Biography of Swami Vivekananda
Biography of Swami Vivekananda

स्वामी विवेकानंद भारत की महान व सम्माननीय व्यक्तित्वों में से एक थे। उनका वास्तविक नाम नरेंद्रनाथ दत्त था। वह रामकृष्ण परमहंस के प्रमुख शिष्य भी कहलाते हैं।

वह दो महान संगठनों- रामकृष्ण मिशन व रामकृष्ण मठ के संस्थापक थे। उन्होंने पश्चिमी जगत में वेदांत के हिंदू दर्शन व योग के प्रचार के लिए पूरा जीवन लगा दिया। उन्होंने 19वीं सदी में, हिंदुत्व को प्रमुख विश्वधर्म के स्तर पर लाने का सराहनीय कार्य किया।

नरेंद्रनाथ दत्त का जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता के प्रतिष्ठित व समृद्ध बंगाली परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त व माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था।

विश्वनाथ दत्त एक बुद्धिमान व विद्वान व्यक्ति थे तथा भुवनेश्वरी देवी धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं।

नरेंद्रनाथ दत्त बचपन से ही माता-पिता से प्रभावित थे। वह एक उत्साही बालक थे। उन्हें धर्म व नई वस्तुओं के विषय में जानने का शौक था। उन्होंने अपनी मां से धार्मिक विचार व प्रवृत्तियां ग्रहण कीं, परिणामस्वरूप नरेंद्रनाथ एक गंभीर व बुद्धिमान युवक बने।

Biography of Swami Vivekananda
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वे बचपन से ही ध्यान का अभ्यास करते थे। वे आध्यात्मिकता व जीवन-दर्शन के प्रति रुझान रखते थे। उन्होंने सभी प्रमुख हिंदू ग्रंथों-रामायण, महाभारत, भगवद्गीता, वेद व पुराण आदि में रुचि ली। वह भारतीय शास्त्रीय संगीत-वादन में भी रुचि लेते थे।

अल्पायु से ही वे समाज में फैले अंधविश्वासों व कुरीतियों के विरुद्ध आवाज़ उठाने लगे थे।

सन् 1877 में, उनके पिता पूरे परिवार के साथ रायपुर आ गए, किंतु तब वहां कोई अच्छा विद्यालय नहीं था। नरेंद्रनाथ का अधिकांश समय पिता के साथ आध्यात्मिक विषयों के विचार-विमर्श में ही बीतता था।

Biography of Swami Vivekananda
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वे वहां दो वर्षों तक रहे। फिर कोलकाता लौट आए, किंतु वे दो वर्ष उनके जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण रहे। माना जाता है कि उन्होंने इन्हीं दो वर्षों में प्रबोध पाया। तभी रायपुर को स्वामी विवेकानंद का जन्मस्थल भी कहा जाता है।

नरेंद्रनाथ ने ईश्वरचंद्र विद्यासागर की संस्था, प्रेसीडेंसी कॉलेज व जनरल असेम्बली संस्था से अपनी शिक्षा ग्रहण की। वह एक प्रतिभाशाली छात्रा थे। उन्होंने दर्शन व कला से संबंधित शिक्षा ग्रहण की व कला संकाय से स्नातक की उपाधि ली।

फिर वे केशव चंद्रसेन द्वारा चलाए गए ब्रह्म समाज से जुड़े रहे। वहीं उनकी प्रारंभिक मान्यताओं को आकार मिला। वे ईश्वर के निराकार रूप को पूजने लगे व मूर्तिपूजा का बहिष्कार किया।

Biography of Swami Vivekananda
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एक दिन साहित्य की कक्षा में, कॉलेज के प्राचार्य ने सबको दक्षिणेश्वर के रामकृष्ण परमहंस जी के विषय में बताया। उनके बारे में सुनकर नरेंद्र प्रभावित हुए व उनसे मिलने का निर्णय ले लिया।

नवंबर 1881 में, नरेंद्र पहली बार रामकृष्ण से मिले व कहा- “गुरुजी, पहले भी कई लोगों से यह प्रश्न पूछा, किंतु उपयुक्त उत्तर नहीं पाया। क्या मैं आपसे यह प्रश्न पूछ सकता हूं?”

