Osho Life: मेरा योगदान यह है कि तुम इसे अच्छी तरह से समझ लो कि बाह्यï समृद्धि तुम्हारी आंतरिक आध्यात्मिकता को नष्ट नहीं करती। और न बाह्यï दरिद्रता उसमें सहयोग करती है। भूखा आदमी शांत बैठ ही नहीं सकता। ठंड से ठिठुरता हुआ नंगा आदमी भी शांत नहीं बैठ सकता। और तुम भूखे या नंगे न भी होओ, लेकिन तुम चारों ओर भिखारियों से घिरे होओ, तो भी तुम शांति से बैठ नहीं सकते। क्योंकि तुम्हारे पास हृदय है।
मैं इस जगत को दोनों प्रकार से समृद्ध चाहूंगा। और जब जगत दोनों प्रकार से समृद्ध हो सकता है, तब एक ही दिशा क्यों चुनें? अब तक यही स्थिति रही है। पश्चिम ने बाह्यï समृद्धि चुनी ली और पूरब ने आंतरिक समृद्धि चुन ली। दूसरे शब्दों में, पूरब ने बाह्य दरिद्रता चुनी और पश्चिम ने आंतरिक दरिद्रता चुनी। दोनों मुसीबत में पड़ गये। उनके पास सब कुछ है और कुछ भी नहीं है। तुम्हारे पास आंतरिक समृद्धि पाने का पूरा विज्ञान और कला है, लेकिन तुम इतने गरीब हो कि इस घोर गरीबी में अंतर्जगत की बात सोचना भी कठिन है।
यदि हम स्वीकार कर लें कि बाह्यï समृद्धि और आंतरिक समृद्धि एक-दूसरे की सहयोगी हैं- जो कि वे हैं ही- तो पूरब और पश्चिम के बीच किसी द्वंद्व की कोई जरूरत नहीं है।
जीवन में थोड़ी बुद्धिमानी से काम लो। तुम्हारे पास जो भी है उसका उपयोग अपने लिए ऐसा वातावरण बनाने के लिए करो, जिसमें तुम विश्रामपूर्ण ढंग से रह सको। एक सुंदर मकान बनाओ, उसमें जो भी सुंदर है उसे ले आओ: चित्र, संगीत, कला। वे तुम्हें आध्यात्मिक बनने में कोई बाधा नहीं डालते। और सौंदर्य, कला, चित्र- इन सबके बीच शांत होकर बैठने के लिए समय निकाल लो। तुम निकाल सकते हो। अब तुम्हारे पास उतनी क्षमता है। दूसरे शब्दों में: बाह्य समृद्धि को राह का रोड़ा नहीं, सीढ़ी का पत्थर समझना चाहिए। तो तुम्हारे पास जो भी है, यदि वह तुम्हारी जरूरतों के लिए काफी है, तो और अधिक के पीछे मत दौड़ो। तुम उस बिंदु पर आ रहे हो जहां से नई यात्रा की शुरुआत होती है। वह पुराना द्विभाजन, जो तुम्हें बार-बार सदियों से सिखाया गया है, कि अगर तुम बाह्यï जगत में समृद्ध हो तो तुम आंतरिक समृद्ध नहीं हो सकते, वह एकदम बकवास है। वस्तुत: तुम बाहर से जितने समृद्ध होओगे, उतनी ही तुम्हारी आंतरिक दृष्टि से शांत और मौन होने की संभावना बढ़ेगी। इसी संश्लेषण को मैं मेरा धर्म कहता हूं, मेरा अध्यात्म कहता हूं।
मेरा योगदान यह है कि…
