sanyasi ki chinta , hitopadesh ki kahani
sanyasi ki chinta , hitopadesh ki kahani

Hitopadesh ki Kahani : चम्पक नाम की एक नगरी में संन्यासियों का एक मठ था। उस मठ में चूड़ाकर्ण नाम का एक संन्यासी रहा करता था । भिक्षा में प्राप्त जो बचा हुआ भोजन होता था उसको वह एक पात्र में रखकर खूंटी पर टांग दिया करता था। मुझे जब उस स्थान का पता चला तो मैं नित्य वहां जाकर कूदकर उस अन्न को खा लिया करता था। इससे उसको कष्ट होने लगा। उसने मुझे भगाने के लिए एक बांस की लठिया का प्रबन्ध किया ।

कुछ दिनों बाद उसका परम मित्र वीणाकर्ण नाम का एक अन्य संन्यासी उससे मिलने के लिए आया। रात्रि को भोजन समाप्त कर शेष भोजन को उसी प्रकार पात्र में रख उसने टांग दिया और उसके नीचे आसन लगाकर दोनों संन्यासी वहां पर लेट गये। दोनों मित्र परस्पर बात करते रहे। समय-समय पर चूड़ाकर्ण उस बांस की लाठी को दीवार पर खटखटा दिया करता था ।

यह सुनकर वीणाकर्ण ने पूछा, “मित्र ! तुम मेरी बातों में रुचि न लेकर बीच-बीच में यह क्या किया करते हो?”

” नहीं मित्र ! ऐसी बात नहीं है। मैं आपकी बात ध्यानपूर्वक सुन रहा हूं । किन्तु इस अपकारी चूहे को तो देखो, मेरा एकत्रित किया हुआ भिक्षान्न चट कर जाता है । “

वीणाकर्ण उठा और उसने खूंटी पर टंगे पात्र को देखा। फिर कहने लगा, “चूहे में ‘तो बहुत कम बल होता है किन्तु यह इतनी ऊंचाई पर किस प्रकार कूद जाया करता है? अवश्य इसमें कोई भेद है।

“जब कोई यह कहे कि अकस्मात् कोई युवती अपने वृद्ध पति के केश पकड़ कर उसे चूमने लगे और बड़ी निर्दयता से उसका आलिंगन करे तो समझना चाहिए कि अवश्य ही उसमें कोई हेतु है । “

चूड़ाकर्ण ने पूछा, “वह किस प्रकार ?” वीणाकर्ण ने कहा, “सुनाता हूं, सुनो।”