sohaag ka shav by Munshi Premchand
sohaag ka shav by Munshi Premchand

दूसरे दिल प्रातःकाल सुभद्रा अपने काम पर जाने को तैयार हो रही थी कि एक युवती रेशमी साड़ी पहने आकर खड़ी हो गयी और मुस्कुराकर बोली – ‘क्षमा कीजिएगा, मैंने बहुत सबेरे आपको कष्ट दिया। आप तो कहीं जाने को तैयार मालूम होती हैं।’

सुभद्रा ने एक कुर्सी बढ़ाते हुए कहा – ‘हां, एक काम से बाहर जा रही थी। मैं आपकी क्या सेवा कर सकती हूं?’

यह कहते हुए सुभद्रा ने युवती को सिर से पांव तक उसी आलोचनात्मक दृष्टि से देखा, जिससे स्त्रियां ही देख सकती हैं। सौंदर्य की किसी परिभाषा से भी उसे सुंदरी न कहा जा सकता था। उसका रंग सांवला, मुंह कुछ चौड़ा, नाक कुछ चिपटी, कद भी छोटा और शरीर भी कुछ स्थूल था। आंखों पर ऐनक लगी हुई थी। लेकिन इन सब कारणों के होते हुए भी उसमें कुछ ऐसी बात थी, जो आंखों को अपनी ओर खींच लेती थी। उसकी वाणी इतनी मधुर, इतनी संयमित, इतनी विनम्र थी कि जान पड़ता था, किसी देवी के वरदान हों। एक-एक अंग से प्रतिभा विकर्ण हो रही थी। सुभद्रा उसके सामने हलकी एवं तुच्छ मालूम होती थी। युवती ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा –

‘अगर मैं भूलती हूं तो मुझे क्षमा कीजिएगा। मैंने सुना है कि आप कुछ कपड़े भी सिलती हैं, जिसका प्रमाण यह है कि यहां सिविंग मशीन मौजूद है।’

सुभद्रा – ‘मैं दो लेडियों को भाषा पढ़ाने जाया करती हूं, शेष समय मैं कुछ सिलाई भी कर लेती है। आप कपड़े लायी हैं।’

युवती – ‘नहीं, अभी कपड़े नहीं लायी।’ यह कहते हुए उसने लज्जा से सिर झुकाकर मुस्कुराते हुए कहा – ‘बात यह है कि मेरी शादी होने जा रही है। मैं वस्त्राभूषण सब हिंदुस्तानी रखना चाहती हूं। विवाह भी वैदिक रीति से ही होगा। ऐसे कपड़े यहां आप ही तैयार कर सकती हैं।’

सुभद्रा ने हंसकर कहा – ‘मैं ऐसे अवसर पर आपके जोड़े तैयार करके अपने को धन्य समझूंगी। वह शुभ तिथि कब है?’

युवती ने सकुचाते हुए कहा – ‘वह तो कहते हैं, इसी सप्ताह में हो जाय, पर मैं उन्हें टालती आती हूं। मैंने तो चाहा था कि भारत लौटने पर विवाह होता, पर वह इतने उतावले हो रहे हैं कि कुछ कहते नहीं बनता। अभी तो मैंने यही कहकर टाला है कि मेरे कपड़े सिल रहे हैं।’

सुभद्रा – ‘तो मैं आपके जोड़े बहुत जल्द दे दूंगी।’

युवती ने हंसकर कहा – ‘मैं तो चाहती थी कि आप महीनों लगा देतीं।’

सुभद्रा – ‘वाह, मैं इस शुभ कार्य में क्यों विघ्न डालने लगी? मैं इसी सप्ताह में आपके कपड़े दे दूंगी, और उनसे इसका पुरस्कार लूंगी।’

युवती खिलखिलाकर हंसी। कमरे में प्रकाश की लहरें-सी उठ गयी। बोली – ‘इसके लिए तो पुरस्कार वह देंगे और तुम्हारे कृतज्ञ होंगे। मैंने प्रतिज्ञा की थी कि विवाह के बंधन में पडूंगी ही नहीं, पर उन्होंने मेरी प्रतिज्ञा तोड़ दी। अब मुझे मालूम हो रहा है कि प्रेम की बेड़ियां कितनी आनंदमय होती हैं। तुम तो अभी हाल ही में आयी हो। तुम्हारे पति भी साथ होंगे?’

