Modern Parenting: हर किसी की परवरिश का तरीका अलग होता है। फर्क इतना है कई बार माता-पिता बच्चों को अनुशासन में रखने के साथ यह भूल जाते हैं कि परवरिश का सही अर्थ संतुलन है।
जब हम माता-पिता बनते हैं तो हमारी पूरी दुनिया बच्चों पर केंद्रित हो जाती है। भले ही हर माता-पिता के पालन-पोषण का तरीका अलग हो किंतु मूल में यही बातें होती हैं। बच्चों में अपने सपनों को जीना उनके भविष्य या करियर को लेकर जरूरत से ज्यादा लाड़-प्यार होना या फिर खुले आकाश में उड़ने की आजादी देना। ये तीनों तथ्य रिश्तों में दूरियां पैदा करती हैं और माता-पिता से विलगाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। अपने सपनों को बच्चों में जीना माता-पिता की यह सोच कि ‘मैं डॉक्टर या इंजीनियर नहीं बन पाया या परिस्थितिवश मुझे जो नहीं मिला वह मैं अपने बच्चों को
दूंगा’ और समस्या यहीं से शुरू होती है। इन सपनों को देखने में वे यह भूल जाते हैं कि उनके बच्चे के भीतर कौन-सा सपना पल रहा है। अधिकांश घरों में बच्चों की प्रतिभा को जाने बिना यह निर्णय लिया जाता है कि वह क्या बनेगा। ‘पैसा खर्च करो और ऊंची शिक्षा दो।’
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यही सोच बन चुकी है। इस सोच के पीछे अधिकांश माता-पिता की अपनी मर्जी और अपने सपने शामिल होते हैं। बच्चों को क्या बनाना है, उसके कैरियर का लेखा-जोखा पहले से ही तय कर दिया जाता है। व्यक्ति जब स्वयं कुछ हासिल नहीं कर पाता है और उसकी वाहिशें परिस्थिति वश चकनाचूर हो जाती हैं तो वह उन सपनों को भूलता नहीं है, अपने बच्चों में देखने लगता है और परवरिश के क्रम में उन्हें उसी फ्रेम में फिट कर दिया जाता है। जो उन्हें नहीं मिली वह बच्चों को देने लगते हैं। परिणाम यह होता है कि बच्चे की सोंच और सपने धीरे-धीरे विलुप्त होने लगते हैं।
माता-पिता की महत्वाकांक्षाएं
हम अपने बच्चे को डॉक्टर बनाएंगे या फिर कोई कहता है कि हमारे परिवार मे कोई इंजीनियर नहीं था इसलिए हमारा बच्चा इंजीनियर ही बनेगा, या फिर एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस में जाएगा वगैरह-वगैरह। यहां पर सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है कि बच्चे की प्रतिभा गौण रह जाती है। कोई यह नहीं देखता कि उनमें डॉक्टर या इंजीनियर बनने की प्रतिभा है भी या नहीं। बहुत कम लोग इस बात पर ध्यान देते हैं कि उनके बच्चे की रुचि क्या है? उसका रुझान किस तरफ है? किस क्षेत्र में वह आगे बढ़ सकता है।
हालांकि सभी माता-पिता अपने बच्चों के भविष्य के बारे में सोचते हैं। लेकिन बच्चों की भावनाओं की तरफ कोई ध्यान नहीं देता शायद यही सोचकर कि ‘वह अभी
छोटे हैं। अच्छे बुरे की उन्हें पहचान नहीं।’ यहां मां-बाप का फर्ज है उन्हें उचित मार्गदर्शन देना, एक ऐसी दिशा देना जिसमें वे सक्षम हों, उनकी रुचि हो। यह नहीं कि उनकी इच्छाओं, आकांक्षाओं को बचकाना समझकर उपेक्षा कर देना या पूरी तरह दबा देना। लाखों बच्चे ऐसे हैं जिनकी इच्छाओं को दबाकर माता-पिता अपनी इच्छाओं के आवरण से उन्हें ढक देते हैं।
जरूरत से ज्यादा लाड़-प्यार
बच्चे को यह लगे कि दो आंखें हर समय उसके पीठ पर लगी हुई है तो वह अपना संतुलन खो बैठता है। इसका प्रभाव उसके व्यक्तित्व पर पड़ता है। प्रत्येक मां-बाप अपने बच्चों से अत्यधिक प्रेम करते हैं
लेकिन यह अत्यधिक प्रेम कब ओवर प्रोटेक्शन में बदल जाता है यह वे स्वयं ही नहीं जानते हैं। बच्चों की अत्यधिक देखभाल करना, उन्हें हर समय असफलताओं से बचाना, अस्वीकृति, निराशा, चुनौतियां, आक्रोश जैसी विविध परिस्थितियों से परे रखना बच्चों के व्यक्तित्व को उभरने नहीं देता है। जहां इकलौता बच्चा है वहां यह समस्या अधिक है। बच्चों के खाने-पीने, घूमने-फिरने, खेलने-कूदने, पढ़ने-लिखने, उनकी सोच, उनकी बातें, उनकी दोस्ती सब कुछ में अत्यधिक दखलअंदाजी असंतुलन पैदा करती है।
