दूसरे दिन प्रेमा ने केशव के नाम यह पत्र लिखा:-
‘प्रिय केशव!’
‘तुम्हारे पूज्य पिताजी ने लालाजी के साथ जो अशिष्ट और अपमानजनक व्यवहार किया है, उसका हाल सुनकर मेरे मन में बड़ी शंका उत्पन्न हो रही है। शायद उन्होंने तुम्हें भी डाँट-फटकार बतायी होगी। ऐसी दशा में मैं तुम्हारा निश्चय सुनने के लिए विकल हो रही हूँ। मैं तुम्हारे साथ हर तरह का कष्ट झेलने को तैयार हूँ। मुझे तुम्हारे पिताजी की सम्पत्ति का मोह नहीं है, मैं तो केवल तुम्हारा प्रेम चाहती हूँ, और उसी में प्रसन्न हूँ। आज शाम को यही आकर भोजन करो। दादा और माँ, दोनों तुमसे मिलने के लिए बहुत इच्छुक हैं। मैं वह स्वप्न देखने में मग्न हूँ, जब हम दोनों उस सूत्र में बँध जायेंगे, जो टूटना नहीं जानता; जो बड़ी-से-बड़ी आपत्ति में भी अटूट रहता है।’
तुम्हारी,
प्रेमा।
संध्या हो गयी और इस पत्र का कोई जवाब न आया। उसकी माता बार-बार पूछती थी-केशव आये नहीं? बूढ़े लाला भी द्वार की ओर आँखें लगाये बैठे थे। यहाँ तक कि रात के नौ बज गये; पर न तो केशव ही आये, न उनका पत्र।
प्रेमा के मन में भाँति-भाँति के संकल्प-विकल्प उठ रहे थे; कदाचित् उन्हें पत्र लिखने का अवकाश न मिला होगा, या आज आने की फुरसत न मिली होगी, कल अवश्य आ जायेंगे। केशव ने पहले उसके पास जो प्रेम-पत्र लिखे थे, उन सबको उसने फिर पढ़ा। उनके एक-एक शब्द से कितना अनुराग टपक रहा था, उनमें कितना कम्पन था, कितनी विकलता, कितनी तीव्र आकाँक्षा! फिर उसे केशव के वे वाक्य याद आये, जो उसने सैकड़ों ही बार कहे थे। कितनी बार वह उसके सामने रोया था। इतने प्रमाणों के होते हुए निराशा के लिए कहाँ स्थान था; मगर फिर भी सारी रात उसका मन जैसे सूली पर टँगा रहा।
प्रात:काल केशव का जवाब आया। प्रेमा ने काँपते हुए हाथों से पत्र लेकर पढ़ा। पत्र हाथ से गिर गया। ऐसा जान पड़ा, मानो उसके देह का रक्त स्थिर हो गया हो, लिखा था:
‘मैं बड़े संकट में हूँ कि तुम्हें क्या जवाब दूँ! मैंने इधर इस समस्या पर ख़ूब ठंडे दिल से विचार किया है और इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि वर्तमान दशाओं में मेरे लिए पिता की आज्ञा की उपेक्षा करना दु:सह है। मुझे कायर न समझना। मैं स्वार्थी भी नहीं हूँ; लेकिन मेरे सामने जो बाधाएँ हैं, उन पर विजय पाने की शक्ति मुझमें नहीं है। पुरानी बातों को भूल जाओ। उस समय मैंने इन बाधाओं की कल्पना न की थी!’
प्रेमा ने एक लम्बी, गहरी, जलती हुई साँस खींची और उस ख़त को फाड़कर फेंक दिया। उसकी आँखों से, अश्रुधार बहने लगी। जिस केशव को उसने अपने अंत:करण से वर मान लिया था, वह इतना निष्ठुर हो जायेगा, इसकी उसकी रत्ती-भर भी आशा न थी। ऐसा मालूम पड़ा, मानो अब तक वह कोई सुनहरा स्वप्न देख रही थी; पर आँखें खुलने पर सब कुछ अदृश्य हो गया। जीवन में जब आशा ही लुप्त हो गयी, तो अब अंधकार के सिवा और क्या रहा! अपने हृदय की सारी सम्पत्ति लगाकर उसने एक नाव लदवायी थी, वह नाव जलमग्न हो गयी। अब दूसरी नाव कहाँ से लदवाये; अगर वह नाव डूबी है, तो उसके साथ ही वह भी डूब जायेगी।
माता ने पूछा- क्या केशव का पत्र है?
प्रेमा ने भूमि की ओर ताकते हुए कहा-हाँ, उनकी तबीयत अच्छी नहीं है। इसके सिवा वह और क्या कहें? केशव की निष्ठुरता और बेवफ़ाई का समाचार कहकर लज्जित होने का साहस उसमे न था।
दिन भर वह घर के काम-धंधों में लगी रही, मानो उसे कोई चिन्ता ही नहीं है। रात को उसने सबको भोजन कराया, ख़ुद भी भोजन किया और बड़ी देर तक हारमोनियम पर गाती रही।
मगर सवेरा हुआ, तो उसके कमरे में उसकी लाश पड़ी हुई थी। प्रभात की सुनहरी किरणों उसके पीले मुख को जीवन की आभा प्रदान कर रही थीं!