सुभद्रा ने बहाना किया और बोली – ‘वह इस समय जर्मनी में हैं। संगीत से उन्हें बहुत प्रेम है। संगीत ही का अध्ययन करने के लिए वहां गये हैं।’

‘तुम भी संगीत से बड़ा प्रेम है।’

‘बहुत थोड़ा।’

‘केशव को संगीत से बड़ा प्रेम है।’

केशव का नाम सुनकर सुभद्रा को ऐसा मालूम हुआ, जैसे बिच्छू ने काट लिया हो। वह चौंक पड़ी।

युवती ने पूछा – ‘आप चौंक कैसे गयी? क्या केशव को जानती हो?’

सुभद्रा ने बात बनाकर कहा – ‘नहीं, मैंने यह नाम कभी नहीं सुना। वह यहां क्या करते हैं?’

सुभद्रा को खयाल आया, क्या केशव किसी दूसरे आदमी का कम नहीं हो सकता। इसलिए उसने यह प्रश्न किया था। उसी जवाब पर उसकी जिंदगी का फैसला था।

युवती ने कहा – ‘यहां विद्यालय में पढ़ते हैं। भारत सरकार ने उन्हें भेजा है। अभी साल भर भी तो आये नहीं हुआ। तुम देखकर प्रसन्न होगी। तेज और बुद्धि की मूर्ति समझ लो। यहां के अच्छे-अच्छे प्रोफेसर उनका आदर करते हैं। ऐसा सुन्दर भाषण तो मैंने किसी के मुंह से सुना ही नहीं। जीवन आदर्श है। मुझसे उन्हें क्यों प्रेम हो गया है, मुझे इसका आश्चर्य है। मुझमें न रूप है, न लावण्य। यह मेरा सौभाग्य है। तो मैं शाम को कपड़े लेकर आऊंगी।’ सुभद्रा ने मन में उठते हुए वेग को संभालकर कहा – ‘अच्छी बात है।’

जब युवती चली गयी, तो सुभद्रा फूट-फूटकर रोने लगी। ऐसा जान पड़ता था, मानो देह में रक्त ही नहीं, प्राण निकल गये हैं। वह कितनी निःसहाय, कितनी दुर्बल है, इसका आज अनुभव हुआ। ऐसा मालूम हुआ, मानो संसार में उसका कोई नहीं है। अब उसका जीवन व्यर्थ है। उसके लिए अब जीवन में रोने के सिवा और क्या है। उसकी सारी ज्ञानेंद्रिय शिथिल-सी हो गयी थी मानो वह किसी ऊंचे वृक्ष से गिर पड़ी हो। हा! यह उसके प्रेम और भक्ति का पुरस्कार है। उसने कितना आग्रह करके केशव को यहां भेजा था? इसलिए कि यहां आते ही उसका सर्वनाश कर दें?

