Osho Philosophy: ध्यान के जगत में ओशो का जो योगदान है, वह अपने आप में विशिष्टï है, क्योंकि ओशो से पूर्व ध्यान व ध्यानी की जो भी पारंपरिक परिभाषा व छवि थी ओशो ने उसमें कायाकल्प किया। ओशो ने ध्यान को नीरसता से हटाकर उत्सव के साथ जोड़ा तथा उसे व्यावहारिक एवं वैज्ञानिक दृष्टिï दी। आत्मरूपांतरण में ओशो की ध्यान विधियां अपने आप में मिसाल हैं, पर कैसे आइए जानते हैं।
पूर्ण चिकित्सा पद्धति है- स्वामी अंतर जगदीश

मनुष्य की पीड़ा और भूल का मनोविश्लेषण कर ओशो ने ध्यान की एक अनूठी व्यवस्था को जन्म दिया। जो न सिर्फ आधुनिक मनुष्य की मनोपृष्ठïभूमि पर आधारित है, बल्कि इस तरह से संयोजित है कि, किन्हीं आतंरिक कारणों से बच्चे, जवान और वृद्धों सभी को भाती है। कारण इसका गैर-गंभीर तत्त्व है, उत्सव है और प्राकृतिक नियमों पर आधारित होना है। और इस व्यवस्था को जमाते हुए उन्होंने बड़ी सूक्ष्मता से मन की चालों और अपेक्षाओं को उकेरा इसलिए ध्यान विधियों के अतिरिक्त उन्होंने समूह चिकित्सा पद्धतियों की रचना की जिनके माध्यम से हम मन की जकड़ से छूट कर, उसकी अचेतन प्रणाली को भेदकर, अपना विकास कर सकें। यह आज के मनुष्य के लिए आध्यात्मिक विकास का मूलाधार है अन्यथा वर्षों का श्रम भी अंत में ‘कोल्हू का बैल साबित’ होता है।
उनके प्रवचनों को सुनना भी एक तरह की चिकित्सीय पद्धति से गुजरना है, जहां मन के अनेक घाव उनकी वाणी के जादुई प्रभाव से स्वत: ही भर जाते हैं। चूंकि मौलिक रूप से ये घाव हमारे भावों, विचारों, स्मृतियों आदि से भोजन पाते हैं और ओशो अपने प्रवचनों में इन सब बिमारियों को उघाड़ते हैं, जड़ से मिटाते हैं। उनकी वाणी का मखमली प्रभाव और प्रवचनों का मूल स्वरूप इस चिकित्सा को जन्म देता है।
इसके अतिरिक्त ओशो ने अनेक ग्रुप थैरेपीज की रचना की जैसे- मिस्टिक रोज ग्रुप, नो माइंड, बॉर्न अगेन, हू इज इन आदि। ये तीन दिन से लेकर 21 दिन तक के बहुत सशक्त समूह कोर्स हैं जहां साधक को अपने भावों, विचारों, अचेतन जड़ता आदि में उतरने का अवसर प्राप्त होता है। वह स्वयं ही इस सारी यात्रा में गुजरते हुए, अपने मूल स्वरूप के निकट आता है और ध्यान की गहराइयों में भी डूबता है।
अनेक एनकाउंटर थेरेपीज को भी ओशो ने साधकों पर आजमाया और व्यक्तिगत रूप से हजारों लोगों को उस व्यवस्था में भी दिशा दी।
इस तरह से सिर्फ ध्यान की विधियों की रचना न कर उन्होंने ग्रुप थेरेपीज को साधकों के लिए निर्मित किया जो बहुत महत्त्वपूर्ण है और जरूरी भी है।
वैसे तो ओशो द्वारा सृजित ध्यान व्यवस्था का फलक बहुत बड़ा है और वर्गों में बंटता नहीं तब भी व्याख्या के लिए मौलिक रूप से तीन वर्गों में उन्हें रखा जा सकता है।
- सक्रिय विधियां- जैसे सक्रिय ध्यान, कुंडलिनी ध्यान, नटराज ध्यान, मण्डला ध्यान, नो- डायमेंशन आदि।
