रजनी ने अपनी घनेरी काली लटें बिखेरीं ही थी। कि चमकता हुआ चांद उसके जूड़े में गजरा बनकर लिपट गया। यह देखकर तारे शरमा गये। गर्मी की ऋतु थी नीले आकाश में चांदनी चारो ओर बिखर गई थी, मानो आज किसी की बारात आने वाली हो। हां हां बारात ही तो आने वाली थी राधा […]
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दुनिया की सबसे हसीन औरत
‘‘खुर्शीद” नाम तो बहुत खूबसूरत है, सादिक के चेहरे पर नाम सुनते ही जैसे मुस्कराहट नाच गई। ‘‘वह भी कम खूबसूरत नहीं होगी” सलमा भाभी की आवाज में शोखी घुल गई। कई बार सादिक ने सोचा भी कि किसी बहाने खुद जाकर एक बार देख आए, आखिर पूरी जिन्दगी की बात है। लेकिन फिर जैसे […]
गृहलक्ष्मी की कहानियां : पौत्र जन्म की खुशियां
पत्नी मुक्त मन से पैसा लुटाने में लगी थी। मैंने उसे समझाया था कि वह पौत्री को ही बेटा मान लें, बावजूद उसके भीतर तमन्नाएं उछालें मार रही थीं कि इस बार तो पौत्र ही हो।
गृहलक्ष्मी की कहानियां : कहीं वो नाराज तो नहीं
आज पत्नी फिर नाराज है। अब नाराजगी दूर हो तो पता चले कि मामला क्या है। मैं खाने का प्रेमी हूं और वह किचन हड़ताल कर अक्सर मेरे पेट पर प्रहार करती है।
त्योहार – गृहलक्ष्मी कहानियां
गुलाबो जल्दी-जल्दी काम निपटा रही थी। कल त्योहार था। उसने कल की छुट्टी और कुछ रुपये मालकिन से मांगे थे। मालकिन ने उसे यह कह कर मना कर दिया कि कल कुछ मेहमान दोपहर भोजन पर आने वाले हैं। दोपहर को कम से कम एक टाइम आकर काम कर दे। उसे मनुवा की याद आ […]
डर सबको लगता है – गृहलक्ष्मी कहानियां
सुबह की खिलती धूप चारों तरफ फैली हुई थी। गायत्री खिड़की के पास खामोश बैठी शून्य में कुछ निहार रही थी। तभी उसकी निगाहें सड़क पार गिफ्ट हाउस में आते-जाते ग्राहकों पर पड़ी। गायत्री जब भी डिप्रेशन में होती तो सामने वाली शाॅप की तरफ देखती और सोचती कि इसमें आने-जाने वाले लोग किसी-न-किसी के लिए कोई उपहार खरीद रहे हैं और तब उसे लगता है कि दुनिया में आज भी प्यार भरा हुआ है।
कलूटी – गृहलक्ष्मी कहानियां
एक रेलवे प्लेटफार्म जिसमें दूर-दूर तक सिर्फ खामोश दूरियों का अहसास करातीं पटरियां थीं और दिन भर उस सन्नाटे को तोड़ती रेलगाड़ियों की छक-छक की तेज आवाज। दिन भर में उस प्लेटफार्म में कई घण्टों के अंतराल पर मात्र तीन या चार गाड़ियां रुकती थीं, दूसरी सभी सीधी निकल जातीं।
घिसटती जिन्दगी – गृहलक्ष्मी कहानियां
गर्मी, सर्दी और बरसात हमेशा उसी रूप में आते रहे जैसे सदियों से चले आ रहे थे मगर सालों से उस औरत की दशा में दिन-प्रतिदिन आए बदलाव को देखकर मैं हैरान रही। हर तीन माह में उसका पागलपन पहले की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही बढ़ जाता मगर यह कैसा पागलपन था जो सिर्फ तभी दिखाई पड़ता था जब उसके घर में कोई पर्व या उत्सव होता या फिर आसपास के किसी घर में खुशियों का माहौल होता।
एक सिपाही का खत अपनी दुल्हन के नाम
प्रिय — और क्या कहूं? मुझे आना पड़ा तुम्हें ऐसे ही छोड़ कर, मेरी मातृ भूमि बुला रही थी मुझे ! जानता हूँ, अभी तो तुम्हारा घूंघट भी ठीक से नहीं उठाया था ,हम एक दूजे की आँखों में ठीक से अपने प्रेम का अक्स भी न देख पाये थे ,अभी तो तुम्हारे हाथों […]
परिणति – गृहलक्ष्मी कहानियां
दर्शन पढ़ाते-पढ़ाते वह ‘स्थित’ प्रज्ञ हो चुकी थी। वो दशा जिसमें ना कोई कामना-तृष्णा मन को भटका सकती है और ना ही कोई सुख-दुःख उसके प्रण को डिगा सकते हैं। स्वनियंत्रण इसी को कहते हैं। इसी पर तो सुधा को गर्व था। जो कुछ उसने भुगता था शायद उसकी परिणति भी यही होनी थी।
