Abhishap by rajvansh Best Hindi Novel | Grehlakshmi
Abhishap by rajvansh

‘आप-आपका नाम?’

‘समझदार लोग पेड़ गिनने से नहीं-आम खाने से मतलब रखते हैं पूरन जी! मैं आपसे कुछ कहने आया हूं।’

‘बैठिए।’ पूरन ने हकलाते हुए कहा और एक कुर्सी निखिल की ओर सरका दी।

अभिशाप नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

निखिल बैठ गया। कीमती वस्त्रों में वह किसी राजकुमार से कम न लगता था। कुछ क्षणों तक पूरन को घूरते रहने के पश्चात् वह उससे बोला- ‘शिल्पा आप ही की बेटी है?’

‘ज-जी हां! किन्तु वह अपनी मां के साथ बाजार गई है। क्या आपको शिल्पा से कोई काम था?’

‘फिलहाल तो हम आपसे मिलने आए हैं।’

‘सेवा बताइए।’ पूरन ने कहा। वह निखिल के व्यक्तित्व से इतना प्रभावित था कि उससे नजरें मिलाने का साहस न कर पा रहा था।

निखिल ने सिगरेट सुलगाकर धुआं उड़ाया और फिर बोला- ‘सुना है-आपकी बेटी का विवाह हो रहा है?’

‘जी हां! सिर्फ चार दिन रह गए हैं।’

‘यह चार दिन कभी नहीं आएंगे मिस्टर पूरनचंद!’

पूरन चौंककर बोला- ‘क्या मतलब?’

‘आप इस शादी को रोकेंगे।’

‘रोकेंगे-किन्तु क्यों?’

‘मिस्टर पूरनचंद! हम आपके पास इसीलिए आए हैं।’

‘किन्तु-किन्तु यह कैसे हो सकता है? ठीक चार दिन बाद मेरी बेटी की शादी है और आप कह रहे हैं कि मैं शादी रोक दूं। आखिर क्यों चाहते हैं आप ऐसा? क्या संबंध है आपका मेरी बेटी से?’

निखिल उठा और गुर्राते हुए बोला- ‘हम आपके इन प्रश्नों का उत्तर देने नहीं देंगे मिस्टर पूरनचंद! किन्तु हम इतना अवश्य बताएंगे कि हमारा आपकी बेटी से कोई संबंध नहीं। हमारा संबंध सिर्फ इस बात से है कि आपकी बेटी की शादी राजाराम के बेटे अखिल से न हो। उस घर के अतिरिक्त आप कहीं भी अपनी बेटी की शादी कर सकते हैं, हमें कोई ऐतराज न होगा।’

‘मगर यह असंभव है।’

‘असंभव को संभव बनाया जा सकता है।’

‘इसके पीछे दो कारण हैं। पहला तो यह कि शादी की सभी तैयारियां पूरी हो चुकी हैं और आरंभ की एक-दो रस्में भी पूरी हो गई हैं। दूसरा कारण यह है कि अखिल और शिल्पा एक-दूसरे को चाहते हैं। मैं किसी भी दबाव में आकर अपनी बेटी का हृदय नहीं तोड़ सकता। आप नहीं जानते, उसने बेटी होकर भी मेरे लिए क्या-क्या किया है। पिछले छह महीने से बीमार था मैं। बीमारी के कारण रोजी-रोटी भी चली गई। डॉक्टरों ने ऑपरेशन का खर्च तीस हजार बताया। मेरे पास तो एक पैसा भी न था। इधर-उधर हाथ फैलाए तो किसी ने हजार रुपए भी न दिए। बीमारी बढ़ती गई-घर में चूल्हा जलना बंद हो गया। मेरी बेटी सुबह पानी के घूंट भरकर घर से निकलती-दिन भर नौकरी के लिए भटकती और शाम को फिर पानी पीकर सो जाती। ऐसा कई बार हुआ। अंततः ईश्वर ने उसकी सुनी और उसे किसी कंपनी में नौकरी मिल गई। कंपनी का मालिक इतना दयावान निकला कि उसने मेरे ऑपरेशन के लिए रुपए भी दे दिए। इस प्रकार मेरा ऑपरेशन भी हो गया और घर में चूल्हा भी जलने लगा। मेरी बेटी ने दिन-रात मेहनत की, किन्तु उसने वो कर दिखाया जो शायद एक बेटा भी न कर पाता। धन्य है मेरी बेटी-धन्य है।’ इतना कहकर पूरन एक पल के लिए रुका।

फिर निर्णायक स्वर में बोला- ‘नहीं साहब! आप कुछ भी कहें, संसार कुछ भी कहे-किन्तु मैं अपनी बेटी के अरमानों का गला नहीं दबा सकता! आशा है-आप मुझे क्षमा करेंगे।’

‘मगर।’ दांत पीसकर निखिल बोला- ‘आप ऐसा करेंगे पूरनचंद जी! आपको ऐसा करना पड़ेगा।’

