gunahon ka Saudagar by rahul | Hindi Novel | Grehlakshmi
gunahon ka Saudagar by rahul

ठीक तीन बजे के घंटे जब सुनाई दिए तब अंजला और देवयानी कोठी के पिछवाड़े पहुंचीं…फिर जिस ढंग से छिपकर वह कोठी से निकली थीं…उसी ढंग से बिना आवाज किए वापस बैडरूम में पहुंच गई।

अंजला ने बैड पर बैठकर संतोष की सांस ली और बोली‒”थैंक्स गॉड! किसी को खबर नहीं हुई…मुझे तीन दिनों से नींद भी नहीं आई।”

कच्चे धागे नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

“अरे! कपड़े तो बदल ले।”

अंजला ने पता नहीं किस तरह कपड़े बदले और बिस्तर पर लमलेट हो गई‒देवयानी पहले ही लेट चुकी थी।

सुबह पता नहीं वो कब जागतीं, लेकिन किसी के जोर-जोर से दरवाजा पीटने की आवाजें सुनकर अंजला की नींद टूटी और वह झटके से उठकर बैठ गई‒उसने देवयानी को देखा जो निरन्तर गहरी नींद में सो रही थी।

“बहू रानी-बहू रानी।” बाहर से नारायण की आवाज सुनाई दी‒”जल्दी उठिए…दरवाजा खोलिए बहुरानी।”

पता नहीं क्यों अंजला के मस्तिष्क को धक्का सा लगा‒उसने जल्दी से उठकर दरवाजा खोला तो सामने नारायण खड़ा हुआ था‒उसका चेहरा खुशी से चमक रहा था…आंखों से भी खुशी फूटी पड़ रही थी।

“क्या हुआ काका?” उसने हैरान होकर पूछा।

“बहू रानी! जल्दी से नीचे चलिए…आपको चमत्कार दिखाऊं।”

“कैसा चमत्कार?”

“आप आइए तो सही…स्वयं ही देखिए।”

अंजला लड़खड़ाती हुई-सी बाहर निकली तो देवयानी ने आंखें खोल दीं, लेकिन ज्यों की त्यों लेटी रही…उसके होंठों पर मद्धिम सी मुस्कराहट आकर रह गई थी‒अंजला नारायण के साथ नीचे आई।

पहले उसकी निगाहें जगमोहन पर पड़ीं…उसके मस्तिष्क में एक जोरदार छनाका हुआ‒उसने जल्दी से सिर और सीने को ढककर आगे बढ़कर जगहमोहन के चरण छुए‒जगमोहन ने स्नेह से उसके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया‒”जुग जुग जियो बेटी…भगवान तुम्हें सदा सुहागिन रखें।”

अंजला के मस्तिष्क में दूसरा छनाका गूंजा। जगमोहन ने नारायण से कहा‒”बहू रानी को ले जाओ।”

“आइए…बहू रानी।”

अंजला जादूग्रस्त प्राणी की तरह चलती हुई नारायण के पीछे नीचे वाले बैडरूम में आई। नारायण दरवाजे से ही लौट गया, लेकिन अंजला…! वह मूर्तिमान खड़ी की खड़ी रह गयी…उसे लगा जैसे उसके पांव फर्श में गड़ गए हों।

उसके सामने महेश खड़ा हुआ था…होंठों पर थकी-थकी और फीकी-सी मुस्कराहट लिए हुए…उसने धीरे से कहा‒”जानता हूं…शायद मुझे देखकर तुम्हें खुशी नहीं हुई होगी।”

अंजला ने थूक निगल कर कहा‒”यह तुम क्या कह रहे हो?”

“तुम्हें किसी ने मंगली काका बनकर यह खबर दे दी थी कि ऑपरेशन के दौरान मेरी मौत हो गई है।”

“हां।”

“तुम इसी शोक में कमरे में बंद थीं…तुमने खाना भी नहीं खाया।”

“हां…यह सच है।”

“क्या सचमुच तुम्हें विधवा हो जाने का इतना दुःख हुआ था?”

