sohaag ka shav by Munshi Premchand
sohaag ka shav by Munshi Premchand

मध्यप्रदेश के एक पहाड़ी गांव में एक छोटे-से घर की छत पर एक युवक मानो संध्या की निस्तब्धता में लीन बैठा था। सामने चंद्रमा के मलिन प्रकाश में ऊंची पर्वतमालाएं अनन्त के स्वप्न की भांति गम्भीर, रहस्यमय, संगीतमय, मनोहर मालूम होती थीं, उन पहाड़ियों के नीचे जलधारा की रौप्य रेखा ऐसी मालूम होती थी, मानो उन पर्वतों का समस्त संगीत, समस्त गाम्भीर्य, सम्पूर्ण रहस्य इसी उज्ज्वल प्रवाह में लीन हो गया हो। युवक की वेषभूषा से प्रकट होता था कि उसकी दशा बहुत सम्पन्न नहीं है। हां उसके मुख से तेज और मनस्विता झलक रही थी। उसकी आंखों पर ऐनक न थी, न मूंछें मुड़ी हुई थी, न बाल संवारे हुए थे, कलाई पर घड़ी न थी, यहां तक कि कोट की जेब में फाउण्डेशन भी न था। या तो वह सिद्धान्तों का प्रेमी था, या आडम्बरों का शत्रु।

युवक विचारों में मौन उसी पर्वतमाला की ओर देख रहा था कि सहसा बादल की गरज से भी भयंकर ध्वनि सुनाई दी। नदी का मधुर गान उस भीषण वाद में डूब गया। ऐसा मालूम हुआ, मानो उस भयंकर नाद ने पर्वतों को भी हिला दिया है, मानों पर्वतों में कोई घोर संग्राम छिड़ गया है। यह रेलगाड़ी थी, जो नदी पर बने हुए पुल से चली आ रही थी।

एक युवती कमरे से निकलकर छत पर आयी और बोली – ‘आज अभी से गाड़ी आ गयी। इसे भी आज ही बैर निभाना था।’

युवक ने युवती का हाथ पकड़कर कहा – ‘प्रिये मेरा जी चाहता है, कहीं न जाऊं, उन्होंने निश्चय कर लिया है। मैंने तुम्हारी खातिर से हामी भर ली थी, पर अब जाने की इच्छा नहीं होती। तीन साल कैसे कटेंगे?’

युवती ने कातर स्वर में कहा – ‘तीन साल के वियोग के बाद फिर तो जीवन-पर्यन्त कोई बाधा न खड़ी होगी। एक बार जो निश्चय कर लिया है, उसे पूरा ही कर डालो, अनंत सुख की आशा में मैं सारे कष्ट झेल लूंगी।’