- अक्रिय विधियां- जैसे स्वर्ण प्रकाश ध्यान, चक्रा साउंड, चक्रा ओवर-टोन आदि।
- ग्रुप थेरेपीज- मिस्टिक रोज, बॉर्न अगेन, नो-माइंड आदि।
इसके अतिरिक्त व्यक्गित रूप से मिलने वाले व्यक्तियों को ओशो ने सैकड़ों ध्यान की अनूठी विधियां सुझाईं जो ध्यान-चिकित्सीय पद्धति के नए-नए द्वार खोलती प्रतीत होती है। ये सभी चर्चाएं 60 के आस-पास ‘दर्शन डायरीज’ में संकलित है।
मन के क्रिया-कलापों की सटीक और महीन व्याख्या जैसी ओशो के यहां मिलती है, कहीं और नहीं और यह एक प्रकार की चिकित्सा प्रणाली है जो सभी बाजारों में नहीं पाई जाती है।
आत्मरूपांतरण में सहायक है – स्वामी ज्ञानभेद

ओशो ने विश्व इतिहास में पहली बार सत्य प्राप्ति के लिये खोजे गये सभी मार्गों को, प्रत्येक मनुष्य के व्यक्तित्व, स्वभाव और उसकी भावनाओं को ध्यान में रखते हुए एक साथ सुलभ कराया। अभी तक प्रत्येक धर्म संस्थापक या बुद्ध अपने ही मार्ग को एकमात्र मार्ग बतलाता आया था और फलस्वरूप उस धर्म के मानने वालों के लिए अन्य रास्ते अपरिचित और त्याज्य थे। ओशो ने तंत्र जैसे विलुप्त मार्ग का भी जीर्णोद्वार किया और प्रत्येक मार्ग में आने वाले खतरों और कठिनाइयों से अवगत कराते हुए प्रत्येक मार्ग को ध्यान और प्रेम से जोड़ा। उन्होंने अतीत में बुद्ध पुरुषों और प्रज्ञावान मनीषियों द्वारा खोजी गई विभिन्न विधियों को मिलाकर नई-नई ध्यान विधियों का नया रसायन प्रस्तुत किया, जो बदले युग बदली परिस्थितियों में आज के जटिल मानव मन के लिए एकमात्र औषधि है। उदाहरण के रूप में सक्रिय ध्यान के विभिन्न चरणों में उन्होंने योग का ‘भस्त्रिका प्राणायाम,’ सूफी परम्परा का ‘हूं’ मंत्र, गुरुजियेफ की ‘स्टॉप विधि’ के साथ-साथ रेचन और नृत्य को भी सम्मिलित कर दिया। उन्होंने ध्यान की श्रमण और ब्राह्मïण विधियों को मिलाकर ऐसे ध्यान विकसित किये जिनमें तनाव के चरम शिखर पर पहुंचकर विश्राम की गहरी घाटी में ले जाया जाता है। उन्होंने ध्यान के साथ समर्पण गीत-संगीत और नृत्य का समावेश करते हुए ज्ञान और भक्ति मार्गों को मध्य सेतु बनाते हुए एक अभिनव समन्वय स्थापित किया।
ओशो की ध्यान विधि अपने होने का स्मरण और उनकी आत्मक्रांति व्यक्ति का पूर्ण रूपेण रूपांतरण तो है ही, वरन साथ ही साथ जागृत करुणा पूरी मनुष्यता और पृथ्वी के प्रति एक गहन दायित्व बोध को भी जन्म देती है।
ओशो ने बताया कि यहां धर्म, राजनीति समाज, शिक्षा, अर्थ, स्वास्थ्य, विज्ञान और सभी कुछ एक दूसरे से जुड़े हैं, और पुरोहितों और राजनीतिकों की दुरभिसंधि ने, आम जनता का शोषण करने के लिए प्रत्येक क्षेत्र को व्याप्त स्वार्थों की खातिर इस तरह विषाक्त और प्रदूषित कर दिया है कि प्रत्येक क्षेत्र में समग्र रूपान्तरण की आवश्यकता है और प्रत्येक क्षेत्र के रूपांतरण के बिना मनुष्य धार्मिक और आध्यात्मिक नहीं हो सकता। इसे ओशो कहते हैं- समग्र जीवन में क्रांति।