“शायद।”

“यह तुम्हारा सच बोलना मुझे बहुत अच्छा लगा, क्योंकि मैं जानता हूं कि तुमने आज तक मानसिक रूप से मुझे अपना पति स्वीकार नहीं किया‒तुमने मुझसे शादी इसीलिए की थी कि तुम जल्दी से विधवा हो जाओगी और फिर अपने प्रेमी विवेक से शादी कर सकोगी।”

“यह सही है…लेकिन यह भी सही है कि तुम्हारे मरने की खबर सुनकर मुझे हार्दिक दुःख हुआ था, इतना कि मैं बयान नहीं कर सकती…हम दोनों के बीच मार्मिक…आत्मिक रिश्ता न सही, लेकिन जितने दिन हम साथ रहे हैं…यह भी कुछ कम नहीं है।”

“सच कहती हो?”

“तुम्हारे ऑपरेशन का क्या हुआ?”

“डॉक्टर ने नब्बे प्रतिशत सफलता का विश्वास दिलाया है…ऑपरेशन के लिए अमरीका जाना पड़ेगा।”

“शायद तुम बच जाओ।”

“हो सकता है। अगर मैं बच गया तो तुम्हारी प्रतिक्रिया क्या होगी?”

“मुझे अभी स्वयं भी नहीं मालूम।”

“क्या तुम यह प्रार्थना नहीं करोगी कि मैं मर ही जाऊं?”

“मैं इतनी पत्थर दिल और स्वार्थी नहीं हूं।”

“तुम चाहो तो मैं कोई भी बहाना निकालकर तुम्हें तलाक दे सकता हूं ताकि तुम आजाद हो जाओ।”

“नहीं…मुझे तलाक नहीं चाहिए।”

“शायद इसलिए कि तुम विधवा होने पर ही दूसरी शादी कर सकती हो…तलाक लेने से तुम विधवा नहीं हो जाओगी।”

“शायद।”

“और अगर मैं जिन्दा बच गया तो क्या करोगी?”

“यह प्रश्न भी समय से बहुत पहले है।”

“अंजू! तुम्हें अभी से दृढ़ता से अपने आपको तैयार करना पड़ेगा…या तो तलाक के लिए…या फिर…?”

“या फिर? क्या?”

“मेरे साथ एडजस्ट करने के लिए।”

“मैं समझती हूं।”

“तो फिर दोनों में से कोई एक फैसला करके उसके लिए अभी से तैयारी करना शुरू कर दो।”

“इतने बड़े और महत्वपूर्ण फैसले इतनी जल्दी नहीं किए जाते।”

“तुम्हें सोचने के लिए कितना समय चाहिए?”

“तुम्हें जल्दी क्यों है?”

“इसलिए कि मैं भी तुम्हारे फैसले अनुसार अपने आपको मानसिक रूप से अभी से तैयार करने की कोशिश करने लगूं।”

“महेश!”

“अंजू, तुम जानती हो कि मैं तुमसे प्यार करता हूं और मैं जानता हूं कि तुम विवेक से प्यार करती हो।”

अंजला कुछ नहीं बोली…उसकी निगाहें झुक गई।

“मैं चाहूंगा कि तुम हो सके तो मेरे ही पक्ष में फैसला करो।”

“मैं कोशिश करूंगी।”

“यह बात मैं तुम्हारे ही भले के लिए कह रहा हूं।”

“मैं समझी नहीं।”

“तुमने मानसिक रूप में अभी तक मुझे ‘पति’ स्वीकार नहीं किया है…इसलिए हो सकता है तुम विवाहित औरत के रूप में भगवान को स्वीकार न हो…अगर तुम दिल से मुझे अपना पति समझ लोगी तब तुम कानून अनुसार सुहागिन समझी जाओगी…ऐसी सूरत में तुम्हारा विधवा हो जाना संभव है।”

अंजला के मस्तिष्क पर हथौड़ा-सा लगा‒वह सिर से पांव तक कांप कर रह गई, क्योंकि उसने अब तक सचमुच महेश को हसबैंड का दर्जा नहीं दिया…कल रात ही पहली बार अगर किसी को अपना पति माना था तो वह विवेक था‒तो क्या विवेक मेरा पहला सुहाग हुआ?