यह कहते हुए युवती जलपान लाने के बहाने से फिर भीतर चली गयी। आंसुओं का आवेग उसके काबू से बाहर हो गया। इन दोनों प्राणियों के वैवाहिक जीवन की यह पहली ही वर्षगांठ थी। युवक बम्बई-विश्वविद्यालय से एमए की उपाधि लेकर नागपुर के एक कॉलेज में अध्यापक था। नवीन युग की नयी-नयी वैवाहिक और सामाजिक क्रांतियों ने उसे लेशमात्र भी विचलित न किया था। पुरानी प्रथाओं से ऐसी प्रगाढ़ ममता कदाचित वृद्धजनों को भी कम होगी। प्रोफेसर हो जाने के बाद उसके माता-पिता ने इस बालिका से उसका विवाह कर दिया था। प्रथानुसार ही उस आंख-मिचौनी के खेल में उन्हें प्रेम का रत्न मिल जाता। ये दो-चार दिन मीठे स्वप्न के समान कट जाते थे। दोनों बालकों की भांति रो-रोकर विदा होते। इसी कोठे पर खड़ी होकर वह उसको देखा करती, जब तक निर्दयी पहाड़ियां उसे आड़ में न कर लेती। पर अभी साल भी न गुजरने पाया था कि वियोग ने अपना षड्यंत्र बनाना शुरू कर दिया। केशव को विदेश जाकर शिक्षा पूरी करने के लिए एक वृत्ति मिल गयी। मित्रों ने बधाइयां दी। किसके ऐसे भाग्य हैं, जिसे बिना मांगे स्वभाग्य निर्माण का ऐसा अवसर आया। माता-पिता और अन्य सम्बन्धियों ने इस यात्रा का घोर विरोध किया। नगर में जितनी बधाइयां मिली थी, यहां उससे कहीं अधिक बाधाएं मिली किन्तु सुभद्रा की उच्चाकांक्षाओं की सीमा न थी। वह कदाचित केशव को इंद्रासन पर बैठा हुआ देखना चाहती थी। उसके सामने तब भी वही पति-सेवा का आदर्श होता था। वह तब भी उसके सिर में तेल डालेगी, उसकी धोती छांटेगी, उसके पांव दबायेगी और उसको पंखा झलेगी। उपासक की महत्त्वाकांक्षा उपास्य ही के प्रति होती है। वह उसके लिए सोने का मंदिर बनायेगा, उसके सिंहासन को रत्नों से सजायेगा, स्वर्ग से पुष्प लाकर भेंट करेगा, पर वह स्वयं वहीं उपासक रहेगा। जय के स्थान पर मुकुट या कोपीन की जगह पीताम्बर की लालसा उसे कभी नहीं सताती। सुभद्रा ने उस वक्त तक दम न लिया जब तक केशव ने विलायत जाने का वादा न कर लिया। माता-पिता ने उसे कलंकिनी और न जाने क्या-क्या कहा, पर अंत में सहमत हो गये। सब तैयारियां हो गयीं। स्टेशनों के समीपस्थ गांव के निवासियों के लिए गाड़ी का आना शत्रु का धावा नहीं, मित्र का पदार्पण है। गाड़ी आ गयी। सुभद्रा जलपान बनाकर पति को हाथ धुलाने आयी थी। इस समय केशव की प्रेम-कातर आपत्ति ने उसे एक क्षण के लिए विचलित कर दिया। हा! कौन जानता है तीन साल में क्या हो जाय। मन में एक आवेश उठा कह दूं प्यारे मत जाओ। थोड़ा ही खायेंगे, मोटा ही पहनेंगे, रो-रोकर दिन तो न कटेंगे। कभी केशव के आने में एकआध महीना लग जाता था, तब वह विकल हो जाया करती थी। यही जी चाहता था, उड़कर उनके पास पहुंच जाऊं। फिर ये निर्दयी तीन वर्ष कैसे कटेंगे लेकिन उसने बड़ी कठोरता से इन निराशाजनक भावों को ठुकरा दिया और कांपते कंठ से बोली – ‘जी तो मेरा भी यही चाहता है। जब तीन साल का अनुमान करती हूं तो एक कल्प-सा मालूम होता है। लेकिन जब विलायत में तुम्हारे सम्मान और आदर का ध्यान करती हूं तो ये तीन साल तीन दिन से मालूम होते है। तुम तो जहाज पर पहुंचते ही मुझे भूल जाओगे। नये-नये दृश्य तुम्हारे मनोरंजन के लिए आ खड़े होंगे। यूरोप पहुंचकर विद्वानों के सत्संग में तुम्हें घर की याद भी न आयेगी। मुझे तो रोने के सिवा और कोई धंधा नहीं है। यही स्मृतियां ही मेरे जीवन का आधार होंगी। लेकिन क्या करूं, जीवन की भोग-लालसा तो नहीं मानती। फिर जिस वियोग का अंत जीवन की सारी विभूतियां अपने साथ लायेगा, वह वास्तव में तपस्या है। तपस्या के बिना तो वरदान नहीं मिलता।

केशव को भी अब ज्ञात हुआ कि क्षणिक मोह के आवेश में स्वभाग्य निर्माण का ऐसा अच्छा अवसर त्याग देना मूर्खता है। खड़े होकर बोले – ‘रोना-धोना मत, नहीं तो मेरा जी न लगेगा।’

सुभद्रा ने उसका हाथ पकड़कर हृदय से लगाते हुए उसके मुंह की ओर सजल नेत्रों से देखा और बोली – ‘पत्र बराबर भेजते रहना।’

