apni apni karni ,hitopadesh ki kahani
apni apni karni ,hitopadesh ki kahani

Hitopadesh ki Kahani : कंचनपुर नगर में वीर विक्रम नाम का राजा राज करता था। उसके राज में किसी अपराध पर एक नाई को मृत्युदंड हो गया और जब राज्य कर्मचारी उसको लेकर जा रहे थे तो कंदर्पकेतु नामक संन्यासी ने अपने एक अन्य साथी के सहयोग से उसको छुड़ा लिया ।

राज्य कर्मचारी को क्रोध आ गया। उसने पूछा, “संन्यासी होकर यह आप क्या कर रहे हैं ?”

सन्यासी बोला- यह वध के योग्य नहीं है।

“क्यों ?”

“सुनो, मैं तुम्हें सारी कहानी सुनाता हूं।” “सुनाओ।”

सिंहलद्वीप का नाम तो तुमने सुना ही होगा। वहां के राजा जीमूतकेतु हैं और मैं उनका पुत्र कंदर्पकेतु हूं। एक समय की बात है कि मैं अपने विहार उद्यान में बैठा हुआ था। उसी समय एक जहाजी व्यवसायी के मुख से मैंने सुना कि “इस समुद्र के बीच में चतुर्दशी को उत्पन्न होने वाले कल्पवृक्ष के नीचे रत्नों की किरण से रंग-बिरंगे बिछौने पर बैठी सब प्रकार के आभूषणों से आभूषित वीणा बजाती हुई एक लड़की दिखाई देती है । उसका रूप साक्षात् लक्ष्मी के समान है ।”

यह सुन कर मैंने उस व्यवसायी को अपने साथ लिया और उसी के जहाज में आरूढ़ होकर हम उस स्थान पर पहुंचे जहां कि उसने ऐसा देखा था। वहां जाकर मैंने चतुर्दशी के दिन देखा कि सचमुच में वैसी कन्या वहां थी । उस समय वह अपने बिछौने पर आधी लेटी हुई थी। उसके सौन्दर्य से आकृष्ट होकर मैं उस समुद्र में कूद गया ।

समुद्र में कूदते ही मैं एक स्वर्णिम महल में पहुंच गया। वहां भी मैंने उस कन्या को देखा। उस समय स्वर्ग की अप्सराएं उसकी सेवा कर रही थीं। मैं उसकी ओर गया। उसने मुझे दूर से ही देखा तो अपनी सखियों को विदा कर दिया।

वह मेरे साथ वार्त्तालाप करने लगी। बाद में मैंने उसकी सखियों से उसके विषय में जानना चाहा तो उन्होंने बताया कि वह विद्याधरों के राजा कन्दर्पकेलि की कन्या है। उसका नाम रत्न मंजरी है।

सखी ने बताया कि रत्न मंजरी की यह प्रतिज्ञा है कि जो व्यक्ति यहां आकर इस कंचनपुरी को अपनी आंखों से देख लेगा, उसे उसके पिता ने देखा हो अथवा नहीं किन्तु वह उसके साथ विवाह कर लेगा ।

सखी ने मुझे सुझाव दिया कि मैं उसके साथ गान्धर्व विवाह कर लूं। बस हम दोनों का गान्धर्व विवाह हो गया और मैं उस दिन से उसके पास ही रहता हुआ विहार करने लगा। एक दिन मेरी प्रियतमा बोली, “स्वामिन्! आप अपनी इच्छानुसार यहां की विभूतियों का उपभोग कीजिये । यह सब आपका ही है । किन्तु यह जो चित्रलिखित स्वर्णरेखा विद्याधरी है, कभी भूल से भी इसका स्पर्श मत करना।”

उसके ऐसा कहने पर मेरे मन में उस चित्रलिखित विद्याधरी के विषय में कौतूहल जगने लगा। मैं जानना चाहता था कि उसका स्पर्श करने से क्या होता है। एक दिन अवसर मिलते ही मैंने उसका स्पर्श कर ही लिया ।

तत्क्षण उस चित्रलिखित विद्याधरी ने मुझे ऐसी जोर की लात मारी कि मैं वहां से अपने राज्य में आकर गिर गया। इस घटना से खिन्न और दुखी होकर मैंने संन्यास ले लिया ।

