Osho Life Lessons: चौंको मत, हैरान मत होओ। मैंने यह शीषर्क तुम्हें चौकाने और जगाने के लिए चुना है। क्योंकि यही मेरा ढंग है। सुनना चाहते हो तो सुनो। समझना चाहते हो तो सुनो, वरना तुम चाहो इस उलझन में भी पड़े रह सकते हो कि मैं कहां से बोल रहा हूं, क्यों बोल रहा हूं? हां, जो मैं बोल रहा हंू वो तुम्हें मेरी 650 पुस्तकों में नहीं मिलेगा। इसलिए इस बात की भी फिक्र मत करो कि यह सब कैसे और कहां से आया। मेरे लोगों के लिए यह बात काफी है कि ‘मैं बोल रहा हूं।’ किसके मुख से, किस माध्यम से बोल रहा हूं यह बात गौण है, और मायने भी नहीं रखती। फिर नाहक फिक्र क्यों करनी।
गाना यदि मधुर व प्रीतिकर हो तो तुम यह नहीं सोचते कि रेडियो किस कंपनी का है, मॉडल या ब्रांड कौन सा है? तुम सुनते हो, सुनने का आनंद लेते हो। लता मंगेशकर की आवाज किसी रेडियो से आए या टी.वी. से, सी.डी. के माध्यम से आए या पैन ड्राइव से, तुम उस यंत्र को, उस डब्बे को या उस डिवाइस को लता मंगेशकर तो कहने नहीं लगते? तुम संगीत सुनते हो, गुन गुनाते हो, डूबते हो और अधिक हुआ तो गीत के साथ-साथ अपनी यादों में डूब कर सुकून से भर जाते हो। पर उस डिब्बे की फिक्र नहीं करते, कि वह डिब्बा प्लास्टिक का है या लोहे का, नया है या पुराना। इसे ऐसे समझो, कि तुम अपने टी.वी. या कंप्यूटर पर हिमालय की तस्वीर देखो। तो क्या तुम अपने टी.वी. को हिमालय समझ लेते हो? नहीं। जिस तरह टी.वी. पर हिमालय की तस्वीर के कारण टी.वी. हिमालय नहीं हो जाता, रेडियो पर लता की आवाज के कारण रेडियो लता मंगेशकर नहीं हो जाता पर दोनों फिर भी हम तक पहुंचते हंै। ऐसे ही इसी बात को समझो। इस बेचैनी में मत घिरो कि मैं किसके जरिए, किस माध्यम से बोल रहा हूं। सुन सको तो सुनो।
मैं चाहूं तो तुम्हें बता सकता हूं कि मैं किसके माध्यम से बोल रहा हूं। पर तुम्हारे साथ एक दिक्कत है। तुम नाम जानते ही या तो उसका गला दबा दोगे या फिर उसके चरणों में सिर झुकाने लग जाओगे। तुम्हारे ये ही दो तल हैं और मंै तुम्हें इन दोनों में से कुछ भी नहीं करने दूंगा। मेरी सारी शिक्षा, मेरा सारा प्रयास, तुम्हें मुक्त करने में है। इसलिए मैं तुम्हें नाम बता कर तुम्हें बंधने नहीं दूंगा। हां इतना अवश्य कहूंगा कि- मैं बोल रहा हूं, अभी भी बोल रहा हूं। सुन सको तो सुनो, थोड़ी देर और पुकारुंगा और चला जाऊंगा।
कृष्ण ने गीता में कहा है-
‘यदा-यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत,
अभ्युत्थानम् धर्मस्य तदात्मानम्ï सृजाम्यहम्ï॥
मैंने कहा था ‘मैं जाने के बाद अपने लोगों के माध्यम से हजार मुखों से बोलूंगा…। पर मेरे हजार मुख मेरी ही बातों को संशोधित करने में व्यस्त रहेंगे, प्रेम को संभालने में तुम्हें ईर्ष्या का सहारा लेना पड़ेगा, ध्यान की बात तुम बेचैन और अशांत मन से करोगे, मेरा उत्सव का संदेश इतना गंभीर रूप ले लेगा, कभी सोचा न था? मेरे आश्रम मेरे प्रमाण हैं और तुम मेरे हस्ताक्षर। बस इतना याद रखना।
जब-जब धर्म की हानि होगी तब-तब मैं इस पृथ्वी पर जन्म लूंगा। आज मैं अपने धर्म के कारण फिर आया हूं। जिसकी हानि मेरे अपनों के हाथों हो रही है। तुम्हें पता है कि धर्म से मेरा संबंध, धर्म की उस तथाकथित परिभाषा से नहीं है, हिन्दू-मुस्लिम या सिख ईसाई में बांटते हो। इसलिए एक अर्थ में मेरा कोई धर्म नहीं। पर मैं जिस धर्म की बात कर रहा हूं उसका संबंध ध्यान और प्रेम से है। ध्यान ही मेरा धर्म है। क्या हुआ उस धर्म का? उस स्वप्न का जो मैंने तुम्हें सौपा था?