“हां, पूछो, क्या पूछना है?”

“गुरुजी! क्या आपने ईश्वर को देखा है।” नरेंद्र ने पूछा।

“हां, मैंने ईश्वर को देखा है। उतना ही स्पष्ट देखा है,

जितना कि मैं तुम्हें देख पा रहा हूं।”

Chief disciple of Guru Ramakrishna Paramhansa
Chief disciple of Guru Ramakrishna Paramhansa

नरेंद्र को अपने सभी प्रश्नों का उत्तर मिल गया। गुरुजी ने उन्हें एक नई दिशा व नजरिया दे दिया था। यह उनके जीवन का क्रांतिकारी मोड़ था। यहीं से भारत के एक आध्यात्मिक गुरु-शिष्य की जोड़ी की नींव पड़ी।

नरेंद्र प्रायः गुरुजी के विचारों को सुनने जाते व गुरुजी के अन्य शिष्यों से भी मिलते, वे सब मित्र बन गए। वे सभी नवयुवक थे। वे धर्म तथा अध्यात्म पर चर्चा करते। इस प्रकार नरेंद्र ने अध्यात्म के विषय में और भी गहन जानकारी पाईं।

Chief disciple of Guru Ramakrishna Paramhansa
Chief disciple of Guru Ramakrishna Paramhansa

1884 में, नरेंद्र के सिर से पिता का साया उठ गया। उनके सामने माता, बहन व भाइयों के पालन-पोषण का दायित्व था। उन्हें ही सब संभालना था।

इसके बाद पता चला कि उनके गुरुजी गले के कैंसर से पीडि़त थे। सभी भक्त जी-जान से गुरुजी की सेवा करते। उन्होंने मिलकर गुरुजी के सभी काम संभाल लिए। नरेंद्र को उनका नेता चुना गया।

16 अगस्त 1886 को गुरुजी चल बसे। उनकी मृत्यु के बाद पंद्रह शिष्यों ने संन्यास ग्रहण किया व संकल्प लिया कि वे सब कुछ त्यागकर गुरु के पथ का अनुसरण करेंगे। नरेंद्र को नया नाम मिला ‘स्वामी विवेकानंद’।

Chief disciple of Guru Ramakrishna Paramhansa
Chief disciple of Guru Ramakrishna Paramhansa

स्वामी विवेकानंद ने गुरु की शिक्षाओं के प्रचार के लिए पूरे भारत का भ्रमण किया। इस दौरान उन्होंने वास्तविक भारत के दर्शन किए। लोगों को रोग व निर्धनता से जूझता देखा।

पहली बार, उन्होंने जाना कि भारतीय कितनी बुरी दशाओं में जी रहे थे। वे उनकी दशा देख द्रवित हो उठे।

उन्हें एहसास हुआ कि लोगों में जागरूकता का प्रचार करना आवश्यक था। जब वे आत्मविश्वासी बनेंगे, तभी उनकी आर्थिक दशा में भी सु धार हो पाएगा। स्वामीजी जानते थे कि वेदांत के ज्ञान से कितने चमत्कार हो सकते हैं, किंतु बड़ी चुनौती तो यही थी कि इस जागरूकता का प्रचार कैसे हो?

a wandering monk
a wandering monk

उन्होंने अपने मिशन को पूरा करने के लिए एक संस्था बनाने का निर्णय लिया। इसी दौरान उन्हें विश्व धर्म सभा का पता चला।

सितंबर 1893, शिकागो में विश्व धर्म सभा होने जा रही थी, स्वामीजी उसमें भाग लेना चाहते थे। उन्हें लगा कि गुरु के संदेश को पश्चिमी देशों तक ले जाने के लिए यह माध्यम उत्तम रहेगा। वे संगठन के लिए वित्तीय सहायता की तलाश में भी थे। मई 1893 में, वे शिकागो रवाना हुए।

