भक्ति का पर्याय रामकृष्ण परमहंस: Ramkrishna Paramhansa
Ramkrishna Paramhansa

Ramkrishna Paramhansa: भारत भूमि में अनेक संत हुए हैं। उन्हीं में से एक महान संत रामकृष्ण परमहंस जी भी हैं जिन्होंने अपनी शिक्षाओं से समाज को नई दिशा दी। परमहंस जी ने सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया। कैसा रहा उनके आध्यात्मिक जीवन का रहस्य आइए जानते हैं लेख से-

बचपन में श्रीरामकृष्ण का नाम गदाधर था। वह अपने माता-पिता के लिए ही नहीं, बल्कि अपने गांव के लोगों के लिए भी शाश्वत आनंद के केंद्र थे। बचपन में श्रीरामकृष्ण का नाम गदाधर था।

जीवन परिचय

रामकृष्ण परमहंस का जन्म पश्चिम बंगाल के हुगली जिले में कामारपुकुर नामक ग्राम में एक ब्राह्मïण परिवार में 17 फरवरी , सन् 1836 ई. में हुआ । रामकृष्ण जी भारत के एक महान संत एवं विचारक थे। इन्होंने सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया। साधना के फलस्वरूप वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि संसार के सभी धर्म सच्चे हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं है। वे ईश्वर तक पहुंचने के भिन्न-भिन्न साधन मात्र हैं। रामकृष्ण जी का मानना था की सभी धर्मों का आधार प्रेम, न्याय, और परहित है। श्री रामकृष्ण के पिता श्री क्षुदिराम चट्ïटोपाध्याय परम संतोषी, सत्यनिष्ठ एवं त्यागी पुरुष थे, उनकी माता श्री चंद्रमणि देवी सरलता तथा दयालुता के देवी थी। बचपन में श्रीरामकृष्ण का नाम गदाधर था। वह अपने माता-पिता के लिए ही नहीं, बल्कि अपने गांव के लोगों के लिए भी शाश्वत आनंद के केंद्र थे। उनका सुंदर स्वरूप, ईश्वरप्रदत्त संगीतात्मक प्रतिभा, चरित्र की पवित्रता, गहरी धार्मिक भावनाएं, सांसारिक बातों की ओर से उदासीनता, आकस्मिक रहस्यमयी समाधि, और सबके ऊपर उनकी अपने माता-पिता के प्रति अगाध भक्ति इन सबने उन्हें पूरे गांव का आकर्षक व्यक्ति बना दिया था। गदाधर की शिक्षा तो साधारण ही हुई, किंतु पिता की सादगी और धर्मनिष्ठा का उन पर पूरा प्रभाव पड़ा। जब परमहंस सात वर्ष के थे तभी उनके पिता का निधन हो गया।

दक्षिणेश्वर मंदिर

अपने पिता की मृत्यु के बाद श्री रामकृष्ण अपने बड़े भाई के साथ, जो एक बड़े विद्यान पुरुष थे, के साथ कलकत्ता आये। और कुछ दिनों बाद भाई के स्थान पर दक्षिणेश्वर मंदिर कोलकाता में पूजा के लिये नियुक्त हुए। श्री रामकृष्ण मंदिर में पूजा करते थे, परन्तु पूजा करते-करते बिल्कुल मग्न हो जाते थे रामकृष्ण माता की भक्ति में इतने तन्मय रहने लगे कि लोग उन्हें पागल समझते। जगजननी के गहन चिंतन में उन्होंने मानव जीवन के प्रत्येक संसर्ग को पूर्ण रूप से भुला दिया। मां के दर्शन के निमित्त उनकी आत्मा की अंतरंग गहराई से रुदन के जो शब्द प्रवाहित होते थे वे कठोर हृदय को दया एवं अनुकंपा से भर देते थे। रामकृष्ण जी असाधारण दृढ़ता और उत्साह से बारह वर्षों तक लगभग सभी प्रमुख धर्मों एवं संप्रदायों का अनुशीलन कर अंत में आध्यात्मिक चेतनता की उस अवस्था में पहुंच गए जहां से वह संसार में फैले हुए धार्मिक विश्वासों के सभी स्वरूपों को प्रेम एवं सहानुभूति की दृष्टि से देख सकते थे। सिर से पाव तक वे आत्मा की ज्योति से परिपूर्ण थे आनंद, पवित्रता और पुण्य की प्रभा उन्हें घेरे रहती थी। वे दिन रात परमार्थ चिंतन में लीन रहते थे।
परमहंस जी का जीवन द्वैतवादी पूजा के स्तर से क्रमबद्ध आध्यात्मिक अनुभवों द्वारा निरपेक्षवाद की ऊंचाई तक निर्भीक एवं सफल उत्कर्ष के रूप में पहुंचा हुआ था। उन्होंने प्रयोग करके अपने जीवन काल में ही देखा कि उस परमोच्च सत्य तक पहुंचने के लिए आध्यात्मिक विचार-, संशोधित अद्वैतवाद एवं निरपेक्ष अद्वैतवाद, ये तीनों महान श्रेणियां मार्ग की अवस्थाएं थीं। वे एक दूसरे की विरोधी नहीं बल्कि यदि एक को दूसरे में जोड़ दिया जाए तो वे एक दूसरे की पूरक हो जाती थीं।