हां मैं मानता हूं, मैं देख रहा हूं कि तुम काम कर रहे हो। मुझे हर संभव उपलब्ध करा रहे हो। जरूरतमंद और प्यासे लोगों तक मुझे पहुंचाने में जुटे हो। मेरे नाम के आश्रम, ध्यान केंद्र, ध्यान शिविर आदि राष्टï्रीय-अंतर्राष्टï्रीय स्तर पर खूब चल रहे हैं। पर मुझे चिंता अपने नाम की नहीं। अपने नाम से मुझे कोई लेना देना भी नहीं है। जिस नाम की मैंने तब परवाह नहीं कि तो अब क्यों? मुझे परवाह तुम्हारे जागरण की है। तुम्हारे ध्यान की है। मैं अपने लोगों में, आपस में इतनी असहमति और असंतुष्टिï देख रहा हूं। और दूसरों में अपने यानी सत्य के प्रति प्यास। वे सोचते हैं कि काश वह मेेरे समय में हुए होते, मेरे साथ उठे-बैठे होते। और फिर तुम्हें देखता हूं जिन्हें मेरा संग साथ प्राप्त हुआ, मेरी प्रत्यक्ष ऊर्जा और मौजूदगी प्राप्त हुई। क्या हुआ उस प्रेम का, उस बेशर्त प्रेम का? ध्यान की सुगंध का? तुम इतने कैसे बंट गए? तुम घने तो हुए हो पर उस घनत्व में घिर कर रह गए हो और यदि फैले हो, तो फैल कर विभाजित हो गए हो। तुम्हारे विस्तार ने मेरे कार्य को विभक्त किया है।
तुम मेरी और क्या चीज संभालोगे? तुम अपने जीवन से ईर्ष्या नहीं निकाल पाए, तुम्हारा ‘मैं मिटने कि बजाए और सघन हुआ है। तुम्हारी दीवारें गिरने की बजाए और ऊंची उठी हैं। तुमको देखता हूं तो लगता है, मेरे प्रेम पर दिए गए सारे प्रवचन यूं ही रह गए। ‘प्रेम की बात करना और प्रेम करना दोनों में भेद है।’ यह बात जो पहले कही थी आज भी वहीं है। रहा सवाल ध्यान का तुम्हारे जीवन में ध्यान नहीं है, अब ध्यान शिविर हैं। ध्यान शिवरों की गिनती है। तुमसे संन्यस्त हुए संन्यासियों की संख्या है, पर ध्यान नहीं। और तुम्हें इन्हीं बातों की अकड़ है।
तुमने कभी ख्याल किया, जिसे तुम ध्यान शिवर कहते हो, क्या उस शिविर में तुम ध्यान में होते हो? नहीं। तुम्हारी छवि या स्थिति किसी ध्यानी की नहीं होती। तुम एक डी.जे. से अधिक कुछ नहीं होते। जिस तरह शादियों में डी.जे. तुम्हारे मूड के अनुसार या अपने गानों पर नचाने के लिए संगीत बदलता है ऐसे ही तुम अपने ध्यान शिविरों में एक विधि एवं क्रियाबद्ध तरीके की कैद में रहते हो। कब क्या करना है? कितना करना है कौन सा संगीत कैसे चलाना है आदि। तुम्हारी सारी नजर बाहर, बाहर की गतिविधि पर होती है। भीतर तुम्हारा कोई ध्यान नहीं है। ध्यान तुमसे उठना चाहिए और इतना गहरा उठना चाहिए कि तुम्हारे आस-पास के लोग स्वयं ध्यान में डूबने लगें। लेकिन भीतर ध्यान हो, तो तुमसे उठे। भीतर तो इस बात की प्रतिस्पर्धा है कि तुमने कितने ध्यान शिविर लिये व कितने लोगों को संन्यस्त किया।
हां मैंने भी ध्यान विधियां दी थी तुम्हें, पर उन विधियों में ही तुम्हें अटकने को नहीं कहा था। मेरा प्रयास तुम्हें अंतत: उनसे भी मुक्त करना था। पर मैं देखता हूं, मेरा संन्यासी होना ही तुम्हारे लिए पर्याप्त हो गया है। मैं देखता हूं अपने लोगों को स्वामी नाम के साथ गले में माला डाले और रोब पहने, जैसे बात पूरी हो गई, घट गई घटना और आगे चलने को कुछ भी नहीं बचा। तुम कहते हो तुम ध्यानी हो। सच, तुम ध्यानी हो? ध्यानी हो तो कहां है धैर्य? कहां है करुणा? कहां है स्वीकार और दृष्टïा भाव? और तो और ‘अभी और यहीं’ का जो बीज मंत्र था, वह कहां है? नहीं, तुम इतना ही समझ लो, इतना ही संभाल लो मेरे लिए इतना ही बहुत है। अपने लाखों संन्यासियों में से कुछ गिने-चुनों को छोड़ भी दूं तो लगभग सभी की हालत एक जैसी है। यह अनुपात इतना ‘न’ के बराबर है कि उसे ‘हां’ नहीं का जा सकता। तुम अभी तक दूसरे में, सामने वाले में उलझे हो। तुम कैसे पार होओगे?