उसने सोचा‒’हे भगवान! यह क्या हो गया?’

“क्या विवेक मर जाएगा?”

अंजला का चेहरा पहले ही सफेद-सा हो रहा था…वह एकदम पीला पड़ गया…उसे जोरदार चक्कर आया और वह घबरा कर गिरने लगी‒महेश ने जल्दी से उसे बांहों पर संभाल लिया।

विवेक रात को तीन बजे खोली लौटा था…संयोग था कि उस दिन रीमा देवी कहीं कीर्तन पर गई हुई थीं। खोली की चाबी पड़ोस की खोली से मिल गई‒वह बेहोशी की नींद सोया और सोते में भी वह अंजला के साथ सुहागरात के सपने देख-देखकर मजे लेता रहा।

सुबह लगभग आठ बजे उसे रीमा ने झिंझोड़ कर जगा दिया।

“हां” क्या हो गएला?” विवेक हड़बड़ाकर जागता हुआ बोला‒”कब जाने का है श्मशान घाट?”

“क्या बक रहा है सुबह-सुबह?” रीमा देवी ने उसकी बांह हिलाकर कहा‒”क्या कोई बुरा सपना देख लिया था रात में?”

“सपना‒?” विवेक बुरी तरह जाग गया‒”कैसा सपना मां?”

“पड़ोसिन कह रही थी कि तू रात को तीन बजे आया था।”

“किधर है साली…यह साली चुगलखोर…इधर का उधर लगाएली है…आज के बाद साली को चुगली लगाने का साहस नहीं होएंगा।”

“बकवास मत कर…सच-सच बता…कहां था तीन बजे रात तक?”

“उधर कोई सवारी नहीं मिली…अपन को पैदल आना पड़ेला था।”

“खा मेरी कसम।”

“ओ मां…इन छोटी-छोटी बातों के लिए अपन इतनी बड़ी कसम नहीं खाएंगा…अगर तू बोले तो उस पड़ोसिन की कसम खा लेंगा।”

“तू सच बोल रहा है?”

“तेरे से कभी झूठ बोला है।”

“आज तो लगता है झूठ बोल रहा है।”

“अब तू समझ ही गई है तो सचमुच झूठ बोलेला था।”

“तू फिर किधर था?”

“अंजू के साथ।”

“क्या बोला?” रीमा देवी उछल पड़ीं।

“अब तेरे को क्या बोले? अपन अभी क्या सपना देखकर जागेला था।”

“श्मशान की बात कर रहा था।”

“अपन श्मशान की बात काहे कू करेंगा।”

“मुझे क्या मालूम?”

“हा-हा-हा…तेरे को भी नहीं मालूम कि श्मशान की बात काहे को की जाती है?”

“कोई मर जाए तो।”

“करेक्ट।”

“मगर अंजू के यहां…क्या उसका ससुर मर गया?”

“ससुरा मरेंगा…क्या बात करती है…यह साला शब्द ससुर है ही ऐसा लीचड़ कि घृणा लगेला…वह साला खूसट तो काले कव्वे खां के पैदा हुएला है‒अख्खा मुम्बई की आबादी भर जाएंगा, तब मरेंगा साला।”

“हे भगवान! तो फिर कौन मरेगा?”

“अरे वही साला महेश…और कौन मरेंगा।”

“हाय राम!” रीमा सीने पर हाथ रखकर पीछे हट गई‒”महेश भला कैसे मर गया इतनी छोटी उमर में?”

“जिसका बाप साला मरने का नाम ही न लेता हो तो उसका बेटा नहीं मरेंगा तो और क्या होएंगा…अपन के बाप को देख, कितनी जल्दी निकल लिया।”

“मगर महेश!”