अत्यधिक छूट

माता-पिता की यह सोच कि ‘अब जमाना बदल गया है बच्चों पर बहुत अधिक पाबंदी नहीं लगाना चाहिए। एक दुरूह परिस्थिति उत्पन्न कर देती है। बच्चों की स्वछंदता इतनी अधिक बढ़ जाती है कि
क्षण मात्र का बंधन भी स्वीकार नहीं कर पाते। उनकी मनमानियां जब उनके व्यक्तित्व और भविष्य में परेशानियां उत्पन्न करती हैं तो उनकी माता-पिता के प्रति जो संवेदनशीलता होती है उसमें कमी आने लगती है। उनका पलटवार ‘आपने मुझे पहले रोका क्यों नहीं? पहले बताया क्यों नहीं। एक सोचनीय प्रश्न और गंभीर समस्या बनकर उभरता है। परवरिश में बहुत अधिक संतुलन की आवश्यकता होती है बच्चों को सही दिशा में ले जाने के लिए उनके पांव बांधने की जरूरत नहीं है, ना ही पूरी तरह से छोड़ देने की भी जरूरत है बल्कि उनके साथ-साथ चलने की है। ताकि हर कदम पर उन्हें एहसास हो कि वह स्वयं चल रहे हैं किंतु निरंतर कोई सहयात्री है जो उन्हें जीवन के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं से अवगत कराते हुए और सही रास्ता दिखाते हुए साथ-साथ चल रहे हैं। जरूरत से ज्यादा अनुशासन और जरूरत से ज्यादा दोस्ताना व्यवहार दोनों ही हानिकारक होता है बच्चों के लिए।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उनके भीतर किस तरह के सपने पल रहे हैं। वह जानने के लिए हमें एक दोस्त बनकर उनके करीब जाना होगा ना कि एक अभिभावक या माता-पिता बनकर ताकि खुलकर हमारे सामने अपने आपको अभिव्यक्त कर पाएं। यहां बंधन भी है और चलने की छूट भी है।
माता-पिता को सिर्फ मार्गदर्शक ही नहीं सहयात्री भी बनना पड़ेगा।
माता-पिता के लिए टिप्स

1.माता-पिता की यह सोच कि ‘मैं बिल्कुल ठीक हूं, बच्चों को बदलने की जरूरत है’ यह सही नहीं है। बदलाव दोनों में लाने की जरूरत है।
2.बच्चों के प्रति मां-बाप की अलग अलग सोच और व्यवहार ना होकर उन्हें एक पेज पर होना चाहिए।
3.बच्चों के व्यवहार का मूल कारण जानना बेहद जरूरी है। उनके गलत व्यवहार पर हम उन्हें तुरंत ही ताना मार देते हैं कि ‘तुम बुरे हो या तु हें ऐसा नहीं करना चाहिए।
4.बच्चों के व्यवहार के मूल कारण में जाने के लिए दोस्त बनने की आवश्यकता होती है। उन पर समय देना चाहिए और उनसे बातचीत करते समय तुरंत प्रतिक्रिया ना दें। कभी-कभी ऐसा होता है कि माता-पिता बच्चों की बातें सुनकर झुंझला जाते हैं। उनकी पूरी बात सुने बिना अपनी प्रतिक्रिया
दे देते हैं। यह सही नहीं है। पहले उन्हें पूरी तरह से खाली करना चाहिए फिर उन्हें सुझाव देना चाहिए।
5.बच्चों की दूसरों से तुलना ना करके उनकी क्षमताओं के आधार पर ही परवरिश
होनी चाहिए।
6.वर्तमान समय में माता-पिता को समय के साथ अपडेट होने की आवश्यकता है। नई पीढ़ी के साथ सही कयुनिकेशन और गैप्स ढूंढ़ने की कोशिश करनी चाहिए।
7.अपनी वाहिशों और सपनों को बच्चों पर थोपें नहीं, उनके भीतर की प्रतिभा को तलाशने की आवश्यकता है।
8.जरूरत से ज्यादा अनुशासन या फिर दोस्ताना व्यवहार ना होकर एक बाउंड्री तय करना होगा ताकि व्यवहार में संतुलन बना रहे।
9.बच्चों की बातों को जरूर माने या वैल्यू दे, किंतु उनकी हर जिद को पूरा नहीं करना
चाहिए ।
10.जरूरत से ज्यादा दखलअंदाजी और जरूरत से ज्यादा स्वतंत्रता के स्थान पर दोनों के बीच संतुलन होना चाहिए।
11.अधिक लाड़-प्यार की जगह पर बच्चों को विपरीत परिस्थिति में इमोशंस रेगुलेट
करने का प्रशिक्षण जरूर देना चाहिए।
12.बच्चों को यह महसूस होना चाहिए कि वह स्वयं चल रहे हैं किंतु साथ-साथ भी
कोई चल रहा है।
“माता-पिता की यह सोच कि ‘मैं बिल्कुल ठीक हूं, बच्चों को बदलने की जरूरत है’ यह सही नहीं है। बदलाव दोनों में लाने की जरूरत है।”