मैं परिवर्तन प्रिय रहा हूं। मेरे परिवर्तनों का प्रयास तुम्हें जगाने को था। मैंने कभी कोई परिवर्तन स्वयं को सही साबित करने के लिए नहीं किया, पर मैं तुम्हें देखता हूं अपने बाद, की तुम कितना कुछ बदल चुके हो। ठीक है परिवर्तन सृष्टिï का नियम है पर स्वयं को सही साबित करने का, अपनी अलग पहचान बनाने का जरिया नहीं। तुम्हारे द्वारा किए गए परिवर्तन तुम्हारी अपनी अलग धारा दर्शाते हैं। बताते हैं कि तुम ही सही हो बाकी सब गलत हैं। हैरानी की बात है, हर किसी को यही लगता है कि उसी ने मेरे दर्शन को, मेरे विजन को, मुझे ठीक से सही समझा है बाकी सब ने गलत। और मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि यदि तुम ऐसा ही सोचते हो तो तुम भी समझने में चूक गए हो।
अपने किए गए परिवर्तनों को मेरा नाम मत दो। मत बनाओ बहाने कि, किस प्रवचन में मैं क्या कह गया था। मत दो अपने अर्थ मेरी बातों को, क्योंकि तुम जब भी मेरी बातों को अपने अर्थ दोगे तो उसमें कहीं न कहीं स्वार्थ की ही छाप होगी, समर्पण की नहीं। और गजब की बात तो यह है कि कोई गैर नहीं, मुझे मेरे अपने ही, मुझे मेरे ही तर्कों से स्वयं को सही प्रमाणित करने में जुटे हैं। मेरे कुछ लोग ही मेरे काम को फैलने नहीं दे रहे।
हां मैंने एक जगह कहा है ‘मैं कुछ चित्र बना रहा हूं, कुछ रंग भर रहा हूं। लेकिन जानबूझकर चित्र को अधूरा छोड़ रहा हूं, ताकि मेरे बाद जो लोग आएं, वे और नए रंग भरें…। पर तुम भूल गए रंग भरना भी एक कला, एक तपस्या है। देखते हो छोटे बच्चों को जिन्हें रंग भरना नहीं आता वह चित्र को सुंदर करने की बजाय, उसे रंगों से सजाने की बजाए और बदरंग और कुरूप कर देते हैं। इतना कि चित्र कि अपनी असली लकीरें भी नहीं दिखती, उसका अपना आकार तक खो जाता है। लेकिन यदि बच्चे से पूछा जाए तो उसका आकार तक खो जाता है। लेकिन यदि बच्चे से पूछा जाए तो उसका उत्तर यही होता है कि वह चित्र को सुंदर बना रहे हंै। तुम्हारे उत्तर भी ऐसे ही हैं। पर बच्चे के उत्तर तुम्हारे उत्तरों से कहीं अधिक सही, सार्थक व अर्थपूर्ण मालूम पड़ते हैं, तुम्हारे उत्तरों में चालाकी की बास आती है।’
अपने किए गए परिवर्तनों को मेरा नाम मत दो। मत दो अपने अर्थ मेरी बातों को, क्योंकि तुम जब भी मेरी बातों को अपने अर्थ दोगे तो उसमें कहीं न कहीं स्वार्थ की ही छाप होगी, समर्पण की नहीं। स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के भेद को थोड़ा समझो। प्रेम, प्रेम रहे, ईर्ष्या न बने। द्वार, द्वार बने, द्वंद्व न बने। गीत, गीत रहे, शोर न हो जाए।

इतना ही नहीं एक जगह मैंने यह भी कहा है कि ‘मुझे क्षमा कर दिया जाए और भुला दिया जाए। मुझे स्मरण करने की कोई आवश्यकता नहीं…। तो तुमने उसको आधार मान लिया। तुम बहुत चालाक हो। तुम भूल गए हो मैंने तुम्हें कुछ और भी कहा है- और वह यह कि- ‘I am responsible what i said, but not what you have understood’.