उन्होंने पूना में मल्टी यूनिवर्सिटी की स्थापना की विदेशों से आने वाले साधकों की तीन विशेषज्ञों द्वारा शारीरिक, मानसिक और आत्मिक जांच की जाती थी। तब उनकी मनोचिकित्सा के लिए किसी विशिष्टï ग्रुप में रखते हुए उन्हें विशिष्टï ध्यान प्रयोग कराए जाते थे। वह मंहगी चिकित्सा थी पर ओशो कहा करते थे कि ध्यान साधना कर आत्मोपलब्ध होना जीवन की सबसे बड़ी लक्जरी है। भौतिक आवश्यकताएं पूरी करने के बाद ही व्यक्ति निश्चिंत होकर ध्यान कर सकता है। पहले जीवन को जोरबा बनकर समग्रता से होशपूर्ण होकर भोग लो। इसीलिए प्रारंभ में होशपूर्ण और सजग होने के लिए सुबह शाम कम से कम एक-एक घंटा ध्यान करो। जिस दिन धन, पद, भोग, यश और प्रतिष्ठïा की व्यर्थता का बोध होता है, उसी दिन जीवन में 180 डिग्री का मोड़ आ जाता है। जीवन पूरी तरह बदल जाता है। कर्ता खो जाता है। कर्ता खोजाए और करना भर रह जाए, यही ध्यान है। नाचते-नाचते नर्तक खो जाए, केवल मात्र नृत्य ही रह जाए। बस यही ध्यान है। कुछ न करना ही ध्यान है। जब तक करने वाला कर्ता मौजूद है तब तक ध्यान कैसा? कर्ता को मिटाने के लिए ही उन्होंने एक नया ध्यान सक्रिय ध्यान दिया। उन्होंने जिबरिश, नोमाइन्ड मिस्टिक रोज, कुंडलिनी, नादब्रह्मï और नटराज जैसे ध्यान प्रयोग दिए। ध्यान, प्रथम और अंतिम मुक्ति, साधना पथ और नेति-नेति जैसी पुस्तकें अंर्तयात्रा की आधार शिला बन गईं।
पूरब और पश्चिम का समन्वय है – संजय भारती
ध्यान उनके योगदानों में से एक है। ओशो ने ध्यान को एक ऊंचाई दी है। पहले जो ध्यान होता था आंखें बंद कीजिए, शरीर को शिथिल कीजिए और भीतर देखिए आदि उसको बदला।
आज के मनुष्य के लिए संभव नहीं है लोग ध्यान करने बैठते हैं अपने आप को जमा के बैठ जाते हैं, लेकिन दिमाग चलता रहता है। ओशो ने पूरब का जो मेडिटेशन है उसके पीछे जो प्रज्ञा है, कि हम अपने भीतर देखें, हम सजग हों, हम साक्षी हों, अपने विचारों के, अपनी क्रिया-प्रतिक्रिया के, उसको ध्यान में जोड़ा। दूसरी चीज ओशो ने देखा की यह जो ध्यान है कि हम बैठ गए, आंखें बंद की और हम भीतर उतर गए अपने विचारों को काटते हुए अपने केंद्र बिन्दु तक पहुंच गए यह आधुनिक मनुष्य के लिए सरल नहीं है। आज हमारे चारों तरफ बहुत सारी चीजें मौजूद हैं जिससे हमारा ध्यान भटकता है पहले यह सब नहीं था। ओशो ने ध्यान में रेचन को शामिल किया। ओशो से पहले रेचन ध्यान का हिस्सा कभी भी नहीं था। शारीरिक क्रियाएं, उछलना, कूदना, उत्सव मनाना आदि। ध्यान का हिस्सा कभी नहीं था। यह सब चीजें आयीं पश्चिम के मनोविज्ञान से लेकिन पश्चिम का मनोविज्ञान ध्यान तक नहीं पहुंचता। वो सिर्फ रेचन करता रह जाता है। व्यक्ति भीतर नहीं उतर पाता बस वो बाहर-बाहर से अपनी मानसिकता, पर्सनेलटी को विकसित कर लेता है। ओशो ने ध्यान में, पूरब और पश्चिम का समन्वय किया। इससे पहले ऐसा कभी भी नहीं हुआ था।
