वृद्ध महात्मा का ठाठ कुछ अजब ही ढंग का था, सिर से पैर तक तमाम बदन में भस्म लगे रहने के कारण इनके रंग का बयान करना चाहे कठिन हो परन्तु फिर भी इतना जरूर कहेंगे कि लगभग सत्तर वर्ष की अवस्था हो जाने पर भी उनके खूबसूरत और सुडौल बदन में अभी तक कहीं झुर्री नहीं पड़ी थी और न उनके सीधे पन में कोई झुकाव आया था।
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बड़ी-बड़ी आँखों में अभी तक गुलाबी डोरियाँ दिखाई दे रही थीं और उनके कटाक्ष से जाना जाता था कि अभी तक उनकी रोशनी और ताकत में किसी तरह की कमी नहीं हुई है। रोआबदार चेहरा, चौड़ी छाती तथा मजबूत और गठीले हाथ-पैरों की तरफ ध्यान देने से यही कहने को जी चाहता है कि यह शरीर तो छत्र और मुकुट धारण करने योग्य है न कि जटा और कंबल की कफनी के योग्य।
महात्मा के सिर पर लंबी जटा भी जो खली हई पीठ की तरफ लहरा रही थी। मोटे और मुलायम कंबल का झगा बदन में और लोहे का एक डंडा हाथ में था, बस इसके अतिरिक्त उनके पास और कुछ भी दिखाई नहीं देता था।
महात्मा को देखते ही प्रभाकर सिंह ने झुक के प्रणाम किया, बाबाजी ने भी पास आकर आशीर्वाद दिया और कहा, “प्रभाकर सिंह, बस जाने दो, बहादुर लोग ऐयारों को जान से नहीं मारते और ऐयार भी जान से मारने योग्य नहीं होते बल्कि कैद करने के पर्याय होते हैं। तुम इस समय यद्यपि इस योग्य नहीं हो कि इसे कैद करके कहीं रख सको तथापि यदि कहो तो हम इसका प्रबंध कर दें क्योंकि यह तिलिस्म के अन्दर हम इस बात को बखूबी कर सकते हैं।”
प्रभाकर सिंह : (बात काटकर) आपकी आज्ञा के विरुद्ध मैं कदापि न करूँगा। आप बड़े हैं, मेरा दिल गवाही देता है और कहता है कि यदि आप वास्तव में साधु न भी हों तो भी मेरे पूज्य और बड़े हैं। जो कुछ आज्ञा कीजिए मैं करने को तैयार हूँ, पर आपको कदाचित् यह न मालूम हुआ होगा कि इसने मुझे कैसी-कैसी तकलीफें दी हैं और किस तरह मेरा सर्वनाश किया है, और इस समय भी वह कैसी ढिठाई के साथ बातें कर रहा है, अपना नाम तक नहीं बताता।
बाबा : मैं सब कुछ जानता हूँ, तुमने स्वयं भूलकर अपने को इसके हाथ फँसा दिया है, अगर वह किताब जिसमें इस तिलिस्म का कुछ थोड़ा-सा हाल लिखा हुआ था और जो इन्द्रदेव ने तुमको दी थी, इसने तुम्हारी जेब से न निकाल ली होती तो यह कदापि यहाँ तक पहुँच सकता, मगर अफसोस, तुमने पूरा धोखा खाया और यह किताब की भी बखूबी हिफाजत न कर सके।
प्रभाकरसिंह : बेशक् ऐसा ही है, मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई। अभी तक मुझे इस बात का पता न लगा कि वास्तव में यह कौन है।
बाबा : हाँ तुम इसे नहीं जानते, हरदेई समझकर तुम इसके हाथ से बर्बाद हो गए, यह असल में गदाधरसिंह का शागिर्द रामदास है। इसी ने असली हरदेई को धोखा देकर गिरफ्तार कर लिया और स्वयं हरदेई की सूरत बन जमना और सरस्वती को धोखे में डाला, यह तिलिस्मी घाटी का रास्ता देख लिया और भूतनाथ को इस घाटी के अन्दर लाकर जमना, सरस्वती और इंदुमति को आफत में फँसा दिया। भूतनाथ ने अपने हिसाब से तो उन तीनों को मार डाला था परन्तु ईश्वर ने उन्हें बचा लिया, सुनो हम इसका खुलासा हाल तुमसे बयान करते हैं।
इतना कहकर बाबाजी ने भूतनाथ और रामदास का पूरा-पूरा हाल जो हम ऊपर के बयानों में लिख आए हैं कह सुनाया अर्थात् जिस तरह रामदास ने हरदेई को गिरफ्तार किया, स्वयं हरदेई की सूरत बनकर कई दिनों तक जमना, सरस्वती के साथ रहा, घाटी में आने-जाने का रास्ता देखकर भूतनाथ को बताया, प्रभाकर सिंह की सूरत बनकर जिस तरह भूतनाथ इस घाटी के अन्दर आया और जमना, सरस्वती, और इंदुमति तथा और लौंडियों को भी कुएँ के अन्दर फेंककर बखेड़ा तै किया और अन्त में रामदास स्वयं जिस तरह कुएँ के अन्दर जाकर खुद भी उसमें फंस गया आदि-आदि रत्ती-रत्ती हाल बयान किया, जिसे सुन कर प्रभाकर सिंह हैरान हो गये और ताज्जुब करने लगे।
प्रभाकरसिंह : (आश्चर्य से) यह सब हाल आपको कैसे मालूम हुआ?