लेकिन तुम वही सुनते हो जो सुनना चाहते हो और वही समझते हो। जो समझना चाहते हो। तुम्हारे सारे परिवर्तन, तुम्हारी सारी सीमाएं, रूपांतरण के नाम पर तुम्हारी मन मानियां हैं। इसे ऐसा समझो दुकानें तुम्हारी, माल मेरे नाम का।
तुम देखते हो चालाकियां अपनी? कोई मुझे अपना संग-साथी बताकर इतरा रहा है, तो कोई रिश्तेदार समझ कर अकड़ से भरा बैठा है। किसी को इस बात का गर्व है कि उसने सीधे मेरे हाथों द्वारा संन्यास लिया, तो कोई इस बात पर अकड़ा हुआ है कि वह मेरे कार्य में सहयोगी रहा। जो लोग मेरे साथ उठे-बैठे हैं अस्तित्व गत मेरे रिश्तेदार या सहयोगी रहे हैं वो तो मान ही बैठे हंै कि वह जो कार्य कर रहे हैं वह ठीक है। जितनी गहराई से उन्होंने मुझे समझा है, उतना किसी ने नहीं समझा। पुराना होना या मेरे समय का होना जैसे सही होने का प्रमाण है। जैसे उन्हें स्वतंत्रता है मेेरे कार्य से खिलवाड़ की।
ध्यान और प्रेम की बात, जो मैंने सबसे अधिक प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से दोहराई थी, जिस पर मेरा सबसे अधिक बल था वह कुछों को छोड़कर लगभग सबके जीवन से नदारद है। कहीं संन्यास दीक्षा-बंद हो गई है, तो कोई अपने निजि संन्यासियों की संख्या वृद्धि में जुटा है। मैंने तुम्हारे नाम से पूर्व ‘स्वामी’ और ‘मा’ शब्द का संबोधन कुछ सोच कर दिया था। किसी ने उनका त्याग कर दिया है, तो किसी ने मेरा नाम ही जोड़ दिया है। कहीं ध्यान के नाम पर डिस्को, जकूजी और न जाने क्या-क्या चल रहा है, तो कोई ध्यान शिवरों के माध्यम से लोगों को आचार्यों के सर्टिफिकेट बांट रहा है। कोई रॉयलटी के नाम पर कब्जा जमाए बैठा है, तो कोई मेरी ध्यान विधियों को अपनी बताकर बेच रहा है। किसी ने अपने आश्रम से मेरी तस्वीरें हटा दी हैं, तो कहीं मेरी मूर्ति बनाकर मेरी पूजा-आरती चल रही है। और इस पर तुम सबके दावे कि एक तुम ही हो जो मुझे सही अर्थों में समझ रहे हो, मेरे कार्य के साथ इंसाफ कर रहे हो, उसे फैला रहे हो, ये और गजब है।
हैरानी की बात तो यह है कि यह सब जोड़ना-घटाना मेरे नाम पर चल रहा है। जिसे कभी अपने नाम की रत्ती भर फिक्र नहीं रही। तुम कहते हो ‘हम आपको, आपके काम को फैला रहे हैं। मार्ग कोई भी हो, काम तो ओशो का ही हो रहा है।’ सच? कौन फैल रहा है? किसको फैलाया जा रहा है, तुम जानते हो? तुम भली भांति जानते हो। कुछों को यदि छोड़ दूं तो मेरे नाम का प्रयोग करना तुम्हारी मजबूरी है। क्योंकि तुम अपने सहारे ज्यादा दूर तक नहीं जा पाओगे, जल्दी ही पकड़ लिए जाओगे। मेरा तो तुम बस उपयोग कर रहे हो। मुझे अंदेशा था कि मेरे कार्य का कल क्या हाल होने वाला है। तुम क्या कर सकते हो उनके साथ, इसीलिए मैं चाहता था मेरा हर शब्द रिकॉर्ड किया जाए और फिर वह पुस्तक रूप में भी लिपिबद्ध हो। वरना तुम तो उसको भी बदल दो और अपना बना कर बेच