होश और जागरण का प्रतीक है – ओशो शैलेंद्र

ओशो की दृष्टि में ध्यान का अर्थ है ‘होश।’ सामान्य भाषा में जब हम कहते हैं ध्यान तो हमारा अर्थ होता है बाहर के किसी विषय पर होश। आब्जेक्टिव अवेयरनेस, लेकिन अध्यात्म में जब कहा जाता है ध्यान, तो ओशो का अर्थ है स्वयं के प्रति होश। सब्जेक्टिव कांशियसनेस, सब्जेक्टिव अवेयरनेस, सामान्यत: ध्यान का पारंपरिक अर्थ एकाग्रता किया जाता है। ओशो ने बिल्कुल दूसरा अर्थ किया। वे कहते हैं ‘कंसंट्रेशन इज नॉट मेेडिटेशन। एकाग्रता ध्यान नहीं है। एकाग्रता में एक प्रयास है, एक प्रयत्न है और कोई भी प्रयत्न हमें थोड़ी देर में थका देता है। ओशो की दृष्टि में ध्यान का अर्थ है सहज स्पांटिन्यूयस जागरण। कहीं पर फोकस नहीं। एक छोटे से उदाहरण से समझ लें, कंसंट्रेशन ऐसे हैं जैसे कोई टार्च की रोशनी है उसमें लेंस लगा हुआ है और किसी विशेष जगह पर प्रकाश फोकस किया जा रहा है। अन्यत्र सब जगह अंधेरा है। और ध्यान का अर्थ दीपक जल रहा हो जैसे। सब दिशाओं में एक सी रोशनी फैल रही है। टार्च वाली रोशनी कंसंट्रेशन है और उसमें हमारी चेतना थक जाएगी और हमें उसमें विश्राम लेना पड़ेगा। वह हमेशा नहीं सध सकता।
ओशो जिस ध्यान की बात कर रहे हैं जो कि रिलैक्स्ड अवेयरनेस है। उसमें हम हमेशा हो सकते हैं क्योंकि हम विशेष कुछ भी नहीं कर रहे ऐसा सहज रूप से, स्वभाविक रूप से हमारी चेतना का स्वभाव ही है। तो संक्षिप्त में तो ध्यान यानी होश, जागरण।
सभी विधियां व्यावहारिक हैं – मा ओशो अनु
ओशो की दृष्टि में ध्यान भीतर पड़े पर्दे को हटाना है। पर्दा बुना है विचारों से, विचार के ताने-बाने से पर्दा बुना है। जैसे तुम विचारों के पार झांकने लगो, या विचारों को ठहराने में सफल हो जाओ, या विचारों को हटाने में सफल हो जाओ, वैसे ही ध्यान घट जाएगा। निर्विचार दशा का नाम ‘ध्यान’ है।
ध्यान के सबंधं में ओर विस्तार से समझाते हुए ओशो कहते हैं, ‘जब तुम कुछ भी नहीं कर रहे हो- न शरीर से, न मन से, किसी भी तल पर नहीं- जब समस्त क्रियाएं बंद हो जाती हैं। और तुम बस हो- स्वमात्र- यह है ध्यान। यही ध्यान का पूरा विज्ञान है कि कैसे मन को अलग रख दें, कैसे कुछ क्षणों के लिए अमनी दशा में हो जाएं।’
ओशो कहते हैं, ‘ध्यान है समय के पार हो जाना। समय मन है, समय बनता है भूत और भविष्य से, इसके पास वर्तमान का कोई अनुभव नहीं है। ध्यान का पूरा विज्ञान यह है कि तुम्हें भूत और भविष्य से मुक्ति दिलाने में सहायक हो, धीरे-धीरे तुम वर्तमान में स्थिर होने लगते हो, जिस क्षण तुम यहां और अभी होते हो, तुम ने पा लिया।’