पूरन निखिल को यों चौंककर देखने लगा-मानो धमकी को समझने की कोशिश कर रहा हो।’

निखिल फिर बोला- ‘और ऐसा कहकर हम आपको कोई धमकी नहीं दे रहे हैं पूरनचंद जी! हम आपके विरुद्ध कोई अनुचित कदम नहीं उठाएंगे। हम तो सौदा करेंगे आपसे।’

‘स-सौदा?’ पूरन के होंठ खुले।

प्रत्युत्तर में निखिल ने अपनी पतलून की जेब में हाथ डाला और सौ-सौ के नोटों की दो गड्डियां निकालकर पूरन के सामने रख दीं।

पूरन उन गड्डियों को आंखें फाड़कर देखने लगा।

निखिल बोला- ‘यह 20 हजार रुपए रखिए और अपना निर्णय बदल दीजिए। इसी समय कह दीजिए अखिल से की यह शादी नहीं होगी। और हां-जब आप अपनी बेटी का रिश्ता किसी दूसरे घर में करेंगे तो हम आपको शादी के लिए इतनी ही रकम और देंगे।’

पूरन का सर घूम गया।

निखिल उसे ध्यान से देखने लगा।

उसी समय कोई कमरे में दाखिल हुआ और उसने नोटों की दोनों गड्डियां उठाकर पूरी शक्ति से बरामदे में फेंक दीं।

निखिल एवं पूरन दोनों ही चौंक पड़े।

चौंककर देखा-यह शिल्पा थी। शिल्पा का मुख तमतमाया हुआ था और आंखों से जैसे घृणा की चिंगारियां छूट रही थीं। निखिल को उसने घृणा से देखा और क्रोध से दांत पीसते हुए बोली- ‘मिस्टर निखिल वर्मा! एक सीमा होती है नीचता की भी, किन्तु आपने यहां आकर यह सिद्ध कर दिया कि नीचता सीमा से भी आगे बढ़ सकती है। कितनी विचित्र-सी बात है कि जब आपका मुझ पर कोई जादू न चला तो आप पापा को खरीदने चले आए।’

क्रोध एवं अपमान के कारण निखिल का पूरा जिस्म कांपने लगा और आंखों से क्रोध के शोले बरसने लगे। दांत पीसकर वह गुर्राया- ‘मिस शिल्पा रानी! अनुभव तुम्हें भी है और हमें भी। दौलत पास हो तो कुछ भी खरीदना मुश्किल नहीं होता।’

‘मिस्टर निखिल वर्मा!’ कड़ुवाहट से एक-एक शब्द को चबाते हुए शिल्पा ने कहा- ‘दौलत सिर्फ किसी की मजबूरी खरीद सकती है, किन्तु उसकी आत्मा और हृदय नहीं। आप जिस निर्णय को बदलवाने के लिए यहां आए हैं, उसका संबंध मजबूरी से नहीं, बल्कि हृदय और आत्मा से है। आप अपनी समस्त दौलत लुटाकर भी वह निर्णय नहीं बदल सकते मिस्टर वर्मा! अतः उठाइए अपनी दौलत और चले जाइए यहां से। जाने से पहले एक बात का ध्यान जरूर रखिए। अगर आपने मुझे ब्लैकमेल करने की कोशिश की-अथवा आप दोबारा यहां आए तो आपके लिए मुझसे बुरा कोई न होगा।’

निखिल के जबड़े भिंच गए, किन्तु उसने कुछ न कहा और नोटों की गड्डियां उठाकर तेजी से बाहर चला गया।

शिल्पा उसे घूरती रही और पूरन सन्नाटे जैसी स्थिति में खड़ा था।

रात का समय था। आनंद एवं मनु एक ही बिस्तर पर अपरिचितों की भांति लेटे थे। नींद दोनों की आंखों में न थी। शायद दोनों ही एक-दूसरे से कुछ कहना चाहते थे-किन्तु कहने का साहस किसी में न था।

अंत में आनंद के होंठ खुले। मनु की ओर करवट बदलकर उसने पूछा- ‘नींद आ गई?’

‘क्यों?’ उसी मुद्रा में मनु ने पूछा। स्वर रूखा था।

‘कुछ कहना था तुमसे।’

‘कल से जो कुछ कह रहे हो वह पर्याप्त नहीं?’

‘भूल तुम्हारी थी। तुम्हें उसे मानना चाहिए था। कहते हैं-विद्वान वह है जो अपनी भूलों को सुधार ले।’

‘मैंने कोई भूल नहीं की।’

‘अर्थात्-तुमने जो कुछ भी किया-ठीक किया?’