तब मैं पृथिवी का भ्रमण करता हुआ इस नगरी में आया। एक दिन रात को मैं एक ग्वाले के घर पर सोया । ग्वाला अपने मित्रों से मिल-जुलकर रात को देर से घर लौटा। उस समय उसने अपनी पत्नी को किसी कुटनी से बातचीत करते हुए देख लिया ।

ग्वाला इसके रुष्ट हो गया। उसने क्रोध में अपनी पत्नी को पीटा और फिर उसको खम्भे से बांध दिया। यह सब करके वह स्वयं सो गया ।

कुछ रात बीतने पर इस नाई की कुटनी पत्नी उस ग्वालिन के पास आई। उसने उसको कहा कि उसका प्रेमी तो उसके विरह में जलकर भस्म हुआ जा रहा है। रात्रि के समय जब चन्द्रदेव उदय होकर अन्धकार को दूर कर देते हैं तो उस समय कामदेव देख-देख कर युवा पुरुषों के मनों को मारने लगता है।

नाइन कहने लगी कि उसे देख कर मुझे बड़ा दुख हुआ है, इस लिए मैं तुम्हें एक बार फिर मनाने के लिए आई हूं ।

ग्वालिन बोली, “किन्तु मैं किस प्रकार जा सकती हूं। मैं तो खम्भे से बंधी हूं।” नाइन ने मार्ग बताते हुए कहा, “मैं यहां तुम्हारे स्थान पर बंध जाती हूं। तुम जाओ और अपने प्रेमी को तृप्त करके तुरन्त लौट आओ।”

उन दोनों ने ऐसा ही किया। ग्वालिन चली गई और नाइन बंध गई तो उसके कुछ देर बाद ग्वाले की नींद खुली। उसने क्रोध में कहा, “चल, मैं तुझे तेरे प्रेमी के पास ले चलता हूं।”

नाइन क्या बोलती । यदि वह बोलती तो चोरी पकड़ी जाती। इसलिए वह चुप रही । उसके न बोलने पर ग्वाले को अधिक क्रोध चढ़ गया। कहने लगा, “इतना घमंड हो गया है कि अब उत्तर भी नहीं देती ?”

नाइन फिर भी नहीं बोली।

ग्वाले को क्रोध आया तो पास में रखी कैंची ही उसके हाथ लगी और उसने उससे अपनी पत्नी रूपी नाइन की नाक ही काट डाली। उसके बाद वह फिर सो गया ।

अपने समय पर ग्वालिन अपने प्रेमी को सन्तुष्ट करके लौट आई। उसने नाइन से पूछा, “कहो क्या हाल रहा?”

नाइन बोली, “कुछ न पूछो। मेरे मुख पर देखो। मेरी तो नाक ही काट डाली है।” ग्वालिन ने नाइन को खोला और नाइन ने ग्वालिन को फिर उसी भांति खम्भे से बांध दिया। उसके बाद नाइन अपनी कटी नाक लेकर वहां से अपने घर चली गई।

प्रातः काल जब उस नाई ने अपने काम पर जाने के लिए अपनी पत्नी से हजामत करने के उपकरण देने के लिए कहा तो उसने केवल एक छुरा उसकी ओर फेंक दिया। नाई ने अपनी पेटी में केवल एक ही उस्तरा देखा तो उसको क्रोध आ गया और इसने वह उस्तरा भीतर की ओर फेंक दिया। बस, नाइन को बहाना मिल गया। उसने चिल्लाना आरम्भ किया कि उसके पति ने उसकी नाक काट दी है। इस प्रकार वह इसे न्यायालय में ले आई।

उधर जब प्रातः काल होने पर ग्वाले ने नींद से उठकर अपनी पत्नी से उसकी कटी नाक के विषय में पूछा तो उसकी कुलटा पत्नी उससे बोली, “अरे नीच ! पापी कलंकी ! भला इस संसार में है कोई ऐसा पुरुष जो मुझ जैसी सती-साध्वी को कुरूप कर सके? सारे लोकपाल मेरे पवित्र आचरण को जानते हैं।

“क्योंकि सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि, आकाश, पृथ्वी, जल, हृदय, यमराज, रात्रि, दिन, प्रातः सांय और धर्म ये सब मनुष्य के भले-बुरे व्यवहार को जानते हैं।

