boodhe sarp kee chaturaee ,hitopadesh ki kahani
boodhe sarp kee chaturaee ,hitopadesh ki kahani

Hitopadesh ki Kahani : किसी उजाड़ उद्यान में मन्दविष नाम का एक सर्प रहा करता था । विष तो उसमें पहले ही नहीं था और फिर वृद्ध हो जाने के कारण वह अपने लिए आहार का प्रबन्ध भी नहीं कर पाता था ।

किसी प्रकार मन्दविष सरकता हुआ एक दिन एक तालाब के किनारे जा पड़ा। बहुत देर तक वह उसके किनारे पर पड़ा रहा तो उसको इस प्रकार पड़े देखकर उस सरोवर में रहने वाले एक मेढक ने उससे पूछा, “मामा ! तुम अपना आहार क्यों नहीं खोजते ? दिन-भर यों ही क्यों पड़े रहते हो?”

सर्प ने एक प्रकार से उसकी उपेक्षा सी करते हुए कहा, “भाई 1 तुम क्यों मुझ अभागे को व्यर्थ में परेशान कर रहे हो? जाओ अपना आहार खोजो ।”

यह सुनकर तो मेढक के मन में उत्सुकता हुई कि आखिर यह सर्प ऐसा क्यों कर रहा है। उसने सांप से कहा, “भला ऐसी क्या बात है कुछ हमें भी तो बताओ।”

उसकी बात सुनकर सर्प बोला, “बात यह है कि समीप ही ब्रह्मपुर है। वहां कौण्डिन्य नामक एक ब्राह्मण रहते हैं। उनका एक बीस वर्षीय होनहार पुत्र था । न जाने मेरा क्या दुर्भाग्य था कि एक दिन मैंने उसको दंश मार दिया।

“अपने पुत्र को मृत देखकर ब्राह्मण देवता को मूर्छा आ गई। उसके दुख की बात सुनकर सारें ग्रामवासी उसके घर पर एकत्रित हो गये। सब लोग उसको भांति-भांति से सान्त्वना देने लगे।

” जैसा कि गीता में कहा गया है, जो आया है वह एक दिन जायेगा भी। कोई जल्दी चला जाता है, कोई कुछ दिन रुक जाता है । जाते सब ही हैं। शरीर क्षणभंगुर है । जिस प्रकार लकड़ी के दो टुकड़े बहते हुए आकर मिल जाते हैं ठीक उसी प्रकार सांसारिक प्राणी का भी मिलन होता है।

“यह संसार तो प्राणियों के लिए एक प्रकार की विश्राम स्थली है। पंचतत्व से निर्मित यह काया एक दिन उसी में विलीन हो जाती है। जिस प्रकार नदियों का प्रवाह निरन्तर आगे को ही जाता है उसी प्रकार ये दिन और रात मनुष्य की आयु को आगे की ओर ले जाते हैं।

“कहावत है कि मनुष्य जिस प्रथम रात्रि को अपने माता के गर्भ में प्रविष्ट होता है उसी समय से वह अबाध गति से प्रतिदिन मृत्यु की ओर अग्रसर होता रहता है।

“अतएव संसार की ओर देखो। यह संसार तो एक झमेला ही है। अपने मन को सान्त्वना देकर शोक करना त्याग दो।”

कपिल की बात सुनकर कोण्डिन्य मानो सोते से जाग पड़ा हो। वह उठ बैठा और बोला, “तब तो इस गृह रूपी नरक में निवास करना भी व्यर्थ ही है । अब मैं वन को जाता हूं।”

यह सुनकर पुनः कपिल ने कहा, “वन में भी जो विषयी होता है उसके मन में बुरे विचार उत्पन्न होते ही रहते हैं। जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को वश में रख सकता है उसके लिए घर और वन में कोई अन्तर नहीं है। वह घर में रहता हुआ भी तपस्या कर सकता है। सज्जन और निरासक्त व्यक्ति के लिए घर और वन में कोई अन्तर नहीं है। “संन्यासी बनकर ही धर्म का आचरण हो सकता है अन्यथा नहीं, ऐसी धारणा उचित नहीं। किसी भी आश्रम में रहते हुए मनुष्य धर्म का आचरण कर सकता है।

“आत्मा एक पवित्र नदी के रूप में है। संगम और पुण्य उसके तीर्थ हैं। उस में सत्यरूपी जल भरा हुआ है, शील उसका घाट है, दया उसकी तरंग है। उस आत्मारूपी नदी में स्नान कर मनुष्य पार लंग जाता है।

“वास्तव में तो संसार में जो कुछ है वह दुख ही दुख है। जब मनुष्य दुख से पीड़ित होकर प्राणियों का दुख दूर करने में लग जाता है, तब दुख ही सुख कहलाने लगता है।

कौण्डिन्य कहने लगा, “तुम्हारा कहना तो ठीक है । “

इसके उपरान्त उसने वन में जाने का विचार त्याग दिया । किन्तु मुझ पर उसका क्रोध शान्त नहीं हुआ। उसने उसी समय मुझे शाप दिया “जाओ, आज से तुम मेढक की सवारी बनकर रहोगे।”

उसके शाप की बात सुनकर कपिल ने उससे कहा, “इस समय तुम उपदेश की बात नहीं सुन सकोगे। क्योंकि तुम्हारे मन में शोक समाया है। फिर भी मैं अपना कर्तव्य समझकर तुमको जो करणीय है उस विषय में बताता हूं।”

“जहां तक सम्भव हो संग का परित्याग कर दो। यदि ऐसा न कर सको और संग करना ही हो तो सज्जनों का संग करो। क्योंकि सत्संग महान् औषधि मानी गयी है ।

