Power of Knowledge: जीवन को एक क्रीड़ा की भांति खेलो। मंच के ऊपर आपको जिस पात्र का अभिनय करना है उसी प्रकार करो। किन्तु जीवन का अंतिम लक्ष्य मत भूलो, उसे तो प्राप्त करना ही है।
शिक्षा प्राप्ति के साधन शिक्षा-ग्रन्थ, संस्थाएं और अभ्यास है। संस्कृति की उत्पत्ति और विकास सांस्कृतिक ग्रन्थों से, सांस्कृतिक संस्थाओं से और सांस्ककृतिक पूर्णता का अभ्यास डालने से होता है। इसी प्रकार ध्यान की एकाग्रता रखने और उसमें वृद्धि करने के लिए शास्त्रों का सावधानी पूर्वक अध्ययन, सत्पुरुषों का साथ और सदा सावधानीपूर्वक ध्यानमय जीवन जीने का अभ्यास डालने की आवश्यकता है।
कुछ साधक पूर्णता प्राप्त करने का सीधा रास्ता चाहते हैं और उसी की खोज में रहते हैं। दुर्भाग्य से कोई बहुत छोटा रास्ता नहीं है, किन्तु कभी-कभी धर्म के व्यापारी अध्यात्म के काले बाजार में दावा करते हैं कि उनके पास आकर उपयुक्त मूल्य चुकाने पर वे एक सप्ताह में ही आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त करा देंगे। इस प्रकार की सूचनाएं पत्रों और पर्चों में निर्लज्जता से छापी और बांटी भी जाती हैं और अपने देश में शास्त्रों से अनभिज्ञ भोली जनता उनके जाल में फंस भी जाती है। हमें एसी जनता से निश्चय ही सहानुभूति है किन्तु धोखेबाज गुरुओं की भी निन्दा करना व्यर्थ है, क्योंकि वे हमारी ही दुर्बलता का लाभ उठाकर अपना व्यापार चलाते हैं। हमें अपनी ही दुर्बलता और अज्ञानता की आलोचना करनी चाहिए।
अध्यात्म में छोटा रास्ता खोजने का अर्थ है मिथ्या वस्तु की कामना करना। कोई सद्ïगुरु छोटा रास्ता दिखाने का दावा नहीं कर सकता। सबसे छोटा रास्ता यही है कि हम अपने अहंकार के दो टुकड़े कर दें और उसमें सुरंग बनाकर हम अपने भीतर सत्य के साम्राज्य में प्रवेश कर जायें।
इस मार्ग में व्यक्तित्व की मनोवैज्ञानिक दुर्वस्थाओं से उत्पन्न लगभग सभी बाधाएं बताई हुई विधियों का सतत अभ्यास करने से दूर हो जाती हैं। सभी साधकों को बस यही करना है कि वे अभ्यास करें। कोई औषधि कितनी ही अच्छी क्यों न हो किन्तु रोगी उस औषधि को पाने मात्र से स्वस्थ न हो जायेगा।
उसे उपयुक्त मात्रा में नियमित रूप से कुछ समय तक खाना और पचाना पड़ेगा। इस प्रकार, औषधि को उसके शरीर का अभिन्न भाग बन जाना चाहिए। इसी प्रकार, सिद्धान्त और मान्यताएं, विधियां और साधनायें हमारे आन्तरिक व्यक्तित्व में उत्पन्न होने वाले रोगों को तब तक भली-भांति दूर नहीं कर सकतीं जब तक हम असत्ï का त्याग कर सत्ï को धैर्य-पूर्वक धीरे-धीरे स्वीकार नहीं कर लेते।
अत: अब तक हमने जो कुछ उसके अनुसार साधक को नित्य ध्यान का अभ्यास करना चाहिए। सत्यनिष्ठïा के साथ साधना करो। चौबीस घण्टे सचेत होकर परब्रह्मï के भाव में ही जीवन जिओ। जीवन को एक क्रीड़ा की भांति खेलो। मंच के ऊपर आपको जिस पात्र का अभिनय करना है उसी प्रकार करो। किन्तु जीवन का अंतिम लक्ष्य मत भूलो, उसे तो प्राप्त करना ही है। विश्वमंच पर चल रहे विशाल नाटक का निर्देशन ईश्वर कर रहा है।
उसके द्वारा निर्धारित अभिनय आप कुशलता-पूर्वक करें। ईश्वर हमसे जो कुछ चाहता है, वह उसने धर्म-ग्रन्थों में दे दिया है। उसमें उसने जीवन की नैतिकता, आचार और उच्च मूल्यों का निर्धारण कर दिया है। अच्छी तरह रहो। दया, समझदारी और प्रेम का व्यवहार करो।
जीवन के उच्च और सुन्दर मूल्यों को धारण करने का प्रयास करते हुए उन मूल्यों के प्रति अपने मन में श्रद्धा उत्पन्न करो। हम जिस अनुपात में निम्न मूल्यों और दुर्गुणों से अनासक्त होंगे, उसी अनुपात में हम जीवन के उच्च मूल्यों से प्रेम करेंगे और उन्हें धारण करने में सफल हो सकेंगे। हम एक ओर से विरक्त होते हैं तभी दूसरी ओर आसक्त होते हैं। वैराग्य के बिना कोई सफलता सम्भव नहीं।
यदि आप आगे बढ़ना चाहते हैं तो वर्तमान को त्याग कर ही आगे बढ़ सकते हैं। जीवन तो जन्म से मृत्यु की ओर क्षण-क्षण आगे बढ़ने वाली गति है। हम प्रत्येक क्षण का त्याग इसलिए करते हैं कि अगले क्षण में हम जी सकें।
