लॉकडाउन में फैक्ट्री बंद तो थी ही। परिवार के सभी लोग घर में साथ बैठते तो थे किन्तु चिंता की लकीरें सबके चेहरे पर होती थीं, फैक्ट्री नुकसान में जो जा रही थी।
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बूढ़ा बच्चा – गृहलक्ष्मी लघुकथा
पुत्र की पुत्रवधु ने बीमार पड़े दादा जी को दूध में ओट्स बनाकर दिया। उन्होंने ओट्स के पूरे कटोरे को खाली कर दिया, तो बहू ने बिस्तर के पास दीवार में ठुकी कील पर लटकते हैंड-टावल से उनका मुंह पोंछा। फिर बोली, ‘दादा जी… अब लेट जाओ… आपका दोपहर का भोजन हो गया है।’
समझौता – गृहलक्ष्मी लघुकथा
पड़ोसी चन्दा के आँगन में खेल रहे बच्चों के शोर को देख उसके चेहरे पर कई दिनों बाद हल्की सी मुस्कुराहट आई और बच्चों को अपने बरामदे से बैठे – बैठे निहारने लगी। कुछ समय पहले की ही बात है जब इन्हीं बच्चों के साथ उसका जग्गू भी खेलता था।
तोहफा – गृहलक्ष्मी लघुकथा
शादी के पच्चीस साल बाद उसने नफ़ासत के साथ पति से कहा-‘स्वीट हार्ट! इन पच्चीस सालों में हम दोनों ने एक-दूसरे को शिद्दत से प्यार किया और दिया। आज एक काम करते हैं, कुछ ऐसा एक-दूसरे से शेयर करते हैं, जो हमने आपस में छिपाया हो, मेरा मतलब एक-दूसरे के सामने कन्फेस। लेकिन शर्त ये है कि कोई भी किसी तरह का गिला-शिकवा नहीं करेगा।
शादी के बाद मेकअप करना
बात उन दिनों की है जब मेरी उम्र 6 साल की थी। उस समय मुझे मेकअप करने का बहुत शौक होता था। अक्सर मम्मी की लिपस्टिक, काजल यहां तक की सिंदूर भी लगा देती थी। मम्मी से बहुत डांट पड़ती, अक्सर मम्मी मुझे समझाने के लिए यह कहती हैं की शादीशुदा औरतें मेकअप करती हैं। […]
शक – गृहलक्ष्मी लघुकथा
जिस समय धर्मेंद्र दफ्तर से घर लौटा उस समय तेज वर्षा हो रही थी। उसने देखा कि घर के मुख्य द्वार के बाहर मिट्टी से सने पदचिन्हों के निशान थे। उसने घर में घुसते ही पत्नी से पूछा, ‘क्या घर पर कोई आया था?’ ‘नहीं, सुबह से घर पर कोई नहीं आया।’
भिखारी – गृहलक्ष्मी लघुकथा
सरकारी दफ्तर में अपना काम निपटा, मैं जल्दी-जल्दी स्टेशन आया। गाड़ी एक घंटे बिलम्ब से आ रही थी। मैंने घर से लाये पराठें निकाले और खाने लगा। तभी एक भिखारी जो हड्डियों का ढांचा मात्र था मेरे पास आकर, हाथ फैला कर चुपचाप खड़ा हो गया।
प्रेम पगे रिश्ते – गृहलक्ष्मी लघुकथा
रोहन को ऑफिस के काम से अक्सर टूर पर रहना पड़ता। उसका पूरा ध्यान पापा की ओर ही लगा रहता। दिन में तीन-चार बार फोन कर हाल-चाल पूछ लेता, पर कभी-कभी काम इतना होता कि दिन भर बात ही न हो पाती।
आज की शबरी – गृहलक्ष्मी लघुकथा
अपनी मित्र कजरी के घर के मेन गेट की घंटी बजाते बजाते मेरी नजर बेर के उस पेड़ पर अटक गई, जो लगा तो बाजू वाले घर में था पर उसका पूरा हिस्सा बाउंड्री वॉल के इस तरफ याने कजरी के आंगन में था गेट खोलते कजरी बोली, क्या सोचने लगी।
उसके बिना – गृहलक्ष्मी लघुकथा
आज तीन दिन हो गये थे, वो ना जाने कहाँ गायब हो गया था!
एक अजीब सी तड़प महसूस हो रही थी मुझे, उसकी ग़ैर-मौजूदगी से।