“काम वासना को सर्वथा त्याग दो। अन्य भी इस प्रकार की जो इच्छाएं है उनका परित्याग कर दो। कामना दुख की जननी है। “

कपिल के इस प्रकार के उपदेश रूपी अमृत के वचनों को सुन कर कौण्डिन्य ने अपने मन को शान्त किया और फिर यथावसर योग्य गुरू से विधिवत् संन्यास की दीक्षा ले ली ।

“उसी ब्राह्मण के शाप से मेढकों को सवारी ढोने के लिए मैं यहां आ गया हूं। अन्यथा इस ठंडे सरोवर के निकट मेरा क्या काम ? “

मेढक ने जब यह सुना तो उसको बड़ा आनन्द आया। उसने अपने राजा जालपाद नाक मेढक को जाकर यह सारी बात बताई। जालपाद ने जब सुना तो उसको बड़ा कौतुहल हुआ । यह स्वयं सर्प के समीप आकर उससे इस विषय में पूछने लगा। सांप ने उसे विश्वास में लेते हुए कहा, “तुम्हें किसी प्रकार का सन्देह नहीं होना चाहिए। चाहो तो इसी समय तुम इसका परीक्षण कर सकते हो ।”

इतना सुनना था कि जालपाद फुदककर उसकी पीठ पर चढ़ गया ।

सांप ने बात बनती जान सन्तोष का सांस लिया। जालपाद को लेकर वह उस तालाब के किनारे-किनारे उसको घुमा लाया और फिर उसी स्थान पर लाकर छोड़ दिया।

सांप की गुदगुदी पीठ पर बैठने का जालपाद को चस्का सा लग गया। वह दूसरे दिन भी उसकी पीठ पर आकर बैठ गया। सांप उस दिन भी उसको लेकर इधर-उधर घूमता रहा किन्तु उसकी चाल बहुत मन्द थी । जालपाद को इससे किसी प्रकार का आनन्द नहीं आ रहा था।

मेढक ने उससे कहा, “आज आप धीरे-धीरे क्यों चल रहे हैं?”

सर्प बोला, “महाराज ! भोजन न मिलने के कारण मैं असमर्थ हो गया हूं।” मेढकों का राजा बोला, “अपने भोजन के लिए तुम नित्य एक-दो मेढक खा लिया करो । यह मेरी आज्ञा है ।”

“महाराज! आपकी आज्ञा शिरोधार्य है । “

फिर क्या था ? महाराज की आज्ञा मिलने पर वह एक-एक कर उस तालाब के सारे मेढकों को चट कर गया ।

सारा सरोवर जब मेढकों से खाली हो गया तो एक दिन सर्प ने जालपाद के कहा, “मेरे भोजन के लिए अब तो कोई भी मेंढक नहीं बचा है।”

“तब तुम अपने लिए कोई अन्य स्थान देख लो।” बड़ी रुखाई से जालपाद ने उत्तर दिया ।

सर्प बोला, “जी हां। आप ठीक ही कहते हैं । किन्तु आज का भोजन तो मुझे यहीं करना है ।”

यह कहकर सर्प ने उस मेढक को अपनी पीठ पर से धरती पर पटका और फिर निगल लिया ।

“महाराज! इसी से मैं कहता हूं कि अपना कार्य सिद्ध करने के लिए यदि शत्रु को कन्धे पर भी बैठाना पड़ जाये तो कोई हानि नहीं है।

“अब बीती बात को दोहराने से कोई लाभ नहीं। मैं समझता हूं कि हिरण्यगर्भ सब भांति से सन्धि करने के योग्य हैं। अतः उसके साथ सन्धि कर लेनी चाहिये। मेरी तो यही सम्मति है । “

यह सुन कर राजा कहने लगा, “यह आप कैसी बातें कर रहे हैं। मैंने उस पर विजय प्राप्त की है। इसलिए यदि वह मेरा सेवक बनकर रहना चाहे तो रह सकता है अन्यथा मेरे साथ युद्ध करे ।”

उसी समय जम्बूद्वीप से शुक आया और कहने लगा, “महाराज! सिंहलद्वीप के राजा सारस ने हमारे द्वीप पर आक्रमण कर दिया है।”

“क्या ?” राजा ने आश्चर्य से पूछा ।

तोते ने अपनी बात को दोहरा दिया।

गीध मन ही मन कहने लगा, “वाह मन्त्री चक्रवाक्, वाह ! क्या निराली चाल चली है तुमने । “

राजा ने जब यह सुना तो उसने कहा, “अच्छा अब हिरण्यगर्भ की बात तो छोड़ो, मैं पहले जा कर उस सारस को ही समूल नष्ट करता हूं।”

यह सुन कर उसके मन्त्री ने हंस कर कहा, “महाराज ! शरत्कालीन मेघ की भांति व्यर्थ गरजना उचित नहीं है। बड़े लोग शत्रु के अर्थ या अनर्थ की बात अपनी जिव्हा पर नहीं लाते ।

” और भी कहा गया है कि राजा को चाहिये कि एक ही समय में अनेक आक्रमणकारियों के साथ युद्ध न करे। क्यों कि एक साथ मिल कर बहुत सारे कीड़े भी बलवान सर्प को मार डालते हैं।

“देव ! क्या आप बिना सन्धि किये ही यहां से जाना चाहते हैं? यदि हम इस प्रकार चले गए तो यह फिर हम पर कोप करेगा

“जो अर्थ का तत्व समझे बिना क्रोध के वशीभूत हो जाता है उसे उसी प्रकार दुखी होना पड़ता है जैसे वह ब्राह्मण नेवेले को मार कर दुखी हुआ था ।”

राजा ने पूछा, “वह किस प्रकार ?”

मन्त्री बोला, “सुनाता हूं महाराज ! सुनिये।”