neelkanth by gulshan nanda
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आनंद का नाम संध्या की जुबान से सुनते ही बेला को मानो किसी ने मनों बर्फ में रख दिया हो। क्षण-भर के लिए वह किसी सोच में खो गई और फिर माथे पर बल लाकर बोली-

‘अच्छे हैं-तुम्हें पूछते थे।’

‘क्या?’ उसने उत्साहपूर्वक पूछा।

‘यही कि गंदी गलियों से लौटी नहीं अभी?’

नीलकंठ नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

‘ओह, तो इतना ख्याल है उन्हें मेरा…अच्छा बेला, अब वह आएं तो इतना कह देना उन्हें…’

‘क्या?’

‘मैं तो कभी उन गलियों से न लौटूंगी, परंतु एक दिन वह अवश्य उन गलियों में आ जाएँगेे।’

संध्या यह कहकर सीढ़ियाँ उतर गई। बेला ने उसे जाते हुए देखा और घृणा से नाक सिकोड़ ली-उसके शब्द उसके मस्तिष्क में गूंज रहे थे-क्या आनंद की याद अभी तक उसके मन में चुटकियां ले रही है-वह क्रोध से दांत पीसते हुए स्वयं ही कहने लगी-‘इसे भी जड़ से बाहर निकालना होगा।’

जब पाशा को पता चला कि संध्या रायसाहब से दस हजार का चेक लाई है और यह रुपया वह गरीबों को सुधारने पर लगाना चाहती है, तो वह ठहाका मारकर हंसने लगा, मानों किसी ने अनहोनी बात कह दी हो।

‘पगली, चन्द सिक्के व्यय करके इन लोगों को बदला अवश्य जा सकता है, इनकी जीर्ण दशा को खाने और वस्त्रों से ढंका जा सकता है, किंतु इनके जाग उठने के बाद जानती हो क्या होगा?’

‘क्या?’

‘ये लोग जीवन में लंबी साँस लेने लगेंगे-खुले वातावरण में आने से यह संसार का विस्तार नापने की इच्छा करेंगे तथा इच्छा और कामना के संसार में डूबने लगेंगे, फिर जानती हो ये लोग अपना नाम-मात्र का सुख-चैन भी खो बैठेंगे-रुपये के प्रति उनका मोह बढ़ता जाएगा-रुपया, रुपया, रुपया-जिससे ये अपनी जागृत इच्छाओं की पूर्ति कर सकें।

‘आप ठीक कहते हैं-किंतु आपके और मेरे सोचने में बड़ा अंतर है।’

‘वह कैसे?’

‘मैं उनका शरीर नहीं, बल्कि उनकी आत्मा जगाने वाली हूँ।’

नन्हें पाशा मुस्कराकर चुप हो गया। संध्या के दृढ़ निश्चय से उसे विश्वास था कि वह अवश्य उन लोगों के जीवन में कोई परिवर्तन लाना चाहती है, किंतु वह स्वयं विचारों के सामने झुकना न चाहता था।

सब सरायवासियों को एक स्थान पर एकत्र करके संध्या ने अपना कार्य आरंभ कर दिया। उसने ऐसे आदमी अलग कर दिए, जो निश्चय के दृढ़ और काम करने योग्य थे। वृद्ध और बीमार आदमियों को उसने सराय में ही रहने दिया।

नन्हें पाशा सबको संध्या के संकेत पर चलते देखकर मुस्करा रहा था। यह संध्या की दृढ़ता थी कि उसने अपनी बातों से सबको एक कर दिया। उसके स्थान पर कोई और व्यक्ति होता तो वह इकट्ठे न होते।

उस समय आनंद ने सराय में प्रवेश किया और चुपचाप उसी जमघट के पास आ रुका। जब उसने संध्या को इन गंदे लोगों के साथ बैठे ताश खेलते देखा तो क्रोध से तमतमा उठा। भीड़ से निकलता हुआ वह बिलकुल संध्या के सामने जा खड़ा हुआ। जब बड़ी देर तक संध्या ने ऊपर न देखा तो वह जोर से चिल्लाया-

‘संध्या!’

संध्या अपना नाम सुनकर चौंक उठी। दृष्टि उठाकर उसने जमघट में खड़े आनंद को देखा और स्थिर रह गई, जैसे किसी ने उसके शरीर से बिजली का तार छुआ दिया हो। आनंद ने अंग्रेजी में उससे कहा कि वह अलग में कुछ कहना चाहता है।

‘क्या? आप कह सकते हैं-’ उसने असावधानी से उत्तर दिया।

‘परंतु इनके सामने?’