बाबा : इसके पूछने की कोई जरूरत नहीं, जब हमको तुम पहिचान जाओगे तब स्वयं तुम्हें इसका सबब मालूम हो जाएगा। (रामदास की तरफ देख के) क्यों रामदास, जो कुछ हमने कहा वह सब सच है या नहीं?
रामदास : बेशक् आपने जो कुछ कहा सब सच है।
बाबा : (रामदास से) अब तो बताओ कि तुम्हारा गुरु भूतनाथ कहाँ है?
रामदास : मुझे नहीं मालूम।
बाबा : (हँसकर) अगर तुम्हें मालूम नहीं है तो मुझे जरूर मालूम है! (प्रभाकर सिंह से) अच्छा अब हम जाते हैं, जरूरत होगी तो फिर मुलाकात करेंगे। केवल इसीलिए तुम्हारे पास आए थे कि इस रामदास और भूतनाथ की चालबाजी से तुम्हें होशियार कर दें, जिसमें इन लोगों के बहकाने में पड़कर तुम जमना, सरस्वती और इंदुमति के साथ किसी तरह की बेमुरौबती न कर जाओ। मगर अफसोस हमारे पहुँचने के पहिले ही तुमने इन लोगों को धोखे में पड़ कर इंदुमति और साथ ही उसके जमना-सरस्वती का तिरस्कार कर दिया और उन लोगों के साथ ऐसा बर्ताव किया जो तुम्हारे ऐसे बुद्धिमान के योग्य न था।
प्रभाकर सिंह : (डबडबाई हुई आँखों से और एक लंबी साँस लेकर) बेशक् मैंने बहुत बुरा धोखा खाया, मेरी किस्मत ने मुझे डुबा दिया और कहीं का न रखा! (आसमान की तरफ देखकर) वे सर्वशक्तिमान जगदीश्वर! क्या मैं इसीलिए इस दुनिया में आया था कि तरह-तरह की तकलीफें उठाऊँ? जबसे मैंने होश संभाला तब से आज तक साल-भर सुख से बैठना नसीब न हुआ। किस-किस दुःख को रोऊँ और किस-किस को याद करूँ! हाय, माता-पिता की अवस्था पर ध्यान देता हूँ तो कलेजा मुँह को आता है, अपनी दुर्दशा पर विचार करता हूँ तो दुनिया अँधकारमय दिखाई पड़ती है। तो फिर क्या मैं ऐसा ही बदकिस्मत बनाया गया हूँ? क्या यह मेरे कर्मों का फल है! कदाचित् ऐसा भी हो तो फिर दुनिया में जितने आदमी हैं सभी तो अपने-अपने कर्म का फल भोग रहे हैं। फिर मुझमें और अन्य अभागों में भेद ही किस बात का ठहरा? और जब अपने ही कर्मों का फल भोगना ही ठहरा तो तुम्हारा भरोसा ही करके क्या किया? अगर यह कहो कि इस भरोसे का फल किसी और समय मिलेगा तो यह भी कोई बात न ठहरी, जब मेरे समय पर तुम्हारा भरोसा काम न आया तो खेत सूखे पर वर्षा वाली कहावत सिद्ध हुई।
बाबाजी : (बात काटकर) बेटा, घबराओ मत और परमेश्वर का भरोसा मत छोड़ो, वह तुम्हारे सभी दुखों को दूर करेगा। उसकी कृपा के आगे कोई बात कठिन नहीं है। यदि वह दयालु होगा तो तुम्हें तुम्हारे माता-पिता से भी मिला देगा और तुम्हारी स्त्री इंदुमति भी पुन : तुम्हारी सेवा में दिखाई दे जाएगी। बस अब मैं जाता हूँ, ईश्वर तुम्हारा भला करे।
प्रभाकर सिंह : (बाबाजी को रोककर) कृपा कर और भी मेरी दो-एक बातों का जवाब देते जाइए।
बाबाजी : पूछो क्या पूछना चाहते हो!