ओशो की दृष्टि में ध्यान का अर्थ है ‘होश’। तुम जो होशपूर्वक करते हो, वह है ध्यान। ध्यान है साक्षित्व। ध्यान करने का अर्थ है साक्षी हो जाना।
ओशो की ध्यान विधियों की संख्या व प्रकार इस जगत को ओशो की सबसे बड़ी देन है उनकी ‘ध्यान विधियां’। ओशो ने अनगिनत ध्यान विधियां दीं। अनेक संतों की वाणी समझाते हुए ओशो ने कोई न कोई ध्यान विधि अवश्य बताई है। उदाहरण के लिए गीता दर्शन में अनेक विधियां, महावीर वाणी के प्रथम 14 प्रवचन में बारह तप की व्याख्या, विज्ञान भैरव तंत्र में शिव द्वारा रचित 112 विधियों की व्याख्या, दर्शन डायरी में 200 से अधिक ध्यान विधियां इत्यादि। इसके अलावा ध्यान सूत्र, ध्यान विज्ञान, हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम् नामक पुस्तकें ओशो द्वारा रचित अनेक ध्यान विधियों का संकलन है।
ओशो ने सक्रिय और निष्क्रिय दोनों प्रकार की ध्यान विधियां दीं। ओशो की ध्यान विधियां, विश्रांति और जागरुकता के प्रयोगों, तथा शारीरिक एवं भावनात्मक स्वास्थ्य के प्रयोगों, स्वयं के भीतर के रहस्यों की खोज के प्रयोगों का संकलन हैं।
ओशो ने ऐसी ध्यान विधियों की संरचना की है जो हर प्रकार के लोगों द्वारा उपयोग में लाई जा सकती हैं- उनमें शरीर का पूरा उपयोग है, भाव का भी पूरा उपयोग है और होश का भी पूरा उपयोग है, तीनों का एक साथ उपयोग है और वह अलग-अलग लोगों पर अलग-अलग ढंग से काम करती हैं। वे शरीर पर शुरू होती हैं, वे हृदय से गुजरती हैं, वे मन पर पहुंचती हैं और फिर वह मनातीत में अतिक्रमण कर जाती हैं।
और ऐसी परिस्थिति में, जब आप सक्रिय ध्यान विधि का प्रयोग नहीं कर सकते, निष्क्रिय विधियां उपलब्ध हैं। जिनका प्रयोग कहीं भी, किसी भी समय किया जा सकता है, तब भी जब आप के पास केवल कुछ मिनटों का समय हो।
ओशो ध्यान की उन विधियों के प्रस्तोता हैं, जो आज के गतिशील जीवन को ध्यान में रखकर रची गई हैं। ओशो ने एक वैज्ञानिक की तरह अतीत के सारे दृष्टिकोणों पर समीक्षा और प्रयोग किए हैं और आधुनिक मनुष्य पर उनके प्रभाव का परीक्षण किया है, तथा उनकी कमियों को दूर करते हुए 21वीं सदी के अतिक्रियाशील मन के लिए एक नवीन प्रारंभ बिंदु: ‘ओशो सक्रिय ध्यान’ का आविष्कार किया है।
सक्रिय ध्यान इस तरह रचे गये हैं कि पहले शरीर और मन के एकत्रित तनावों का रेचन हो सके, जिससे रोजमर्रा के जीवन में सहज स्थिरता फलित हो और विचार-रहित विश्रांति अनुभव की जा सके।