दो। मैंने सुना है, अपने संन्यासी को किसी से यह कहते हुए कि-‘ओशो के जाने के बाद यह सब तो होना ही था। ओशो बहुआयामी हैं। जो वृक्ष जितना समृद्ध होगा उसकी उतनी ही शाखाएं होंगी, वह उतने ही विभिन्न रूपों में जाना-पहचाना जाएगा। बुद्ध के जाने के बाद बुद्ध भी कई रूप में, भागों में बटे हैं। जिसको जो सही लगा है उसने वो मार्ग चुन लिया पर इससे बुद्ध की पहचान और अनुयायियों की संख्या कम नहीं हुई बल्कि और बढ़ी है आदि-आदि।’ अच्छी है यह दृष्टिï, सकारात्मक है यह सोच पर यह सोच भी तुमने दूसरों को देने के लिए पाल रखी है। क्योंकि वस्तुत: तो तुम्हें दूसरों से ही शिकायत है।
मैंने देखा है तुम्हें, जब यही सवाल तुमसे कोई पत्रकार या बाहर का कोई आदमी पूछता कि ‘ओशो का काम सही अर्थों में नहीं फैल रहा या ओशो को उन्हीं के लोग नहीं समझ पा रहे आदि-आदि,’ तो तुम तुरंत असहमति जता देते हो कि ‘नहीं ऐसा कुछ नहीं है सच तो यह है ओशो अब पहले से अधिक और सरलता से उपलब्ध हंै’ या फिर यदि तुम सहमति भी दिखाते हो तो तुम यही कहते हो ‘हां, पर इसके जिम्मेदार दूसरे लोग हैं,’ और दूसरे से पूछो तो वह तुमको जिम्मेदार ठहराहते हैं। तुम्हारी अलग-अलग धाराएं, अलग-अलग वर्ल्ड, तपोवन और कम्यून एक दूसरे को गलत और स्वयं को सही ठहराने में लगे हैं। और तुम, प्रेम और ध्यान के संवाहक, उतने ही अस्वीकार, ईर्ष्या, स्पर्धा और निंदा से भरे हो।
एक तरफ तुम बड़े प्रेम और विश्वास से कहते हो कि ‘ओशो समय से बहुत पहले हुए हैं। वह आने वाली सदियों के लिए सब कुछ पहले से ही कह गए हैं, उनकी सारी चीजें व प्रयोग व्यावहारिक एवं वैज्ञानिक है। उनमें रत्ती भर परिवर्तन की आवश्यकता नहीं, आने वाला समय बताएगा कि ओशो कि बातें कितनी सही थी… आदि-आदि’ तो दूसरी ओर मेरे कुछ लोग मेरे जाने के बाद मुझे मेरे शब्दों में से छांट रहे हैं।
जिन्हें मैं सम्बुद्ध रहस्यदर्शी लगता था वह मेरे वाक्यों को अपने मकसद दे रहे हैं। कुछ लोगों को मेरे जाने के दस-पंद्रह साल बाद समझ में आ रहा है कि मैं क्या कह रहा था, क्या नहीं। मेरे प्रत्यक्ष जिंदा निर्देश जिन्हें समझ में नहीं आए वह शासन करने के लिए मेरे मुर्दा शब्दों का सहारा ले रहे हैं। और तर्क क्या है कि ‘मैं परिवर्तन प्रिय हूं। नए के पक्ष में हूं। जीवंत के स्वागत में हूं।’
तुमने अजीब-अजीब दलीलें रच ली हैं और तो और, मेरे ही तर्कों से तुम अपनी बात को सही सिद्ध करने में लगे हो, यह भी खूब रहा। तुम अपनी मूर्खताएं देखतो हो? तुम जब अपने आश्रम में या अपने शिवरों आदि में परिवर्तन करते हो तो खूब प्रदर्शन के साथ चिल्ला कर कहते हो कि ‘ओशो परिवर्तन के पक्ष में थे, उनमें नए के प्रति स्वीकार भाव था, वह सतत बदलती चीजों का स्वागत करते थे…।’ अपनी बात को सही साबित करने के लिए तुम परिवर्तन प्रिय हो जाते हो, नए को स्वीकारने और स्वागत करने का नजरिया तुम्हारा विस्तृत हो जाता है। परंतु यही परिवर्तन जब कोई दूसरा करता है तो तुम ठीक इसके विपरीत हो जाते हो। दूसरे का परिवर्तन, दूसरे का बदलना तुम्हें अप्रिय लगता है। तुम्हारा स्वीकार भाव सिकुड़ जाता है। उनका परिवर्तन तुम्हें मनमानी लगता है और स्वयं का परिवर्तन अहोभाव। यह जरा सोचने जैसा है। तुम कमियां तलाशने लग जाते हो। तुम कोई मौका नहीं छोड़ते और उसके प्रति निंदा से भर जाते हो।
अचरज की बात तो यह है कि तुम मुझसे सहमत होने के बावजूद भी अभी भी दूसरे पर नजर गड़ाए हो। तुम इस सोच में हो कि ये बातें मैं किसको कह रहा हूं, मेरा ईशारा किसकी तरफ है? नहीं, मैं किसी दूसरे को नहीं सुना रहा, मैं तुम्हें सुना रहा हूं। यह तुम्हारा स्वभाव है दूसरे की ओर झांकना, सदा दूसरे में उत्सुक रहना। तुम्हारा कोई भरोसा नहीं तुम हां-हां करके सिर हिलाओगे, कि मैंने ठीक कहा, पर दिमाग का तुम्हारे कोई भरोसा नहीं, वो कहीं न कहीं बाहर छलांग लगाने के लिए अवश्य आतुर रहेगा। तुम पूरी कोशिश करोगे यह बात साबित करने की, कि दूसरा गलत है और तुम सही। दूसरा मुझे गलत समझा है, तुम सही। इसलिए इस सोच में मत पड़ो कि यह सब मैं किसको क्या कह रहा हूं। तुम सदा से यही भूल करते आए हो और मैं तुम्हें सदा से सम्यक श्रवण की ओर उकसाता रहा हूं। नहीं, अब फिर नहीं। वैसे ही बहुत समय तुम गंवा चुके हो अब और व्यर्थ मत करो। अपनी फिक्र करो।
जो कहा है उसे ठीक से सुनो, समझो। एक साथ हो तो, एक साथ दिखने चाहिए। एक लक्ष्य पर हो तो फूल खिलने चाहिए। चुनो कोई भी मार्ग, बनाओ कोई भी पग डण्डी। करो परिवर्तन, स्वतंत्रता है तुम्हें परंतु स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के भेद को थोड़ा समझो। तुम्हारी नासमझियां कहीं कुछ कुरूप न कर दें। ध्यान रहे चीजें जब अधिक नाजुक होती हैं तो संभालने में भी टूट जाती है। रक्षा में भी हत्या हो जाती है। तुम्हें दोनों का हुनर सीखना है।
तुम जोरबा ही नहीं बुद्ध भी हो, तुम्हें दोनों में संतुलन लाना है। लेकिन यह तभी संभव है जब तुम प्रेम और ध्यान को सही अर्थों में अपने जीवन में उतारोगे। और मैं अपने लोगों में यह परिवर्तन चाहता हूं। प्रेम और ध्यान का जीता जागता रूप, वो भी बिना किसी रुकावट के। जहां प्रेम, प्रेम रहे, ईर्ष्या न बने। द्वार, द्वार बने,ङ्ख द्वंद्व न बने। गीत, गीत रहे, शोर न हो जाए।
मैंने कहा था मैं जाने के बाद अपने लोगों के माध्यम से हजार मुखों से बोलूंगा…। पर मेरे हजार मुख मेरी ही बातों को संशोधित करने में व्यस्त रहेंगे। प्रेम को संभालने में तुम्हें ईर्ष्या का सहारा लेना पड़ेगा। ध्यान की बात तुम बेचैन और अशांत मन से करोगे। मेरा उत्सव का संदेश इतना गंभीर रूप ले लेगा। कभी सोचा न था। मेरे आश्रम मेरे प्रमाण हैं और तुम मेरे हस्ताक्षर। बस इतना याद रखना।