‘यहाँ सब अपने ही हैं, कोई पराया नहीं, कहिए।’ उसने एक पत्ता फेंकते हुए कहा।

‘बड़ी विचित्र बात है। इन सबके सामने मुझे अपमानित करना चाहती हो। अपनी प्रतिष्ठा का कुछ तो विचार किया होता।’

‘मेरी प्रतिष्ठा तो गई, अब मैं इन्हीं का एक अंग हूँ, जो कुछ आप चाहें कह सकते हैं।’

‘मुझे कुछ नहीं कहना तुमसे।’ उसने जेब से एक लिफाफा निकालकर उसके आगे फेंका और लंबे डग भरता हुआ बाहर निकल गया। वह आनंद की ओर से ब्याह का निमंत्रण-पत्र था।

संध्या को उदास और चुप देखकर किसी ने कोई प्रश्न न किया। वहां से हटकर अपने-अपने स्थान पर चले आए और वह स्वयं किसी विचार में खोई धीरे-धीरे कदम उठाती चबूतरे की ओर चली गई।

संध्या ने देखा कि उस जमघट से दूर द्वार के समीप वाले स्तंभ का सहारा लिए एक आवारा युवक अकेला बैठा ताश के पत्तों से खेल रहा था, जो किसी कुटुम्ब का एक सदस्य था। संध्या कुछ सोचकर धीरे-धीरे चलती हुई उसके सामने आ खड़ी हुई।

‘यह क्या हो रहा है मिस्टर?’

‘ओह! आप।’ उसने आँख उठाकर संध्या को देखा, जिसके मुख पर आज क्रोध और गंभीरता के बदले सहानुभूति और प्यार झलक रहा था।

‘क्या अकेले भी ताश खेली जाती है?’ उसने नम्रता से पूछा।

‘कभी-कभी जब मन और मस्तिष्क अलग-अलग हो जाते हैं।’

‘बड़ा दर्दनाक विचार है। आखिर क्या उद्देश्य है तुम्हारा?’

‘कैसा उद्देश्य?’

‘अपने जीवन का-कहाँ से आए-कहाँ जाओगे-कौन-सी मंजिल?’

संध्या के इस प्रश्न पर वह खिलखिलाकर हंसने लगा। संध्या ने अनुभव किया कि इस दार्शनिक के मस्तिष्क के पेंच ढीले हैं। आज संध्या को उस पर तरस आ रहा था-आखिर वह अपने जीवन को क्यों व्यर्थ गंवा रहा है।

‘तुम्हारा नाम क्या है?’

‘सुंदर।’

‘सुंदर-बहुत सुंदर। तुम सराय में कैसे आए?’

‘भाग्य खींच लाया-, वह संध्या के पास बैठते हुए बोला।

‘इसमें भाग्य का क्या दोष-तुम आए तो अपनी ही इच्छा से।’

‘ठीक है-मन, मस्तिष्क और पांव सब स्वयं ही लाते हैं, परंतु इनके पीछे भाग्य की एक अज्ञात शक्ति इंसान को उस ओर खींचती है।’

संध्या ने उसकी बातों से अनुमान लगाया कि यह युवक केवल आवारा या शराबी नहीं बल्कि असाधारण दिमाग का मालिक है, जो किसी मानसिक उलझाव के कारण जीवन को नष्ट किए जा रहा है। उसे उसकी बातों से यह भी पता चला कि वह बी.ए. पास है और एक ऊँचे अमीर घराने का इकलौता दीपक है, जो किसी झगड़े और हठ के कारण घर-बार छोड़कर आया है और वापस न लौटने की सौगंध खा रखी है। उसकी बातों से स्पष्ट था कि वह छल और कपट से घृणा करता है और सच बोलता है।

‘तुम्हें एक सहारे की आवश्यकता है।’

कहाँ…वह शांति किसके पास है जिसकी मुझे खोज है।’

‘शराब की बोतल में।’

‘यह आप कह रही हैं?’ सुंदर फीकी हंसी हंसते बोला।

‘हाँ, मैं कह रही हूँ और ठीक कह रही हूँ-जब तुम्हारी रगों में लहू के स्थान पर इस तेजाब का संचालन होने लगेगा और तुम्हारा हृदय जलकर काला पत्थर हो जाएगा, तब तुम्हें चैन और सुख मिल जाएगा, तुम मृत्यु में सुख खोजते हो।’

मृत्यु का शब्द सुनते ही सुंदर कांप-सा गया। जैसे संध्या ने उसे स्वप्न से जगाकर कठोर वास्तविकता का दृश्य दिखा दिया हो। वह आश्चर्य में खड़ा निरुत्तर-सा उसे देखने लगा।

