sohaag ka shav by Munshi Premchand
sohaag ka shav by Munshi Premchand

‘फिर, तुम उन्हें कैसे जानती हो?’

‘मेरे एक मित्र ने मुझसे यह बात कही है, यह केशव को जानता है।’

‘अगर तुम एक बार केशव को देख लेती, एक बार उससे बातें कर लेती, तो मुझसे यह प्रश्न न करती। एक नहीं, अगर उन्होंने एक सौ विवाह किये होते, तो मैं इनकार न करती। उन्हें देखकर मैं अपने को भूल जाती हूं। अगर उनसे विवाह न करूं, तो फिर मुझे जीवन भर अविवाहित ही रहना पड़ेगा। जिस समय वह मुझसे बातें करने लगते हैं, मुझे ऐसा अनुभव होता कि मेरी आत्मा पुष्प की भांति खिली जा रही है। मैं उसमें प्रकाश और विकास को प्रत्यक्ष अनुभव करती हूं। दुनिया चाहे जितना हंसे, चाहे जितनी निंदा करे, मैं केशव को अब नहीं छोड़ सकती। उनका विवाह हो चुका है, यह सत्य है, पर उस स्त्री से उनका मन कभी न मिला। यथार्थ में उनका विवाह अभी नहीं हुआ है। वह कोई साधारण, अर्द्धशिक्षित बालिका है। तुम्हीं सोचो, केशव जैसा विद्वान, उदारचेता, मनस्वी पुरुष ऐसी बालिका के साथ कैसे प्रसन्न रह सकता है? तुम्हें कल मेरे विवाह में चलना पड़ेगा।’

सुभद्रा का चेहरा तमतमाया जा रहा था। केशव ने उसे इतने काले रंगों में रंगा है, यह सोचकर उसका रक्त खौल रहा था। जी में आता था, इसी क्षण इसको दुत्कार दूं लेकिन उसके मन में कुछ और ही मंसूबे पैदा होने लगे थे। उसने गंभीर, पर उदासीनता के भाव से पूछा – ‘केशव ने उस स्त्री के विषय में नहीं कहा?’

युवती ने तत्परता से कहा, ‘घर पहुंचने पर वह उससे केवल यही कह देंगे कि हम और तुम अब स्त्री और पुरुष नहीं रह सकते। उसके भरण-पोषण का वह उसके इच्छानुसार प्रबंध कर देंगे, इसके सिवा वह और क्या कर सकते हैं। हिंदू-नीति में पति-पत्नी में विच्छेद नहीं हो सकता, पर केवल स्त्री को पूर्ण रीति से स्वाधीन कर देने के विचार से वह ईसाई या मुसलमान होने पर भी तैयार हैं। वह तो अभी उसे इसी आशय का एक पत्र लिखने जा रहे थे, पर मैंने ही रोक लिया। मुझे उस अभागिनी पर बड़ी दया आती है, मैं तो यहां तक तैयार हूं कि अगर उसकी इच्छा हो तो वह भी हमारे साथ रहे। मैं उसे अपनी बहन समझूंगी। किन्तु केशव इससे सहमत नहीं होते।’

सुभद्रा ने व्यंग्य से कहा – ‘रोटी कपड़ा देने को तैयार ही हैं, स्त्री को इसके सिवा और क्या चाहिए?’

युवती ने व्यंग्य की कुछ परवाह न करके कहा तो, ‘मुझे लौटने पर कपड़े तैयार मिलेंगे न?’ सुभद्रा – ‘हां, मिल जायेंगे।’

युवती – ‘कल तुम संध्या समय आओगी?’