मैं परम सती हूं। कभी स्वप्न में भी मैंने कभी परपुरूष का ध्यान मन में नहीं किया तभी तो मेरी कटी हुई नाक अपने स्थान पर जुड़ गई है।

“मैं अपने तपो बल से तुम्हें भस्म कर सकती हूं किन्तु तुम मेरे पति हो इसलिए भी और कुछ लोकलज्जा के कारण भी मैं तुमको आज छोड़ रही हूं।

“अब तुम जरा उठकर मेरे मुख की ओर तो देखो। “

यह सुनकर ग्वाला उठा और उसने जो अपनी पत्नी का मुख देखा और उसकी नाक को यथास्थान पाया तो वह उसके पैरों पर गिरकर गिड़गिड़ाने लगा, “मैं तो धन्य हूं। जो मुझे ऐसी परम साध्वी पत्नी प्राप्त हुई है । “

अब तुम इसका भी वृत्तान्त सुनो जो यह मेरे साथ साधु है ।

यह अपने घर से भाग गया। बारह वर्ष तक यह मलयपर्वत पर रहा और उसके बाद अब इस नगरी में आया है। एक दिन यह यहां की किसी वेश्या के घर पर जाकर सो गया। उस वेश्या के दरवाजे पर काष्ठ से बने बेताल के सिर पर एक मूल्यवान् रत्न जड़ा हुआ था।

रत्न देखकर इसको लोभ हुआ और रात्रि के समय इसने उसको निकालने की चेष्टा की। ज्यों ही इसने उसका स्पर्श किया कि तत्काल उस पर छिपा बेताल इसको पकड़कर जोर से चिपट गया। उसके चिपटने पर यह डर गया और जोर-जोर से चिल्लाने लगा।

इसका चिल्लाना सुनकर वह वेश्या उठकर आई कि यह क्यों चिल्ला रहा है। उसने जब देखा तो कहा, “बेटा! तुम मलयपर्वत से आये हो? तुम्हारे पास जितने भी रत्न हों, सब इसको दे दो । यदि नहीं दोगे तो यह तुमको छोड़ेगा ही नहीं। यह धूर्त तो सबके साथ ऐसा ही करता है।”

इसके पास उस बेताल से छूटने का अन्य कोई साधन तो था नहीं । अन्त में जब इसने अपना सर्वस्व उसको अर्पण किया तो इसकी मुक्ति हुई। वहां से यह हममें आकर मिल गया। दमनक बोला, “यह सारी कहानी सुनकर राज्य कर्मचारियों ने नाई का मृत्यु दंड रोक दिया और पुनः इस अभियोग को न्यायालय के सम्मुख उपस्थित किया गया।

“न्यायालय ने अभियोग को सुना और कन्दर्पकेतु की साक्षी की जांच करवाई गई। जब न्यायलय को विश्वास हो गया कि कन्दर्पकेतु का कथन यथार्थ है तो उन्होंने नाई को अभियोग मुक्त कर दिया । नाइन और ग्वालिन को निष्कासन का दंड दिया गया।

“इसलिए भाई, मैं कहता हूं कि यह हमारा अपना किया अपराध है। हमने ही तो संजीवक और पिंगलक की मित्रता करायी थी। अब इस पर विलाप करना उचित नहीं ।

“अब तो यही हो सकता है कि जिस प्रकार मैंने सिंह और बैल की मित्रता कराई थी उसी प्रकार इनमें परस्पर वैमनस्य भी मैं ही कराऊंगा।

“कहा भी गया है कि नीति कुशल पुरुष असत्य को भी बड़ी चतुराई से साथ सत्य सिद्ध कर दिया करते हैं । जिस प्रकार चित्रकार चित्र की समभूमि को ऊंची-नीची करके दिखा देता है, यह इसी प्रकार है।

” और भी कहा गया है कि संकट का समय आ जाने पर भी जिसकी बुद्धि भ्रष्ट नहीं होती वह कठिनाइयों को उसी भांति पार कर लेता है जैसे एक गोपी ने अपने प्रेमियों को बचा लिया था ।

करटक ने पूछा, ” वह किस प्रकार ?”

दमनक बोला, “सुनाता हूं, सुनिए । “