सुभद्रा ने फिर आंखों में आंसू, भरे हुए मुस्कुराकर कहा – ‘देखना, विलायती मिस. के जाल में न फंस जाना।’

केशव फिर चारपाई पर बैठ गया और बोला – ‘अगर तुम्हें यह संदेह है, तो लो, मैं जाऊंगा ही नहीं।’

सुभद्रा ने उसके गले में बांहें डालकर विश्वास -पूर्ण दृष्टि से देखा और बोली – ‘मैं दिल्लगी कर रही थी।’

‘अगर इंद्रलोक की अप्सरा भी आ जाय, तो आंख उठकर न देखूं। ब्रह्म ने ऐसी दूसरी सृष्टि की ही नहीं।’

‘बीच में कोई छुट्टी मिले, तो एक बार चले आना।’

‘नहीं, प्रिये, बीच में शायद छुट्टी न मिलेगी। मगर जो मैंने सुना कि तुम रो-रोकर घुली जाती हो, दाना-पीना छोड़ दिया है, तो मैं अवश्य चला जाऊंगा। ये फूल जरा भी कुम्हलाने न पायें।’

दोनों गले मिलकर विदा हो गये। बाहर संबंधियों और मित्रों का एक समूह खड़ा था। केशव ने बड़ों के चरण हुए, छोटों को गले लगाया और स्टेशन की ओर चले। मित्रगण स्टेशन तक पहुंचाने गये। एक क्षण में गाड़ी यात्री को लेकर चल दी।

उधर केशव गाड़ी में बैठा हुआ पहाड़ियों की बहार देख रहा था, उधर सुभद्रा भूमि पर पड़ी सिसकियां भर रही थी।

दिन गुजरने लगे। उसी तरह, जैसे बीमारी के दिन कटते हैं, दिन पहाड़, रात काली बला। रात भर मनाते गुजरती थी कि किसी तरह भोर हो। भोर होता, तो मनाने लगती कि जल्दी शाम हो। मैके गयी कि वहां जी बहलेगा। दस-पांच दिन परिवर्तन का कुछ असर हुआ, फिर उससे भी बुरी दशा हुई, भागकर ससुराल चली आयी। रोगी करवट बदलकर आराम का अनुभव करता है।

पहले पांच-छह महीनों तक तो केशव के पत्र पंद्रहवें दिन बराबर मिलते रहे। उसमें वियोग के दुःख कम, नये-नये दृश्यों का वर्णन अधिक होता था। पर सुभद्रा संतुष्ट थी। पत्र आते हैं, न तो वह प्रसन्न हैं, कुशल से हैं, उसके लिए काफी था। प्रतिकूल वह पत्र लिखती, तो विरह-व्यथा के सिवा उसके कुछ सूझता ही न था। कभी-कभी जी बेचैन हो जाता, तो पछताती कि व्यर्थ जाने दिया। कहीं एक दिन मर जाऊं, तो उनके दर्शन भी न हों।

लेकिन छठे महीने से पत्रों में भी विलम्ब होने लगा। कई महीने तक तो महीने में एक पत्र आता रहा, फिर वह भी बंद हो गया। सुभद्रा के चार-छह पत्र पहुंच जाते, तो एक पत्र आ जाता, वह भी बेदिली से लिखा हुआ – काम की अधिकता और समय के अभाव के रोने से भरा हुआ। एक वाक्य भी ऐसा नहीं जिससे हृदय को शांति हो जो टपकते हुए दिल पर मरहम रखे। हा! आदि से अंत तक ‘प्रिये’ शब्द का नाम नहीं। सुभद्रा अधीर हो उठी। उसने यूरोप-यात्रा का निश्चय कर लिया। वह सारे कष्ट सह लेगी, सिर पर जो कुछ पड़ेगी, सह लेगी, केशव को आंखों से देखती तो रहेगी। वह इस बात को उनसे गुप्त रखेगी, उनकी कठिनाइयों को और न बढ़ायेगी, उनसे बोलेगी भी नहीं! केवल उन्हें कभी-कभी आंख भरकर देख लेगी। यही उसकी शांति के लिए काफी होगा। उसे क्या मालूम था कि उसका केशव अब उसका नहीं रहा। वह अब एक दूसरी ही कामिनी के प्रेम का भिखारी है।

