‘‘खुर्शीद” नाम तो बहुत खूबसूरत है, सादिक के चेहरे पर नाम सुनते ही जैसे मुस्कराहट नाच गई।

‘‘वह भी कम खूबसूरत नहीं होगी” सलमा भाभी की आवाज में शोखी घुल गई। कई बार सादिक ने सोचा भी कि किसी बहाने खुद जाकर एक बार देख आए, आखिर पूरी जिन्दगी की बात है। लेकिन फिर जैसे उसे अपनी इस सोच पर ही शर्म आई, आखिर सलमा भाभी कोई पराई तो नहीं, उन्होंने देख-सुनकर ही रिश्ता भिजवाया होगा।

सारी रात सादिक ख्बाबों में ही खोया रहा, निकाह का दिन अभी दूर था, लेकिन तैयारियां भी तो अभी बहुत करनी थी और करने वाला भी कौन था सारी तैयारियां उसे और रजिया आपा को ही करनी थीं। इन सबमें कब दो हफ्ते बीत गए पता ही न चला।

निकाह की गहमा-गहमी में भी सलमा भाभी बाज नहीं आई। ‘‘सादिक मियाॅं, चाॅंद का टुकड़ा है, चाॅंद का टुकड़ा, जरा सम्हाल कर रखना।” निकाह, दावत फिर मेहमानों का आना-जाना, दो दिन चुटकियां बजाते ही बीत गए। इस बीच रेशमी बुर्के में उसे खुर्शीद की आते-जाते झलक मिली भी तो, बस एक दो घड़ी के लिए ही। ‘‘अब तुम्हारे इस चांद के टुकड़े से मुलाकात आखिर कब होगी।” तीसरे दिन आखिर उसने सलमा भाभी को पकड़ ही लिया ‘‘अरे भई अब तो हमने निकाह करवा दिया, अब जी भर के मुलाकात करते रहो, हम तो आज ही लखनउ चले जाएंगे” सलमा भाभी सादिक की बेताबी पर मुस्करा कर रह गई।

उस रात के खत्म होने का पता ही न चला, लेकिन फिर ऐसी आॅंख लगी कि सुबह के आठ बज गए। 

‘‘उठिए आॅफिस नहीं जाना है क्या? ” खुर्शीद की आवाज ने उसे आंखें खोलने पर मजबूर कर दिया। आॅफिस का नाम सुनते ही उसकी आंखें घड़ी की ओर मुड़ गई। ‘‘बाप रे, बाप… बड़ी देर हो गई कहते-कहते उसने चाय का प्याला लेने को अपना हाथ बढ़ा दिया और निगाहें उसके चेहरे पर। लेकिन यह क्या, उसकी जिन्दगी का अहम हिस्सा खुर्शीद तो बस नाम की खुर्शीद थी, एक निहायत मामूली लड़की। उसने चाय की प्याली वैसी की वैसी ही स्टूल पर रख दी, ‘‘क्यों तबीयत तो ठीक है न। ” खुर्शीद की निगाहों से यह परिवर्तन छुपा न रह सका। ‘‘नहीं मन नहीं है बस एक लम्हें में ही वह जैसे आसमान से जमीन पर आ गिरा था।

सलमा भाभी से उसे ऐसे धोखे की उम्मीद नहीं थी। उसके सारे ख्वाब ही जैसे बिखर गए। बाथरूम के आदमकद शीशे में उसने अपने आप को ध्यान से देखा। छह फुट लम्बा स्वस्थ शरीर, तीखे नाक-नक्श, क्या नहीं था उसके अन्दर और उसके जीवन साथी के रूप में यह लड़की। उसकी तो सारी उमंगें ही जैसे धूल में मिल गई।

अनमने मन से उसने कपड़े पहने और आॅफिस चला गया। शाम को भी काफी देर निरूद्देश्य सड़क पर घूमता रहा। इसके बाद उसने खुर्शीद से इतना भी रिश्ता रखना जरूरी नहीं समझा, जितना किसी पड़ोसी से रखा जाता है।

दो-तीन महीने तो खुर्शीद ने जज्ब किया, लेकिन एक दिन वह चुप न रह सकी ‘‘आखिर आप मुझसे इतना खिंचे-खिंचे क्यों रहते हैं।” आफिस के लिए तैयार होते सादिक को उसने टोक ही दिया ‘‘मेरा स्वभाव ही ऐसा है” सादिक ने रूखे स्वर में कहा और टाई की गाॅंठ करने लगा। खुर्शीद फिर आगे क्या कहती।

कुछ दिनों बाद अचानक खुर्शीद के भाईजान आए, तो खुर्शीद ने कुछ इस अन्दाज से उनसे साथ चलने को कहा कि वह ना न कर सके। फिर भी सादिक से पूछना तो जरूरी है” उन्होंने खुर्शीद से कहा ‘‘वे मना नहीं करेंगे” कहकर खुर्शीद चाय बनाने चली गई।

खुर्शीद के जाने से सादिक ने जैसे इत्मिनान की सांस ली। उसे लगा जैसे किसी कैद से छुट्टी मिल गई हो इस बीच सलमा भाभी ने दो-एक बार पूछा भी, लेकिन उसके तेवर देखकर वे भी चुप लगा गईं।