प्रभाकर सिंह : जिस मनुष्य के विषय में यह कहा जा सकता है कि वह पंच तत्त्व में मिल गया भला उससे पुन : क्यों कर मुलाकात हो सकती है!
बाबाजी : ईश्वर की माया बड़ी प्रबल है, मैं यह नहीं कह सकता कि ऐसा अवश्य ही होगा परन्तु यह जरूर कहूँगा कि ईश्वर पर भरोसा रखने वाले के लिए कोई भी बात असंभव नहीं। अच्छा पूछो और क्या पूछते हो।
प्रभाकर सिंह : मैं यह जानना चाहता हूँ कि आज के बाद मैं आपसे मिलना चाहूँ तो क्यों कर मिल सकता हूँ?
बाबाजी : तुम अपनी इच्छानुसार मुझसे नहीं मिल सकते।
प्रभाकर सिंह : आपका परिचय जान सकता हूँ?
बाबाजी : नहीं।
इतना कहकर बाबाजी वहाँ से रवाना हो गये और देखते-देखते प्रभाकर सिंह की नजरों से गायब हो गये।
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बाबाजी के चले जाने के बाद कुछ देर तक प्रभाकर सिंह खड़े कुछ सोचते रहे, इसके बाद क्रोध भरी आँखों से रामदास की तरफ देखा और कहा, “रामदास, यद्यपि लोग कहते हैं कि ऐयारों को मारना न चाहिए बल्कि कैद कर रखना चाहिए परन्तु यह काम ऐयारों का और राजा लोगों का है। मैं न तो ऐयार हूँ और न राजा ही हूँ, इसके अतिरिक्त मेरे पास कोई ऐसी जगह भी नहीं है जहाँ तुझे कैद करे रखूँ अतएव मैं तुझ पर किसी तरह का रहम नहीं कर सकता। (रामदास का खंजर उसके आगे फेंक कर) ले अपना खंजर उठा ले और मेरा मुकाबला कर क्योंकि मैं उस आदमी पर वार करना पसन्द नहीं करता जिसके हाथ में किसी तरह का हर्बा नहीं है, साथ ही तूने मुझ पर जो जुल्म किया है मैं किसी तरह भी माफी पाने लायक नहीं?
रामदास : (खंजर उठाकर) तो क्या मैं किसी तरह भी माफी पाने लायक नहीं?
प्रभाकर सिंह : नहीं, अगर इंदुमति इस दुनिया से उठ न गई होती तो कदाचित् मैं तेरा अपराध क्षमा कर सकता, मगर इंदुमति का वियोग, जो केवल तेरी ही दुष्टता के कारण हुआ, मैं सह नहीं सकता।
रामदास : अगर तुम्हारी इंदुमति को तुमसे मिला दूँ तो?
प्रभाकर सिंह : अरे दुष्ट! क्या अब भी तू मुझे धोखा दे सकेगा? जिसकी चिता मैं अपनी आँखों से देख चुका हूँ उसके विषय में तू इस तरह की बातें करता है मानों ब्रह्मा तू ही है।
रामदास : नहीं-नहीं, आपने मेरा मतलब नहीं समझा।
प्रभाकर सिंह : तेरा मतलब मैं खूब समझ चुका, अब समझाने की जरूरत नहीं है, बस अब सम्हाल जा और अपनी हिफाजत कर।

इतना कहकर प्रभाकर सिंह ने म्यान से तलवार खींच ली और रामदास को ललकारा। रामदास ने जब देखा कि अब वह भाग कर भी अपने को प्रभाकर सिंह के हाथ से नहीं बचा सकता तब उसने खंजर सम्हाल कर प्रभाकर सिंह का मुकाबला किया। प्रभाकर सिंह ऐसे बहादुर आदमी से मुकाबला करना रामदास का काम न था, दो ही चार हाथ के लेने-देने के बाद प्रभाकर सिंह की तलवार से रामदास दो टुकड़े होकर जमीन पर गिर पड़ा और वहाँ की मिट्टी से अपनी तलवार साफ कर के प्रभाकर सिंह पुन : उसी दीवार की तरफ रवाना हुए जिसके अन्दर इंदुमति की सुलगती हुई चिता देख चुके थे।
तरह-तरह की बातें सोचते हुए प्रभाकर सिंह धीरे-धीरे चलकर उसी चिता के पास पहुँचे जो अभी तक निर्धूम हो जाने पर भी बड़े अंगारों के कारण धधक रही थी और जिसके बीच-बीच में हड्डियों के छोटे-छोटे टुकड़े दिखाई दे रहे थे।
भूतनाथ-खण्ड-3/ भाग-7 दिनांक 17 Mar. 2022 समय 06:00 बजे साम प्रकाशित होगा