‘डर क्यों गए? मृत्यु इतनी भयानक लगती है तो जीवन से प्यार करो, जीवन के उतार-चढ़ाव में आनंद अनुभव करो-मेरी भांति। मैं स्त्री होते हुए भी जमाने से टक्कर ले रही हूँ और तुम पुरुष होकर घबरा गए। याद रखो, सच्चा प्यार वह है जिसमें त्याग हो-जीवन वह है जो अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए व्यतीत किया जाए।’

सुंदर ने आज जीवन में पहली बार ऐसी बातें सुनी थीं। अभी तक किसी दृढ़-निश्चय से अपरिचित था। उसने अपने में नई आशा का संचार पाया। दोनों मौन एक-दूसरे को देखते रहे-दोनों एक-दूसरे के दर्द को भांप रहे थे। सुंदर ने होंठों को दबाकर दृढ़ स्वर में कहा-

‘मैं प्रयत्न करूँगा किसी के काम आ सकूँ, परंतु फिर भी कभी लड़खड़ाने लगूँ तो…’

‘तो मैं संभाल लूंगी।’

वह चला गया-सराय के बाहर-बिना कुछ कहे-सुने। संध्या ने पूछा भी, पर उसने कोई उत्तर न दिया। संध्या कुछ घबराई, कहीं वह सदा के लिए ही सराय को छोड़ न गया हो।

रात अधिक हो गई और सब अपने-अपने स्थान पर नींद में खो गए। संध्या की दृष्टि अभी सराय के बाहर वाले द्वार पर लगी थी। नन्हें पाशा सोने के लिए कहकर भीतर चले गए, परंतु संध्या ने सुनी-अनसुनी कर दी। जब माँ काम से निबटकर आई तो संध्या बोली-‘माँ, सुंदर अभी तक वहाँ नहीं आया।’

‘सुंदर-तो क्या तू उस आवारा छोकरे के विषय में सोच रही है। पगली! आ जाएगा, नशे में लड़खड़ाता आता ही होगा, उसे क्या होश कि रात कितनी बीती है।’

सराय के बाहर घोड़ा गाड़ी रुकने की आवाज आई। माँ कह उठी-‘लो मतवाला राजा आ गया-घोड़ा गाड़ी उसी की लगती है।’

सुंदर ने भीतर प्रवेश किया। आज उसके पाँव लड़खड़ा नहीं रहे थे, बल्कि सोये हुए साथियों के बीच से धीरे-धीरे संध्या की ओर बढ़े जा रहे थे। आज वह बहकता नहीं आ रहा था। स्पष्ट था कि आज उसने पी नहीं।

उसे पूर्ण होश में देखकर माँ-बेटी आश्चर्य से देखती रह गईं। पास जाकर वह उन्हें अपनी ओर देखते पाकर बोला-

‘आज मैं होश में क्यों हूँ, यही पूछना चाहती हो न-तो सुनो, आज मैंने पी नहीं’

‘सच!’ संध्या के होंठों से निकला।

‘हाँ-क्योंकि आज मुझ पर कोई और ही नशा सवार था।’

‘कैसा नशा?’

‘तुम्हारी बातों का नशा-तुम गरीबों के अंधेरे संसार में उजाला लाना चाहती हो न?’

‘हाँ, तो?’

‘मैं आज उसका प्रबंध करके आया हूँ।’

यह कहते हुए उसने जेब से नोटों का बंडल निकाला और उसके सामने रख दिया। माँ-बेटी दोनों कभी नोटों और कभी सुंदर की ओर देखने लगीं

‘पूरे पाँच हजार हैं।’ सुंदर बोला-‘माँ ने कहा है कि काम आरंभ होने के पश्चात् और दूंगी।’

‘ओह! तो घरवालों से बन गई।’

‘माँ से-पिताजी से नहीं, मैं अपनी ओर से भरसक प्रयत्न करूँगा कि शीघ्र हम अपने उद्देश्य में सफल हो जाएँ।’

‘मुझे तुमसे यही आशा है।’

सुंदर आज बहुत प्रसन्न था। आज उसने शराब नहीं पी थी, फिर भी वह किसी अज्ञात नशे में डूबा-सा था। घोर अंधेरे में हाथ-पांव मारते हुए उसकी एक किरण ने उसे मंजिल का मार्ग दिखा दिया था।

नीलकंठ-भाग-16 दिनांक 12 Mar.2022 समय 10:00 बजे रात प्रकाशित होगा ।

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