सुभद्रा – ‘नहीं, खेद है, अवकाश नहीं है।’

युवती ने कुछ न कहा। चली गयी।

सुभद्रा कितनी चाहती थी कि इस समस्या पर शांतचित्त होकर विचार करे, पर हृदय में मानो ज्वाला-सी दहक रही थी। केशव के लिए वह अपने प्राणों का कोई मूल्य नहीं समझती थी। वही केशव उसे पैरों से ठुकरा रहा है। यह आघात इतना आकस्मिक, इतना कठोर था कि उसकी चेतना की सारी कोमलता मूर्च्छित हो गयी। उसका एक-एक अणु प्रतिकार के लिए तड़पते लगा। अगर यही समस्या इसके विपरीत होती, तो क्या सुभद्रा की गरदन पर छुरी न फिर गयी होती? केशव उसके खून का प्यासा न हो जाता? क्या पुरुष हो जाने से ही सभी बातें क्षम्य और स्त्री हो जाने से सभी बातें अक्षम्य हो जाती हैं? नहीं, इस निर्णय को सुभद्रा की विद्रोही आत्मा इस समय स्वीकार नहीं कर सकती। उसे नारियों के ऊंचे आदर्शों की परवाह नहीं है। उन स्त्रियों में आत्माभिमान न होगा? वे पुरुषों के पैरों की जूतियां बनकर रहने ही में अपना सौभाग्य समझती होगी। सुभद्रा इतनी आत्माभिमान-शून्य नहीं है। वह अपने जीते-जी यह नहीं देख सकती कि उसका पति उसके जीवन का सर्वनाश करके चैन की बंसी बजाये। दुनिया उसे हत्यारिन, पिशाचिनी कहेगी, कहे – उसको परवाह नहीं। रह-रहकर उसके मन में भयंकर प्रेरणा होती थी कि इसी समय उसके पास चली जाय और इसके पहले कि वह उस युवती के प्रेम का आनंद उठाये, उसके जीवन का अंत कर दे। यह केशव की निष्ठुरता को याद करके अपने मन को उत्तेजित करती थी। अपने को धिक्कार-धिक्कार कर नारी सुलभ शंकाओं को दूर करती थी। क्या वह इतनी दुर्बल है? क्या उसमें इतना साहस भी नहीं है? इस वक्त यदि कोई दुष्ट उसके कमरे में घुस आये और उसके सतीत्व की अपहरण करना चाहे, तो क्या वह उसका प्रतिकार न करेगी? आखिर आत्मरक्षा ही के लिए तो उसने यह पिस्तौल ले रखी है। केशव ने उसके सत्य का अपहरण ही तो किया है। उसका प्रेम-दर्शन केवल प्रवंचना थी। वह केवल अपनी वासनाओं की तृप्ति के लिए सुभद्रा के साथ प्रेम-स्वांग भरता था। फिर उसका वध करना क्या सुभद्रा का कर्तव्य नहीं?

इस अंतिम कल्पना से सुभद्रा को वह उत्तेजना मिल गयी, जो उसके भयंकर संकल्प को पूरा करने के लिए आवश्यक थी। यही वह अवस्था है जब स्त्री पुरुष के खून की प्यासी हो जाती है।

उसमें खूंटी पर लटकती हुई पिस्तौल उतार ली और ध्यान से देखने लगी, मानो उसे कभी देखा न हो। कल संध्या-समय जब आर्य-मंदिर में केशव और उसकी प्रेमिका एक-दूसरे के सम्मुख बैठे हुए होंगे, उसी समय वह इस गोली से केशव की प्रेम-लीलाओं का अंत कर देगी। दूसरी गोली अपनी छाती में मार लेगी। क्या वह रो-रोकर अपना अधम जीवन काटेगी?