“अरे तेरे को क्या मालूम नहीं महेश को कैंसर था।”

“ओहो!”

“डॉक्टर लोग बोले थे छः महीने में निकल लेंगा‒पर वह इतना पहले ही अपन के लिए रास्ता साफ कर गएला।”

“हाय, हां, क्या बकता है?”

“कुछ नहीं‒अपन को सोने दे।” और वह फिर लेट गया।

“अरे…क्या कॉलेज नहीं जाएंगा?”

“नहीं जाएंगा इसलिए कि…आज अपन बहुत खुश है।”

“अरे! क्या कह रहा है? तेरा दोस्त मर गया है और तू खुश है।”

“कोई बात नहीं…कुछ दिन बाद तो और खुश हो जाएंगा।”

“किस बात पर खुश होएगा।”

“अंजू के विधवा होने पर।”

“अरे‒भगवान तुझे बुद्धि दें।”

“हांय! अपन को बुद्धि दें।”

“वह बेचारी इतनी कम उमर में विधवा हो गई‒अगर महेश के मरने पर इतना ही खुश है तो अंजू की शादी उसके साथ क्यों होने दी? वह तो पहले ही तेरी पत्नी बनने वाली थी।”

“हां हां हां…कभी सस्पैन्स फिल्म देखीला है‒ओह, मां सॉरी…तू नहीं समझेंगी…जाने दे…अपन के लिए जल्दी से नाश्ता बना दे।”

रीमा देवी बड़बड़ाती हुई नाश्ता बनाने लगी। विवेक उठ खड़ा हुआ और नहा-धोकर कॉलेज जाने के लिए तैयार होने लगा…शीशे के सामने बाल बनाते हुए वह गुनगुनाता भी जा रहा था….साथ ही डायलॉग भी बोलता जा रहा था‒”अंजू…अपन को बहुत खुशी…धत्त! दुःख हुआ कि तुम्हारा सुहाग परलोक का टिकट कटा गएला।” फिर अपने सिर पर चपत मारकर उसने कहा‒”अब हट! इस माफिक कोई पुरसा होता है…हां, तो अंजू अपन को यह सुनकर बहुत सदमा पड़ेला कि अपन का दोस्त महेश का ऑपरेशन उसका ‘बीजा’ बन गएला।”

फिर वह बड़बड़ाया‒”नहीं बने ला…।”

रीमा देवी यह ऊटपटांग डायलॉग सुन रही थीं…वह बोली‒”यह क्या बक रहा है तू…क्या हो गया तुझे?”

“मां! अपने को डिस्टर्ब नहीं करने का। पर अपन को आज महेश के पुरसे के लिए जाना है….उसकी तैयारी करेला है।”

“महेश के पुरसे के लिए मैं भी तेरे साथ चलूंगी‒मुझे मौसी कहता था, कितने प्यार से।”

“नहीं…तेरे को नहीं जाने का।”

“क्यों?”

“महेश जवान था…उसका पुरसा अपन करेंगा…उसका खूसट बाप मर जाए तो उसके पुरसे को तेरे को जाने का है।”

“काहे के लिए बुरा सोचता है;…मुझे अंजू के पास भी जाना है।”

“काहे को मां?” अंजू कुछ दिनों बाद इधर ही आ जाएंगी।

“क्यों?”

“अब तेरे को क्यों? ‘कब’? ‘कहां’ से क्या मतलब? तू अपना काम कर…अपन अपना काम करेंगा।”

“तू क्या अंजू से शादी के लिए सोच रहा है?”

“ऐ लो! सोचने का क्या बात है…अपन दोनों की शादी तो हो गएली।”

“क्या बोला?”

“धत्त तेरी।” विवेक ने अपने सिर पर चपत मार कर कहा‒”यह साली चमड़े की जबान है न, बार-बार बोले जा रही है।”

“मैं सोच रही थी कि अंजला अब विधवा हो गई है तो तू उससे शादी कर लेगा…मगर मैं ऐसा बिल्कुल नहीं होने दूंगी।”

“ऐ लो…कर लो बात…अरे अब तो विधवा की शादी समाज भी नहीं रुकवाने को सकता‒तू कैसे रुकवाएंगी?”

