कौन हैं पूज्य श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज?: Premanand Govind
Premanand Govind Sharan Ji

Premanand Govind Sharan Ji Maharaj: भक्तिपूर्ण पारिवारिक पृष्ठभूमि से जुड़े पूज्य श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज के मुखारविंद से निकले हुए शब्द व्यक्ति के ज्ञान चक्षु खोलने का काम करते हैं। अब आप सोच रहे होंगे कि आखिर ये कौन हैं और क्यों हम आज इनकी बात आपसे कर रहे हैं? दरअसल, भारतीय टीम के स्टार खिलाड़ी विराट कोहली बीते दिनों अपनी पत्नी अनुष्का शर्मा और बेटी वामिका के साथ वृंदावन गए थे। जहां उन्होंने प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज का आशीर्वाद लिया। आज के इस लेख में हम आपको श्री हित प्रेमानंद जी के बारे में बताने जा रहे हैं।

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पूज्य महाराजश्री का आविर्भाव एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम अनिरुद्ध कुमार पांडे था। महाराजश्री के माता-पिता नियमित रूप से संत-सेवा और नियमित भक्ति सेवा में लगे रहते थे। उनके बड़े भाई ने श्रीमद्भागवत पढ़कर परिवार की आध्यात्मिक आभा को बढ़ाया, जिसे पूरा परिवार सुनता और संजोता था। धार्मिक माहौल के बीच पले-बड़े श्री हित प्रेमानंद जी के भीतर भी आध्यात्मिक चिंगारी तीव्र हो गई। उन्होंने बहुत कम उम्र में ही पूजा-पाठ करना शुरू कर दिया था। कहते हैं कि 5वीं कक्षा में उन्होंने गीता प्रेस की सुख सागर को पढ़ना शुरू कर दिया था। 9वीं कक्षा तक पहुंचते-पहुंचते उन्होंने अध्यात्म का रास्ता चुन लिया था।

संन्यास की ओर राह

Premanand Govind
Premanand Govind Sharan Ji

महाराजश्री ने महज 13 साल की उम्र में अपना घर छोड़ दिया था। छोटी उम्र में ही उन्होंने संन्यासियों से अपनी दीक्षा ली, जहां उनका पूरा आनंद ब्रह्मचारी रखा गया। कुछ समय बाद उन्होंने सन्यास भी स्वीकार कर लिया। उन्होंने अपने अस्तित्व के लिए केवल आकाशवाणी को स्वीकार किया, जिसका अर्थ है केवल स्वीकार करना, जो बिना किसी व्यक्तिगत प्रयास के ईश्वर की दया से प्रदान किया जाता है।

गंगा नदी से संबंध

Premanand Govind Sharan Ji
Premanand Govind relation with Ganga River

उनका अधिकांश जीवन गंगा नदी के तट पर बीता, क्योंकि महाराजश्री ने कभी किसी आश्रम के जीवन को स्वीकार नहीं किया। बहुत जल्द गंगा उनके लिए दूसरी मां बन गई। कठोर सर्दियों में भी उन्होंने गंगा में तीन बार स्नान करने की अपनी दिनचर्या को कभी नहीं रोका। वह दिनों तक बिना भोजन के उपवास करते थे और उनका शरीर ठंड से कांपता था, लेकिन वह भगवन ध्यान में पूरी तरह से लीन रहते थे।

महाराजश्री का वृंदावन आना 

संन्यास मार्ग में ही महाराजश्री को भगवान सदाशिव के स्वयं दर्शन हुए थे। महाराज स्वयं कहते हैं कि भगवान शिव की कृपा से ही वह वृंदावन आए थे। कहते हैं महाराजश्री एक दिन बनारस में एक पेड़ के नीचे बैठकर ध्यान कर रहे थे, तभी उनको राधा-कृष्ण की महिमा का आभास हुआ। बाद में, एक संत की एक प्रेरणा ने उन्हें रास लीला में भाग लेने के लिए राजी किया। उन्होंने एक महीने के लिए रास लीला में भाग लिया। यह एक महीना उनके जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। बाद में महाराजश्री मथुरा जाने के लिए एक ट्रेन में सवार हुए और वृंदावन आ गए। कहते हैं महाराजश्री की वृंदावन में शुरुआती दिनचर्या वृंदावन की परिक्रमा और बांके बिहारी के दर्शन थी।

राधा वल्लभ मंदिर में जाना

बांके बिहारीजी के मंदिर में उन्हें एक संत ने श्री राधावल्लभ मंदिर जाने को कहा। महाराजश्री मंदिर गए और राधावल्लभ जी को निहारते हुए घंटों खड़े रहे। सम्मानित गोस्वामी ने इस पर ध्यान दिया। एक दिन पूज्य श्री हित मोहितमल गोस्वामी ने एक श्लोक का पाठ किया, लेकिन महाराजश्री उसके अर्थ को समझ नहीं पा रहे थे। गोस्वामी जी ने उन्हें श्री हरिवंश का नाम जपने के लिए प्रोत्साहित किया। महाराजश्री ने उसी पवित्र नाम का जाप किया।

गुरू से ली दीक्षा

महाराज जी ने दीक्षा के लिए पूज्य श्री हित मोहितमल गोस्वामी जी से संपर्क किया। उनको शरनागत मंत्र के साथ राधावल्लभ सम्प्रदाय में दीक्षा दी गई। कुछ दिनों बाद पूज्य श्री गोस्वामी जी के आग्रह पर महाराजश्री अपने वर्तमान सद्गुरु पूज्य श्री हितगौरी शरण जी महाराज से मिले, जिन्होंने उन्हें सहचरी भव और नित्यविहार रास में दीक्षा दी। महाराज जी 10 वर्षों तक अपने सद्गुरु देव की घनिष्ठ सेवा में रहे। अपने सद्गुरु देव के अनुग्रह और श्री वृंदावनधाम की कृपा से जल्द ही, वे पूरी तरह से श्री राधा के चरण कमलों में अगाध श्रद्धा विकसित करते हुए सहचरी भव में लीन हो गए।