संध्या का समय था। आर्य-मंदिर के आंगन में वर और वधू इष्ट-मित्रों के साथ बैठे हुए थे। विवाह का संस्कार हो रहा था। उसी समय सुभद्रा पहुंची और बरामदे में आकर एक खम्भे की आड़ में इस भांति खड़ी हो गयी कि केशव का मुंह उसके सामने था। उसकी आंखों में वह दृश्य खिंच गया, जब आज से तीन साल पहले उसने इसी भांति केशव को मंडप में बैठे हुए आड़ से देखा था। तब उसका हृदय कितना उत्तेजित हो रहा था। अंतस्तल में गुदगुदी-सी हो रही थी, कितना अपार अनुराग था, कितनी असीम अभिलाषाएं थी, मानो जीवन-प्रभात का उदय हो रहा हो। जीवन मधुर संगीत की भांति सुखद था, भविष्य उषा-स्वप्न की भांति सुन्दर। क्या यह वही केशव है? सुभद्रा को ऐसा भ्रम हुआ, मानो यह केशव नहीं है। हां, यह वह केशव नहीं था। यह उसी रूप और उसी नाम का कोई दूसरा मनुष्य था। अब उसकी मुस्कुराहट में, उसके नेत्रों में, उसे देखकर वह उसी भांति निस्पंद, निश्चल खड़ी है, मानो कोई अपरिचित व्यक्ति हो। अब तक केशव का-सा रूपवान, तेजस्वी सौम्य, शीलवान् पुरुष संसार में न था, पर अब सुभद्रा को ऐसा जान पड़ा कि वहां बैठे युवकों में और उसमें कोई अंतर नहीं है। वह ईर्ष्याग्नि, जिसमें वह जली जा रही थी, वह हिंसा-कल्पना, जो उसे वहां तक लायी थी, मानो एकदम शांत हो गयी। विरक्ति हिंसा से भी अधिक हिंसात्मक होती है – उसका केशव, उसका प्राण-वल्लभ, उसका जीवन-सर्वस्व और किसी का नहीं हो सकता। पर अब वह ममत्व नहीं है। वह उसका नहीं है, उसका नहीं है, उसे अब परवाह नहीं, उस पर किसका अधिकार होता है।

विवाह-संस्कार समाप्त हो गया, मित्रों ने बधाइयां दी, सहेलियों ने मंगल-गान किया, फिर लोग मेजों पर जा बैठे, दावत होने लगी, रात के बारह बज गये पर सुभद्रा वही पाषाण-मूर्ति की भांति खड़ी रही, मानो कोई विचित्र स्वप्न देख रही हो। हां, जैसे कोई बस्ती उजड़ गयी हो, जैसे कोई संगीत बंद हो गया हो, जैसे कोई दीपक बुझ गया है।

जब लोग मंदिर से निकले, तो वह भी निकल आयी, पर उसे कोई मार्ग न सूझता था। परिचित सड़कें उसे भूली हुई-सी जान पड़ने लगीं। सारा संसार ही बदल गया था। वह सारी रात सड़कों पर भटकती फिरी। घर का कहीं पता नहीं। सारी दुकानें बंद हो गयी, सड़कों पर सन्नाटा छा गया, फिर भी वह अपना घर ढूंढ़ती हुई चली जा रही थी। हाय! क्या इसी भांति उसे जीवन-पथ में भी अकेला भटकना पड़ेगा?

सहसा एक पुलिसवाले ने पुकारा – ‘मैडम, तुम कहां जा रही हो?’

सुभद्रा ने ठिठककर कहा – ‘कहीं नहीं।’

‘तुम्हारा स्थान कहां है?’

‘मेरा स्थान?’

‘हां, तुम्हारा स्थान कहां है? मैं तुम्हें बड़ी देर से इधर-उधर भटकते देख रहा हूं। किस स्ट्रीट में रहती हो?’

सुभद्रा को उस स्ट्रीट का नाम तक न याद था।

‘तुम्हें अपने स्ट्रीट का नाम तक याद नहीं?’

‘भूल गयी, याद नहीं आता।’

सहसा उसकी दृष्टि सामने के एक साइन बोर्ड की तरफ उठी, ओह! यही तो उसकी स्ट्रीट है। उसने सिर उठाकर इधर-उधर देखा। सामने ही उसका डेरा था। और इसी गली में अपने ही घर के सामने, न-जाने कितनी देर से वह चक्कर लगा रही थी।

अभी प्रातःकाल ही था कि युवती सुभद्रा के कमरे में पहुंची। वह उसके कपड़े सी रही थी। उसका सारा तन-मन कपड़ों में लगा हुआ था। कोई युवती इतनी एकाग्रचित्त होकर अपना श्रृंगार भी न करती होगी। न-जाने उससे कौन-सा पुरस्कार लेना चाहती थी। उसे युवती के आने की खबर न हुई।

युवती ने पूछा – ‘तुम कल मंदिर में नहीं आयी?’