वहां उन्होंने बड़े ही प्रभावी रूप से हिंदुत्व व अध्यात्म पर अपने विचार रखे। उनके भाषण ‘एक दिव्य प्रकाश का वक्ता’व ‘पश्चिमी देशों में भारतीय ज्ञान का संदेशवाहक’के नाम से बहुत लोकप्रिय हुए। सभी ने उन्हें बहुत सराहा, लोग उनके ज्ञान व उत्साह को देख दंग रह जाते थे।

a wandering monk
a wandering monk

करीब साढ़े तीन वर्षों में यह ज्ञान लंदन व अमेरिका के कुछ हिस्सों में फैल गया। वहां के अनेक व्यक्तियों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया।

पश्चिमी देशों में ज्ञान की पताका फहराने के बाद, वे जनवरी 1897 में भारत लौटे। 1 मई 1897 को ‘रामकृष्ण मिशन की स्थापना हुई।

आध्यात्मिक ज्ञान का प्रचार मिशन का प्रमुख उद्देश्य था। यह संस्था समाज सेवा से भी जुड़ी थी। इसने अनेक विद्यालय, संस्थाएं, अस्पताल व पुनर्वास केंद्र खोले। अकाल, भूकंप व बाढ़ आदि प्राकृतिक आपदाओं के दौरान लोगों की सहायता की।

a wandering monk
a wandering monk

1898 में स्वामीजी ने गंगा नदी के पश्चिमी किनारे पर, बेलूर में बहुत सारी भूमि ले लीं। वहां रामकृष्ण मठ बनाया गया। यहीं से वे प्रवचन व व्याख्यान देते थे।

उनके जीवन व शिक्षाओं ने अनेक व्यक्तियों को प्रभावित किया। उनमें पश्चिमी देशों के लोग भी शामिल थे। उनमें से माग्र्रेट नोबल (सिस्टर निवेदिता), कैप्टन व श्रीमती सीवर, जोसेपफीन मैक्लॉड व सारा ओल बुल उल्लेखनीय हैं।

सिस्टर निवेदिता ने अपना पूरा जीवन उनके मिशन के लिए समर्पित कर दिया व भारत में कन्याओं की शिक्षा के लिए कार्य किया।

a wandering monk
a wandering monk

स्वामीजी जीवन के अंतिम चरण तक देश-विदेश में प्रवचन करते रहे। जून 1899 में पश्चिमी देशों के दूसरे दौरे पर गए।

दिसंबर 1900 में, वे भारत लौटे। वे अंतिम समय तक बेलूर मठ के लिए कार्यरत रहे, कठिन परिश्रम से सेहत गिरने लगी। 4 जुलाई 1902 को उन्होंने महासमाधि ले लीं। उस समय उनकी आयु केवल उन्तालीस वर्ष थी।

उनकी मृत्यु से न केवल भारतीय बल्कि विदेशी भी शोकसंतप्त थे। स्वामीजी ने लोगों की एकता व विश्वास को बल प्रदान करते हुए भारत को नई पहचान दीं।

भारत के अनेक महत्त्वपूर्ण लोगों जैसे- नेहरूजी, व नेताजी (सुभाषचंद्र बोस) ने भी स्वामीजी के योगदान व कार्य को सराहा।

Last years of Swamiji's life
Last years of Swamiji’s life

स्वामीजी ने अनेक प्रेरणादायक पुस्तकें लिखीं। योग पर लिखी चार पुस्तकें बहुत लोकप्रिय रहीं- कर्मयोग, भक्तियोग, राजयोग व ज्ञानयोग। उन्होंने कुछ गीतों की धुनें भी बनाईं। आज भी उनके वचन सादर स्मरणीय हैं।

वे उन महापुरुषो में से थे जो समाज के कल्याण वे प्रगति के लिए अपना जीवन बलिदान कर देते हैं हम उनके जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए व उनकी शिक्षाओं को अपने जीवन में उतारना चाहिए |

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Last years of Swamiji’s life