“तेरी शादी हो चुकी है…देवयानी मेरी बहू है।”

“बेचारी…बड़ी प्यारी छोकरी थी।”

“थी…क्या मतलब? तेरी बातें समझने के लिए हाथी का भेजा चाहिए।”

“तो काहें को यह चिड़िया के भेजे को कष्ट दे रही है? अच्छा अपन चलता।”

विवेक बाहर निकला ही था कि नल पर कपड़े धोती हुई एक बुढ़िया ने छींक मारी तो विवेक ठिठककर रुक गया।

“क्या हो गएला भैया?” एक लड़की ने पूछा।

“यह खूसट बुढ़िया…साली ने घर से निकलते ही छींक मार दी…कीड़े पड़ें साली की नाक में…कव्वा काट ले जाए साली, बस्ती की सारी बुढ़िया लुढ़क गईं, एक यही बचेली है जो जवानों को लुढ़का कर ही लुढ़केंगी।”

फिर वह बड़बड़ाता हुआ बाहर निकल गया।

बस से उतर कर वह जगमोहन के बंगले की ओर बढ़ा….अपने चेहरे पर दुःख के भाव की नकली परत चढ़ाने का प्रयास करता हुआ फाटक पर पहुंच गया। चौकीदार ने ‘नमस्ते’ करके निचली खिड़की खोल दी। विवेक आगे बढ़ा…गोल लॉन में जगमोहन बैठा अखबार पढ़ रहा था। उसने विवेक को देखकर बुरा-सा मुंह बनाया और बोला‒”क्या बात है?”

“तुम अखबार पढ़ेले थे या जासूसी करेले थे।”

“बको मत…क्यों आए हो यहां?”

“अंजू से मिलने।”

“अंजू तुमसे नहीं मिल सकती।”

“टिकट लगा दिएला है अंजू से मिलने का?”

“खामोश!” वह दहाड़ कर खड़ा हो गया साथ ही उसे खांसी भी आ गई।

“अब बुड्ढे! काहे को चिघाड़ेला है? साले, फेफड़ा फट गएला तो ‘टें’ हो जाएंगा।”

“मैं कहता हूं बाहर निकल जाओ।”

“कहदिएला…अब चुपचाप बैठ जाने का है। अपन अंदर अंजू से मिलकर आएंगा…फिर तुम्हारे दोनों फेफड़ों में हवा भरेंगा।”

इनते में बरामदे से आवाज आई‒”क्या हुआ डैडी?”

विवेक मुड़ा तो सामने खड़े महेश के चेहरे पर एक रंग आकर चला गया…वह आगे बढ़ता हुआ बोला‒

“विवेक…तुम?”

“मेरे यार! काहे को पाल के रखेला है इस बुड्ढे को? अपन इधर तेरे ‘पुरसे’ के वास्ते अंजू के पास आएला है‒तुम खामख्वाह बिचौलिया नहीं बनलेला है।”

“सुना…! सुना तुमने?” जगमोहन गुस्से से हांफता हुआ बोला‒”तुम्हारा दोस्त तुम्हारे ‘पुरसे’ के लिए आया है।”

“अरे, दोस्त नहीं तो क्या दुश्मन आएंगा।”

“अच्छा…तो तुम्हें भी किसी ने मेरी मौत की खबर दी है? महेश ने फीकी-सी मुस्कराहट के साथ पूछा‒

“और क्या?” फिर वह जोर से उछल पड़ा‒”हांय! तू…तू…तू ही है या तेरा भूत?” फिर उसने जल्दी से महेश को टटोला‒”अबे तू जिन्दा है?”

“आओ…अन्दर चलो।” महेश मुड़ता हुआ बोला। फिर उसने ‘धड़ाम’ की आवाज सुनी। पलट कर देखा तो विवेक बेहोश पड़ा था।

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