सुभद्रा कई दिनों तक इस प्रस्ताव को मन में रखे हुए सेती रही। उसे किसी प्रकार की शंका न होती थी। समाचार-पत्रों के पढ़ते रहने से उसे समुद्री यात्रा का हाल मालूम होता रहता था। एक दिन उसने अपने सास-ससुर के सामने अपना निश्चय प्रकट किया। उन लोगों ने उसे बहुत समझाया, रोकने की बहुत चेष्टा की, लेकिन सुभद्रा ने अपना हठ न छोड़ा। आखिर जब लोगों ने देखा कि यह किसी तरह नहीं मानती, तो राजी हो गये। मायके वाले भी समझाकर हार गये। कुछ रुपये उसने स्वयं जमा कर रखे थे, कुछ ससुराल में मिले। मां-बाप ने भी मदद की। रास्ते के खर्च की चिंता न रही। इंग्लैंड में पहुंचकर वह क्या करेगी, इसका अभी उसने कुछ निश्चय न किया। इतना जानती थी कि परिश्रम करने वाले को रोटियों की कहीं कमी नहीं रहती।

विदा होते समय सास और ससुर दोनों स्टेशन तक आये। जब गाड़ी ने सीटी दी, तो सुभद्रा ने हाथ जोड़कर कहा – मेरे जाने का समाचार वहां न लिखिएगा। नहीं तो उन्हें चिंता होगी और पढ़ने में उनका जी न लगेगा।

ससुर ने आश्वासन दिया। गाड़ी चल दी।

लंदन के उस हिस्से में जहां, इस समृद्धि के समय में भी दरिद्रता का राज्य है, ऊपर के एक छोटे से कमरे में सुभद्रा एक कुर्सी पर बैठी है। उसे यहां आये आज एक महीना हो गया है। यात्रा के पहले उसके मन में जितनी शंकाएं थी, सभी शांत होती जा रही है। बम्बई-बंदर में जहाज पर जगह पाने का प्रश्न बड़ी आसानी से हल हो गया। वह अकेली औरत थी जो यूरोप जा रही हो। पांच-छह स्त्रियां और भी उसी जहाज से जा रही थी। सुभद्रा को न जगह मिलने में कोई कठिनाई हुई, न मार्ग में। यहां पहुंचकर और स्त्रियों से संग छूट गया। कोई किसी विद्यालय में चली गयी, दो-तीन अपने पतियों के पास चली गयीं, जो यहां पहले आ गये थे। सुभद्रा ने इस मुहल्ले में एक कमरा ले लिया। जीवन का प्रश्न उसके लिए बहुत कठिन न रहा। जिन महिलाओं के साथ वह घर आयी थी, उनमें कई उच्च-अधिकारियों की पत्नियां थी। कई अच्छे-अच्छे अंग्रेज घराने से उनका परिचय था। सुभद्रा को दो महिलाओं को भारतीय संगीत और हिन्दी-भाषा सिखाने का काम मिल गया। शेष समय में वह कई भारतीय महिलाओं के कपड़े सीने का काम कर लेती है। केशव का निवास-स्थान यहां से निकट है, इसलिए सुभद्रा ने इस मुहल्ले को पसंद किया है। कल केशव उसे दिखाई दिया था। ओह! उन्हें बस से उतरते देखकर उसका चित कितना आतुर हो उठा था। बस यही मन में आता था कि दौड़कर उनके गले से लिपट जाय और पूछे -‘क्यों जी, तुम यहां आते ही बदल गये। याद है, तुमने चलते समय क्या-क्या वादे किये थे?’ उसने बड़ी मुश्किल से अपने को रोका था। तब से इस वक्त तक उसे मानो नशा-छाया हुआ है, वह उनके इतने समीप है! चाहे रोज उन्हें देख सकती है, उनकी बातें सुन सकती है। हां उन्हें स्पर्श तक कर सकती है। अब यह उससे भागकर कहां जायेंगे? उनके पत्रों की अब उसे क्या चिंता है? कुछ दिनों के बाद संभव है वह उनके होटल के नौकरों से जो चाहे, पूछ सकती है।