सुभद्रा ने सिर उठाकर देखा, तो ऐसा जान पड़ा, मानो किसी कवि की कोमल कल्पना मूर्तिमयी हो गयी है। उसकी उप छवि अनिंद्य थी। प्रेम की विभूति रोम-रोम से प्रदर्शित हो रही थी। सुभद्रा दौड़कर उसके गले से लिपट गयी, जैसे उसकी छोटी बहन आ गयी हो, और बोली – ‘हां गयी तो थी।’

‘मैंने तुम्हें नहीं देखा।’

‘हां, मैं अलग थी।’

‘केशव को देखा?’

‘हां देखा।’

‘धीरे से क्यों बोली? मैंने कुछ झूठ कहा था?’

सुभद्रा ने सहृदयता से मुस्कुराकर कहा – ‘मैंने तुम्हारी आंखों से नहीं, अपनी आंखों से देखा। मुझे तो वह तुम्हारे योग्य नहीं जंचें। तुम्हें ठग लिया।’

युवती खिलखिलाकर हंसी और बोली – ‘वाह! मैं समझती हूं मैंने उन्हें ठगा है।’

सुभद्रा ने गम्भीर होकर कहा – ‘एक बार वस्त्राभूषणों से सज कर अपनी छवि आइने में देखो तो मालूम हो।’

‘तब क्या मैं कुछ और हो जाऊंगी।’

‘अपने कमरे से फर्श, तस्वीरें, हांड़ियां, गमले आदि निकालकर देख लो, कमरे की शोभा वही रहती है।’

युवती ने सिर हिलाकर कहा – ‘ठीक कहती हो। लेकिन आभूषण कहां से लाऊं। न जाने अभी कितने दिनों में बनने की नौबत आये।’

‘मैं तुम्हें अपने गहने पहना दूंगी।’

‘तुम्हारे पास गहने हैं ?’

‘बहुत। देखो, मैं अभी लाकर तुम्हें पहनती हूं।’

युवती ने मुंह से तो बहुत ‘नहीं-नहीं’ किया, पर मन में प्रसन्न हो रही थी। सुभद्रा ने अपने सारे गहने पहना दिये। अपने पास एक छल्ला भी न रखा। युवती को यह नया अनुभव था। उसे इस रूप में निकलते शर्म तो आती थी, पर उसका रूप चमक उठ था। इसमें संदेह न था। उसने आईने में अपनी सूरत देखी तो उसकी सूरत जगमगा उठी, मानो किसी वियोगिनी को अपने प्रियतम का संवाद मिला हो। मन में गुदगुदी होने लगी। वह इतनी रूपवती है, उसे उसकी कल्पना भी न थी।

कहीं केशव इस रूप में उसे देख लेते, यह आकांक्षा उसके मन में उदय हुई, पर कहे कैसे। कुछ देर के बाद लज्जा से सिर झुकाकर बोली – ‘केशव मुझे इस रूप में देखकर बहुत हंसेगे। सुभद्रा हंसेगे नहीं, बलैया लेंगे, आंखें खुल जायेंगी। तुम आज इसी रूप में उनके पास जाना।’

युवती ने चकित होकर कहा – ‘सच! आप इसकी अनुमति देती हैं।’

सुभद्रा ने कहा – ‘बड़े हर्ष से।’

‘तुम्हें संदेह न होगा?’

‘बिलकुल नहीं।’

‘और जो मैं दो-चार दिन पहने रहूं।’

‘तुम दो-चार महीने पहने रही। आखिर, यहां पड़े ही तो हैं।’

‘तुम भी मेरे साथ चलो।’

‘नहीं, मुझे अवकाश नहीं है।’

‘अच्छा, लो मेरे घर का पता नोट कर लो।’

‘हां, लिख दो शायद कभी आऊं।’

एक क्षण में युवती यहां से चली गयी। सुभद्रा अपनी खिड़की पर उसे इस भांति प्रसन्न-मुख देख रही थी, मानो उसकी छोटी बहन हो, ईर्ष्या या द्वेष का लेश भी उसके मन में न था।

मुश्किल से, एक घंटा गुजरा होगा कि युवती लौटकर बोली – ‘सुभद्रा क्षमा करना, मैं तुम्हारा समय बहुत खराब कर रही हूं। केशव बाहर खड़े हैं। बुला लूं?’