‘हां।’

आनंद को मनु के इस उत्तर से आघात लगा। एक पल मौन रहकर वह बोला- ‘मनु! एक बात का ध्यान रखो। रिश्तों का महल बनने में बहुत वक्त लगता है-मगर टूटने में एक पल की भी देर नहीं लगती।’

‘रिश्तों का वह महल-जिसमें शक और अविश्वास की दीवारें खड़ी हों, मुझे बिलकुल पसंद नहीं। उसमें रहने से तो ये इच्छा होगा कि मैं उसे अपनी ठोकर से गिरा दूं।’

मनु का यह उत्तर भी पीड़ादायक था।

आनंद बोला- ‘मैंने तुम्हें शक और अविश्वास की दृष्टि से कभी नहीं देखा। मैंने वही देखा है-जो देखने के लिए मिला है और तुमने दिखाया है। क्या तुमने मांडका के खंडहर एवं सागर सरोवर के निकट निखिल से शारीरिक संबंध स्थापित नहीं किए?’

‘नहीं।’

आनंद उसके और भी निकट गया और शांत लहजे में बोला- ‘मनु! जो सच है, उस पर झूठ का आवरण डालने की कोशिश न करो। यह सब मैं अपनी आंखों से देख चुका हूं।’

मनु ने कुछ न कहा।

आनंद फिर बोला- ‘तुम भली प्रकार जानती हो कि मैंने तुमसे तुम्हारे अतीत के विषय में कभी कुछ नहीं पूछा। कभी यह जानने का प्रयास न किया कि तुमने बीते हुए जीवन में क्या किया है। मेरा तुम्हारे उस जीवन पर कोई अधिकार भी न था। उस पर सिर्फ तुम्हारा अधिकार था, अतः तुम उसे अपनी इच्छानुसार जी सकती थीं। किंतु विवाह के पश्चात् तो तुम्हारा वर्तमान मेरा है। मेरा तुम्हारे वर्तमान पर पूरा अधिकार है-क्योंकि तुम मेरी पत्नी हो।’

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मनु के होंठ खुले। कड़ुवाहट से बोली- ‘पत्नी होने का अर्थ यह नहीं कि मैंने तुम्हारी दासता स्वीकार कर ली है। मैं तुम्हारी दासी बन गई हूं।’

‘मैंने तुम्हें अपनी दासी समझा भी नहीं मनु! वैसे भी प्रेम का रिश्ता बराबर का रिश्ता होता है और उसमें कोई किसी का दास नहीं होता। मैंने तो केवल यह चाहा कि तुम प्रेम के उस मार्ग पर पूरी ईमानदारी से चलो। और यह तभी हो सकता है जब तुम्हारे मन में मेरे अतिरिक्त किसी दूसरे के लिए कोई स्थान न हो।’

‘मैं बहस के मूड में नहीं।’

‘मनु! यह बहस नहीं। इस बात का संबंध हमारे दाम्पत्य जीवन से है। हमें इस जीवन को बिखरने से बचाना चाहिए।’

‘बिखर भी जाए तो मुझे चिंता नहीं।’

आनंद ने बेचैनी से होंठ काट लिए। मनु का यह वाक्य उसे अंदर तक बेंध गया था। वह कुछ क्षणों तक तो मौन रहा और फिर निःश्वास लेकर बोला- ‘तो यूं कहो न कि तुम इस संबंध को तोड़ने का निश्चय कर चुकी हो?’

‘तुम मुझे विवश कर रहे हो कि मैं संबंध तोड़ दूं।’

‘वह क्यों कर?’

‘वह इसलिए-क्योंकि निखिल तुम्हें पसंद नहीं और मेरी विवशता यह है कि मैं उससे मिले बिना नहीं रह सकती।’

‘ओह!’ आनंद के होंठों से निकला।

मनु बोली- ‘यदि तुम इस संबंध को तोड़ना नहीं चाहते तो तुम्हें अपने अंदर इतनी सहन शक्ति पैदा करनी होगी। तुम्हें अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखना होगा और सब कुछ सहना होगा।’

इस बार जैसे कोई हथौड़ा आनंद की कनपटी से टकराया। वह एक झटके से उठा और अपने क्रोध को पीते हुए मनु से बोला- ‘अर्थात् तुम मेरी आंखों के सामने निखिल के साथ रंगरेलियां मनाओगी और मैं मौन दर्शक की भांति सब कुछ देखूंगा? तुम मेरे पौरुष को हर रोज चुनौती दोगी और मैं केवल यह सोचकर खामोश रहूंगा कि मुझे इस बंधन को निभाना है। नहीं मनु! मैं इतना नीच और बेगैरत नहीं। मुझे तुम्हारे हाथों से यह जहर पीना स्वीकार नहीं।’ इतना कहकर वह उठा और चादर उठाकर फर्श पर बिछे कालीन पर लेट गया।

फिर देर तक मौन छाया रहा।

मनु ने आनंद की ओर से मुंह फेर लिया।

जबकि आनंद कुछ देर तक तो चुपचाप कालीन पर लेटा रहा, किन्तु जब बेचैनी सीमा पार करने लगी तो वह द्वार खोलकर बाहर चला गया।

मनु ने उसे रोकने की आवश्यकता न समझी।

अभिशाप-भाग-15 दिनांक 05 Mar. 2022 समय 04:00 बजे साम प्रकाशित होगा

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