पुरानी बातें याद आने लगी। केशव की वह प्रेमातुर आंखें सामने आ गयी। वह सरल, सहज मूर्ति आंखों के सामने नाचने लगी। उसका जरा सिर धमकता था, तो केशव कितना व्याकुल हो जाता था। एक बार जब उसे फसली बुखार आ गया था, और उसके सिरहाने बैठा केशव रात भर पंखा झलता रहा था। वही केशव अब इतनी जल्द उससे ऊब उठा, उसके लिए सुभद्रा ने कौन-सी बात उठा रखी। वह तो उसी को अपना प्राणाधार, अपना जीवन-भर, अपना सर्वस्व समझती थी। नहीं-नहीं, केशव का दोष नहीं, सारा दोष इसी का है। इसी ने अपनी मधुर बातों से उन्हें वशीभूत कर लिया है। इसकी विद्या, बुद्धि और वाक्पटुता ही ने उनके हृदय पर विजय पायी। हाय! उसने कितनी बार केशव से कहा था, मुझे भी पढ़ाया करो, लेकिन उन्होंने हमेशा यही जवाब दिया, तुम जैसी हो, मुझे वैसी ही पसन्द हो। मैं तुम्हारी स्वाभाविक सरलता को पढ़ा-पढ़ाकर मिटाना नहीं चाहता। केशव ने उसके साथ कितना बड़ा अन्याय किया है। लेकिन यह उसका दोष नहीं, पर यह इसी यौवन-मतवाली छोकरी की माया है।

सुभद्रा को इस ईर्ष्या और दुःख के आवेश में अपने काम पर जाने की सुध न रही। वह कमरे में इस तरह टहलने लगी जैसे किसी ने जबरदस्ती उसे बंद कर दिया हो। कभी दोनों मुट्ठियां बंध जाती, कभी दांत पीसने लगती, कभी ओठ काटती। उन्माद की-सी दशा को गयी। आंखों में भी एक तीव्र ज्वाला चमक उठी। ज्यों-ज्यों केशव के इस निष्ठुर आघात को सोचती, उन कष्टों को याद करती, जो उसने उसके लिए झेले थे, उसका चित्त प्रतिकार के लिए विकल होता जाता था। अगर कोई बात हुई होती, आपस में कुछ मालूम होता था। कि मानो कोई हंसते-हंसते अचानक गले पर चढ़ बैठे। अगर वह उनके योग्य नहीं थी, तो उन्होंने विवाह ही क्यों किया था? विवाह करने के बाद भी उसे क्यों न ठुकरा दिया था? क्यों प्रेम का बीज बोया था? और आज जब वह बीज पल्लवों से लहराने लगा, उसकी जड़ें उसके अंतस्तल के एक-एक अंग में प्रविष्ट हो गयी, उसका रक्त, उसका सारा उत्सर्ग वृक्ष को सींचने और पालने में प्रवृत्त हो गया, तो वह आज उसे उखाड़कर फेंक देना चाहते हैं। क्या हृदय के टुकड़े-टुकड़े हुए बिना, वृक्ष उखाड़ जायेगा?

सहसा उसे एक बात याद आ गयी। हिंसात्मक संतोष से उसका उत्तेजित मुख-मंडल और भी कठोर हो गया। केशव ने अपने पहले विवाह की बात इस युवती से गुप्त रखी होगी! सुभद्रा इसका भंडाफोड़ करके केशव के सारे मंसूबों को धूल में मिला देगी। उसे अपने ऊपर क्रोध आया कि युवती का पता क्यों न पूछ लिया। उसे एक पत्र लिखकर केशव की नीचता, स्वार्थपरता और कायरता की कलई खोल देती – उसके पांडित्य, प्रतिभा और प्रतिष्ठा को धूल में मिला देती। खैर, संध्या-समय तो वह कपड़े लेकर आयेगी ही। उस समय सारा कच्चा चिट्ठा बयान कर दूंगी।

सुभद्रा दिन-भर युवती का इंतजार करती रही। कभी बरामदे में आकर इधर-उधर निगाह दौड़ाती, कभी सड़क पर देखती, पर उसका कहीं पता न था। मन में झुंझलाती थी कि उसने क्यों उसी वक्त सारा वृत्तांत न कह सुनाया।