विवाह

श्री रामकृष्ण जी का विवाह बाल्यकाल में हो गया था। लेकिन इनके मन में स्त्री को लेकर केवल एक माता भक्ति का ही भाव था इनके मन में सांसारिक जीवन के प्रति कोई उत्साह नहीं था। इनकी पत्नी शारदामणि दक्षिणेश्वर आयीं तब गदाधर वीतराग परमंहस हो चुके थे। मां शारदामणि का कहना है- ‘ठाकुर के दर्शन एक बार पा जाती हूं, यही क्या मेरा कम सौभाग्य है?Ó परमहंस जी कहा करते थे- ‘जो मां जगत का पालन करती हैं, जो मन्दिर में पीठ पर प्रतिष्ठित हैं, वही तो यह हैं।Ó ये विचार उनके अपनी पत्नी मां शारदामणि के प्रति थे।

शिष्यों का आगमन

समय जैसे-जैसे व्यतीत होता गया, उनके कठोर आध्यात्मिक अभ्यासों और सिद्धियों के समाचार तेजी से फैलने लगे और दक्षिणेश्वर का मंदिर उद्यान शीघ्र ही भक्तों एवं भ्रमणशील संन्यासियों का प्रिय आश्रय स्थान हो गया। कुछ बड़े-बड़े विद्वान एवं प्रसिद्ध वैष्णव और तांत्रिक साधक जैसे- पं. नारायण शास्त्री, पं. पद्मलोचन तारकालकार, वैष्णवचरण और गौरीकांत तारकभूषण, नरेंद्रनाथ आदि उनसे आध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त करते रहे। अपनी साधक मण्डली में से अग्रण्य शिष्य नरेन्द्रनाथ में इन्होंने भावी नेता बनने की शक्ति का अनुभव किया। नरेंद्रनाथ ही आगे चलकर स्वामी विवेकानन्द कहलाए। इन्होंने अपनी साधक मण्डली की संभाल रखते हुए बंदुत्व को सृदृढ़ बनाने का महान कार्य नरेन्द्रनाथ को सौंपा विवेकानंद भी एक सच्चे गुरु के रूप रामकृष्ण जी को पाकर धन्य थे। रामकृष्ण जी के विचारों को आत्मसात कर गति प्रदान करने के लिए आगे चलकर विवेकानंद ने रामकृष्ण मठ की स्थापना की।
आचार्य परमहंस जी अधिक दिनों तक पृथ्वी पर नहीं रह सके। परमहंस जी को 1885 के मध्य में उन्हें गले के कष्ट के चिह्न दिखलाई दिए। शीघ्र ही इसने गंभीर रूप धारण किया जिससे वे मुक्त न हो सके। 15 अगस्त, सन् 1886 को उन्होंने महाप्रस्थान किया।
श्रीरामकृष्ण परमहंस का जीवन नितांत आध्यात्मिक था। ईश्वरीय भाव उनके लिए ऐसा ही स्वाभाविक था जैसा किसी प्राणों के स्वास लेना। उनके जीवन का प्रत्येक पल मनुष्य मात्र के लिए आदेशप्रद कहा जा सकता है तथा उनके उपदेश विशेष रूप से अध्यात्म गर्भित हैं और सार्वलौकिक होते हुए मानव जीवन पर अपना प्रभाव डालने में अद्वित्य हैं।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी के अनमोल वचन

जब हवा चलने लगी तो पंखा छोड़ देना चाहिए पर जब ईश्वर की कृपा दृष्टि होने लगे तो प्रार्थना तपस्या नहीं छोड़नी चाहिए। यदि तुम ईश्वर की दी हुई शक्तियों का सदुपयोग नहीं करोगो तो वह अधिक नहीं देगा इसलिए प्रयत्न आवश्यक है ईश-कृपा के योग्य बनाने के लिए भी पुरुषार्थ चाहिए। राजहंस दूध पी लेता है और पानी छोड़ देता है दूसरे पक्षी ऐसा नहीं कर सकते इसी प्रकार साधारण पुरुष माया के जाल में फंसकर परमात्मा को नहीं देख सकते केवल परमहंस ही माया को छोड़कर परमात्मा के दर्शन पाकर देवी सुख का अनुभव करते हैं।

कर्म के लिए भक्ति का आधार होना आवश्यक है।

पानी और उसका बुलबुला एक ही चीज है उसी प्रकार जीवात्मा और परमात्मा एक ही चीज है अंतर केवल यह है कि एक परीमीत है दूसरा अनंत है एक परतंत्र है दूसरा स्वतंत्र है । मैले शीशे में सूर्य की किरणों का प्रतिबिंब नहीं पड़ता उसी प्रकार जिन का अंत:करण मलिन और अपवित्र हैं उन के हृदय में ईश्वर के प्रकाश का प्रतिबिंब नहीं पड़ सकता। जब तक इच्छा लेशमात्र भी विद्यमान है जब तक ईश्वर के दर्शन नहीं हो सकते अतएव अपनी छोटी छोटी इच्छाओं और सम्यक विचार विवेक द्वारा बड़ी-बड़ी इच्छाओं का त्याग कर दो। जिसने आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर लिया उस पर काम और लोभ का विष नहीं चढ़ता।