उस दिन इतवार था कल की आई डाक टेबल पर पड़ी थी। सुबह का अखबार खत्म कर जब उसने डाक उठाई तो पहले ही खत को देखकर वो चौंक उठा। खत पर बड़े-बड़े मोती से अक्षरों में खुर्शीद का नाम लिखा था। जब से खुर्शीद गई थी, यह पहला ही खत था। पहले तो उसने उपेक्षा से खत एक ओर डाल दिया फिर न जाने किस भावना के वशीभूत होकर उठाकर खोल डाला।

‘‘जब से मैं यहां आई हूं आपने तो कभी दो सतरे लिखने की भी जहमत नहीं उठाई, हालांकि आपने कभी मुझसे नहीं कहा लेकिन मैं जानती हूं कि आप, खैर छोड़िए मैंने कभी आपसे अपनी कोई ख्वाहिश जाहिर नहीं कि। पहली बार जाहिर कर रही हूूं। अम्मीजान से नर्सिंग होम में रजिस्ट्रेशन करवा दिया है, डाॅक्टर ने बताया था कि अगले जुमे के दिन मेरी गोद खुशियों से भर जाएगी। इस मुबारक मौके पर अगर आप आ जाएं तो…। बस आपकी खुर्शीद।

खत का आखिरी मजमून पढ़कर सादिक अजीब से विचाराें में डूब गया। उसे पहली बार याद आया कि खुर्शीद को गए एक अर्सा बीत चुका है। उसने खत को लिफाफे में डालकर एक ओर रख दिया लेकिन उसे लगा कि खत के मजमून के चंद सतरे ” मैंने आज तक कोई ख्वाहिश जाहिर नहीं की” लिफाफे के ऊपर जैसे नक्श होकर रह गए हों।

अगला जुमा भला कितनी दूर था, उसने दो जोड़े अटैची में डाले और छुट्टी की दरखास्त देकर बस में बैठ गया।

अरे दूल्हे मियां आप! भई खबर तो की होती, हम किसी को लेने भेज देेते। उसे यूूं अचानक आया देखकर खुर्शीद की अम्मी तो एकबारगी खुशी से चौंक ही पड़ीं।

अरे भाई दुल्हे मियां को जरा चाय-वाय पिलवाओ” अम्मीजान उसे बैठने का इशारा का अन्दर चली गई। ‘‘दुल्हे भाई खाली हाथ ही आए हैं। या हमारे लिए कोई तोहफा भी लाएं हैं” कहती हुई इशरत पास ही बैठ गई। अरे भई, इन्हें इतनी फुरसत कहां, आ ही गए यही क्या कम है” कहती हुई अम्मी कप में चाय उड़ेलने लगी। नहीं अम्मी ऐसी बात नहीं लेकिन इस बार कुछ ज्यादा ही परेशानी रही” कहते हुए सादिक ने चाय की प्याली उठा ली।” बहरहाल हमारी आपा के पास तो आपके लिए एक जीता-जाता तोहफा है, लेकिन बिना अपना हक लिए हम आपा से आपकी मुलाकात नहीं करवाएंगे” इशरत की आवाज से शरारत टपक रही थी।

अब ज्यादा परेशान मत करो।‘‘सादिक मियाॅं! मैं बता देती हूॅं, आप कल शाम ही एक निहायत प्यारी सी बच्ची के बाप बन चुके हैं। अम्मी ने सादिक के आगे मिठाई की प्लेट बढ़ाते हुए कहा ‘‘लेकिन अम्मी हमारा हक” इशरत ने बीच में ही बात काट दी। ये तो पगली है चलिए सादिक मियां मैं आपको खुर्शीद के कमरे में ले चलती हूं, कहते हुए अम्मी उठ खड़ी हुई।

खुर्शीद का कमरा निहायत नफासत पसन्दगी का नमूना नजर आ रहा था। घुसते ही सामने उसे अपनी आदमकद पेंटिंग नजर आई। दो पल को तो वह पेंटिंग की सजीवता में खोकर रह गया, सचमुच खुर्शीद की कला दाद देने के काबिल थी।

खुर्शीद पलंग पर लेटी बच्ची को दूध पिला रही थी । सादिक को देखकर उसके होंठों पर एक हल्की सी मुस्कराहट तैर गयी। उसके आदाब का जबाब देते हुए सादिक ने बच्ची पर नजर डाली। गोरी-गोरी दूध सी वह बच्ची जब सादिक की बड़ी-बड़ी हथेलियों में मचली तो सादिक का बेसाख्ता उसे चूमने का मन कर आया। खुर्शीद के कमरे की सारी पेंटिंग्स के मुकाबले उसकी यह जिन्दा पेंटिंग एकटक जब उसकी आंखों में झांकने लगी, तो उसे लगा कि उसके सीने के अन्दर कुछ मचल रहा है।

उसने एक भरपूर नजर खुर्शीद के पीले, निस्तेज चेहरे पर डालीं, तो वह दो घड़ी तक अपनी नजरें उस चेहरे से न हटा सका। उस मामूली चेहरे में उसे कुछ ऐसा नजर आया, जिसको शब्दों में बयां करना निहायत मुश्किल था। उसे लगा कि दुनिया की सबसे हसीन औरत की जो तस्वीर उसके जेहन में बनी हुई थी वह निहायत अधूरी और गलत रंगों में बनाई गई थी। उसे लगा कि मां बनते ही खुर्शीद के चेहरे पर जो पाकीजगी आ गई है, उसे ही दुनिया की सबसे हसीन औरत का अक्स कहा जा सकता है।

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