केशव का पता उसे मालूम था। उस मकान और गली का नम्बर तक याद था, जहां से वह उसे पत्र लिखा करता था। ज्यों-ज्यों दिन ढलने लगा और युवती के आने में विलम्ब होने लगा, उसके मन में एक तरंग-सी उठने लगी कि जाकर केशव को फटकार लगाये, उसका सारा नशा उतार दे, कहे – तुम इतने भयंकर हिंसक हो, इतने महान दूत हो, यह मुझे मालूम न था। तुम यही विद्या सीखने यहां आये थे। तुम्हारे पांडित्य का यही फल है। तुम एक अबला को जिसने तुम्हारे ऊपर अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया, यों छल सकते हो। तुममें क्या मनुष्यता नाम को भी नहीं रह गयी? आखिर तुमने मेरे लिए क्या सोचा है? मैं सारी जिंदगी तुम्हारे नाम को रोती रहूं, लेकिन अभिमान हर बार उसके पैरों को रोक लेता। नहीं, जिसने उसके साथ ऐसा कपट किया है, उसका इतना अपमान किया है, उसके पास वह न जायेगी। वह उसे देखकर अपने आंसुओं को रोक सकेगी या नहीं, इसमें उसे संदेह था और केशव के सामने वह रोना नहीं चाहती थी। अगर केशव उससे घृणा करता है, तो वह भी केशव से घृणा करेगी। संध्या भी हो गयी, पर युवती न आयी। बत्तियां भी जली, पर उसका पता नहीं।

एकाएक उसे अपने कमरे के द्वार पर किसी के आने की आहट मालूम हुई। वह कूदकर बाहर निकल आयी। युवती कपड़ों का एक पुलिंदा लिये सामने खड़ी थी। सुभद्रा को देखते ही बोली – ‘क्षमा करना, मुझे आने में देर हो गयी। बात यह है कि केशव को किसी बड़े जरूरी काम से जर्मनी जाना है। वहां उन्हें एक महीने से ज्यादा लग जायेगा। वह चाहते हैं कि मैं भी उनके साथ चलूं। मुझसे उन्हें अपनी थीसिस लिखने में बड़ी सहायता मिलेगी। बर्लिन के पुस्तकालयों को छानना पड़ेगा। मैंने भी स्वीकार कर लिया है। केशव की इच्छा है कि जर्मनी जाने के पहले हमारा विवाह हो जाय। कल संध्या समय संस्कार हो जायेगा। अब ये कपड़े मुझे आप जर्मनी से लौटने पर दीजिएगा।’ विवाह के अवसर पर हम मामूली कपड़े पहन लेंगे। और क्या करती? इसके सिवा कोई उपाय न था, केशव का जर्मनी जाना अनिवार्य है।

सुभद्रा ने कपड़ों को मेज़ पर रखकर कहा – ‘आपको धोखा दिया गया है।’

युवती ने घबराकर पूछा – ‘धोखा? कैसा धोखा? मैं बिलकुल नहीं समझती। तुम्हारा मतलब क्या है?’

सुभद्रा ने संकोच के आवरण को हटाने की चेष्टा करते हुए कहा – ‘केशव तुम्हें धोखा देकर तुमसे विवाह करना चाहता है।’

‘केशव ने तुमसे अपने विषय में सब-कुछ कह दिया है।’

‘सब कुछ।’

‘कोई भी बात नहीं छिपाया।’

‘मेरा तो यही विचार है कि उन्होंने एक बात भी नहीं छिपाई।’

‘तुम्हें मालूम है कि उसका विवाह हो चुका है?’

युवती की मुख-ज्योति कुछ मलिन पड़ गयी, उसकी गर्दन लज्जा से झुक गयी। अटक-अटक कर बोली – ‘हां, उसने मुझसे. ..यह बात कही थी।’

सुभद्रा परास्त हो गयी। घृणा-सूचक नेत्रों से देखती हुई बोली – ‘यह जानते हुए भी तुम केशव से विवाह करने पर तैयार हो?’

युवती ने अभिमान से देखकर कहा – ‘तुमने केशव को देखा है?’

‘नहीं, मैंने उन्हें कभी नहीं देखा है।’