संध्या हो गयी थी। धुएं में बिजली की लालटेन रोती आंखों की भांति ज्योतिहीन-सी हो रही थी। गली में स्त्री-पुरुष सैर करने जा रहे थे। सुभद्रा सोचने लगी – इन लोगों को आमोद से कितना प्रेम है, मानो किसी को चिंता ही नहीं, मानो सभी संपन्न हैं, तभी ये लोग इतने एकाग्र होकर सब काम कर सकते हैं। जिस समय जो काम करते हैं, जी-जान से करते हैं, भोजन करने की फुरसत भी नहीं मिलती, पर वास्तव में चौथाई समय भी काम में नहीं लगाते। केवल काम करने का बहाना करते हैं। मालूम होता है, जाति प्राण-शून्य हो गयी है।

सहसा उसने केशव को जाते देखा। हां केशव ही था। कुर्सी से उठकर बरामदे में चली आयी। प्रबल इच्छा हुई कि जाकर उसके गले से लिपट जाय। उसने अगर अपराध किया है, तो उन्हीं के कारण तो। यदि वह बराबर पत्र लिखते जाते, तो वह क्यों आती?

लेकिन केशव के साथ यह युवती कौन है? अरे! केशव उसका हाथ पकड़े हुए है। दोनों मुस्करा-मुस्कुराकर बातें करते चले जाते हैं। यह युवती कौन है?

सुभद्रा ने ध्यान से देखा। युवती का रंग सांवला था। वह भारतीय बालिका थी। उसका पहनावा भारतीय था। इससे ज्यादा सुभद्रा को और कुछ न दिखाई दिया। उसने तुरंत जूते पहने, द्वार बंद किये और एक क्षण में गली में आ पहुंची। केशव अब दिखाई न देता था, पर वह जिधर गया था, उधर ही बड़ी तेजी से लपकी चली जाती थी। यह युवती कौन है? वह उन दोनों की बातें सुनना चाहती थी। उस युवती को देखना चाहती थी, उसके पांव इतनी तेजी से उठ रहे थे मानो दौड़ रही हो। पर इतनी जल्द दोनों कहां अदृश्य हो गये? अब तक उसे उन लोगों के समीप पहुंच जाना चाहिए था। शायद दोनों किसी ‘बस’ पर जा बैठे।

अब वह गली समाप्त करके एक चौड़ी सड़क पर आ पहुंची थी। दोनों तरफ बड़ी-बड़ी जगमगाती हुई दुकानें थीं, जिनमें संसार की विभूतियां गर्व से फूली बैठी थीं। कदम-कदम पर होटल और रेस्तरां थे। सुभद्रा दोनों ओर नेत्रों से ताकती, पग-पग पर भ्रांति के कारण मचलती कितनी दूर निकल गयी, कुछ खबर नहीं।

फिर उसने सोचा – यों कहां तक चली जाऊंगी? कौन जाते, किधर गये? चलकर फिर अपने बरामदे से देखूं। आखिर इधर से गये हैं, तो इधर ही से लौटेंगे भी। यह ख्याल आते ही वह घूम पड़ी और उसी तरह दौड़ती हुई अपने स्थान की ओर चली। जब वहां पहुंची तो बारह बज गये थे और इतनी देर उसे चलते ही गुजरे। एक क्षण भी उसने कहीं विश्राम नहीं किया।

वह ऊपर पहुंची तो गृहस्वामिनी ने कहा – ‘तुम्हारे लिए बड़ी देर से भोजन रखा हुआ है।’

सुभद्रा ने भोजन अपने कमरे में मंगा लिया पर खाने की सुधि किसे थी? वह उसी बरामदे में, उसी तरफ टकटकी लगाये खड़ी थी, जिधर से केशव गया था।

एक बज गया, दो बजा, फिर भी केशव नहीं लौटा। उसने मन में कहा – वह किसी दूसरे मार्ग से चले गये। मेरा यहां खड़ा रहना व्यर्थ है। चलूं सो रहूं। लेकिन फिर खयाल आ गया, कहीं आ न रहे हों।