पटकते हुए गरज़ उठे-आप क्या कहते हैं, साहब! आपको शर्म नहीं आती? हम ब्राह्मण हैं और ब्राह्मणों में भी कुलीन। ब्राह्मण कितने ही पतित हो गये हों, इतने मर्यादा शून्य नहीं हुए हैं कि बनिए-बक्कालों की लड़की से विवाह करते फिरें! जिस दिन कुलीन ब्राह्मणों में लड़कियाँ न रहेंगी, उस दिन यह समस्या उपस्थित हो सकती है। मैं कहता हूँ, आपको मुझसे यह बात कहने का साहस कैसे हुआ?

बूढ़े बाबूजी जितना ही दबते थे, उतना ही पंडितजी बिगड़ते थे। यहाँ तक कि लालाजी अपना अपमान ज्यादा न सह सके और अपनी तक़दीर को कोसते हुए चले गये।

उसी वक्त केशव कॉलेज से आया। पंडितजी ने तुरंत उसे बुलाकर कठोर कंठ से कहा-मैंने सुना है, तुमने किसी बनिए की लड़की से अपना विवाह करने का निश्चय कर लिया है। यह ख़बर कहाँ तक सही है?

केशव ने अनज़ान बनकर पूछा-आपसे किसने कहा?

‘किसी ने कहा। मैं पूछता हूँ, यह बात ठीक है, या नहीं? अगर ठीक है, और तुमने अपनी मर्यादा को डुबाना निश्चय कर लिया है, तो तुम्हारे लिए हमारे घर में कोई स्थान नहीं। तुम्हें मेरी कमाई का एक धेला भी नहीं मिलेगा। मेरे पास जो कुछ है, वह मेरी अपनी कमाई है। मुझे अख़्तियार है कि मैं उसे जिसे चाहूँ दे दूँ। तुम यह अनीति करके मेरे घर में कदम नहीं रख सकते।’

केशव पिता के स्वभाव से परिचित था। प्रेमा से उसे प्रेम था, वह गुप्त रूप से प्रेमा से विवाह कर लेना चाहता था। बाप हमेशा तो बैठे न रहेंगे। माता के स्नेह पर उसे विश्वास था। उस प्रेम की तरंग में वह सारे कष्टों को झेलने के लिए तैयार मालूम होता था; लेकिन जैसे कोई कायर सिपाही बन्दूक के सामने जाकर हिम्मत खो बैठता है और कदम पीछे हटा लेता है, वही दशा केशव की हुई। वह साधारण युवकों की तरह सिद्धांतों के लिए बड़े-बड़े तर्क कर सकता था, ज़बान से उनमे अपनी भक्ति की दोहाई दे सकता था; लेकिन इसके लिए यातनाएँ झेलने की सामर्थ्य उसमें न थी। अगर वह अपनी जिद्द पर अड़ा और पिता ने भी अपने टेक रखी, तो उसका कहाँ ठिकाना लगेगा? उसका जीवन ही नष्ट हो जायेगा।

उसने दबी ज़बान से कहा-जिसने आपसे यह कहा है, बिलकुल झूठ कहा है।

पंडितजी ने तीव्र नेत्रों से देखकर कहा-तो यह ख़बर बिलकुल ग़लत है?

‘जी हाँ, बिलकुल ग़लत।’

‘तो तुम आज ही इसी वक्त उस बनिए को ख़त लिख दो और याद रखो कि अगर इस तरह की चर्चा फिर कभी उठी, तो मैं तुम्हारा सबसे बड़ा शत्रु होउँगा। बस, जाओ।’

केशव और कुछ न कह सका। वह वहाँ से चला, तो ऐसा मालूम होता था कि पैरों में दम नहीं है।