आधुनिक मनुष्य एक बहुत ही नयी घटना है। कोई भी परंपरागत विधि अपने मूल रूप में प्रयुक्त नहीं हो सकती। पुरातन युग में मनुष्य के व्यक्तित्व का केंद्र मस्तिष्क नहीं, हृदय था। इससे पहले हृदय से भी नीचे का तल ‘नाभि’ मनुष्य के व्यक्तित्व का केंद्र था। अब यह तल नाभि से भी दूर, हृदय से भी दूर हो गया। अब केंद्र मस्तिष्क हो गया। इसलिए रेचन आवश्यक है क्योंकि मस्तिष्क के कारण हृदय दमित है। भजन गान अब उतना उपयोगी नहीं क्योंकि हृदय बहुत बोझील हो गया है, भजन गान में न खिल पायेगा। आधुनिक मनुष्य इतना बदल चुका है उसे नयी विधियां नयी तकनीक चाहिये, जो ओशो ने इस जगत को दीं, ताकि चेतना को स्रोत तक लाया जा सके। तभी रूपांतरण की संभावना है।
इसके लिए ओशो ने व्यवस्थित विधियों की बजाय अराजक विधियां इस्तेमाल की, क्योंकि अराजक विधि केंद्र को मस्तिष्क के नीचे ढकेलने में सहायक होती है। ओशो बहुत ही सुन्दर ढंग से समझाते हुए बताते हैं कि व्यवस्थित ढंग द्वारा मस्तिष्क और भी सशक्त होता है, कोई भी व्यवस्थित ध्यान केंद्र को नीचे ढकेलने में असमर्थ होता है क्योंकि व्यवस्थापन मस्तिष्क का कार्य है। जब भी आप अव्यवस्थित होते हैं तो मस्तिष्क कार्य करना बंद कर देता है।
अराजक विधि द्वारा मस्तिष्क प्राणविहीन होता जाता है, केंद्र स्वत: ही मस्तिष्क से हृदय की ओर धकेला जाता है। फिर हृदय को निर्भार करने के लिए, दमित भावों को बाहर फेंकने के लिए रेचन चाहिए। यदि हृदय हल्का तथा निर्भार हो तो चेतना का केंद्र और भी नीचे लाया जा सकता है, वह नाभि के पास आ जाता है। मूल स्रोत का निकटतम केंद्र नाभि है। मस्तिष्क मूल स्रोत से सबसे दूर है। तो चेतना को उसके मूल तक वापिस खींचने के लिए अराजक विधियों की आवश्यकता है क्योंकि रूपांतरण जड़ से ही संभव है। ओशो द्वारा रचित ये विधियां आज के युग में बहुत ही कारगर सिद्ध हो रही हैं।
ओशो ने ध्यान के साथ साक्षी भाव जोड़ा, उन्होंने बार-बार इस बात पर जोर दिया कि ‘द्रष्टा’, देखने वाला कौन है?-उसे नहीं भूलना।
पारंपरिक विधियों से भिन्न है – स्वामी आनंद धु्रव
ओशो की ध्यान विधियां मानव-जाति के लिए अप्रतिम योगदान है। विश्व भर की साधना पद्धतियों को खोजकर उन्होंने ध्यानविधियों को विकसित किया है। बौद्ध, ताओ, शिन्तो, हसीद, सूफी, तिब्बती, यहूदी जैसी तमाम परम्पराओं को समेट कर ओशो ने ध्यान विधियों को विकसित किया है। इतना विशद कार्य तो न पूर्णावतार कृष्ण ने किया, न बुद्ध ने। कृष्ण ने केवल अनापानसति का उपदेश किया है और बुद्ध ने विपस्सना का-दोनों लगभग एक जैसी ध्यान विधि है। परम्परा पोषित मन को शायद अच्छा न लगे, लेकिन सत्य तो यही है कि ओशो ने कृष्ण और बुद्ध से भी अधिक ध्यान विधियां मानव जाति को प्रदान की। कृष्ण ने अपना समय तमाम सामाजिक, राजनीतिक कार्यों में व्यतीत किया (जो अध्यात्मिक नहीं थे) जबकि ओशो ने सारा जीवन, एक-एक क्षण ध्यान और अध्यात्म में ही व्यतीत किया।
ओशो की ध्यान विधियां पारंपरिक विधियों से भिन्न हैं क्योंकि ओशो की विधियों में पहले रेचन, चित्त की सफाई, भीतर के कचरे को फेंकने से शुरुआत होती है। कृष्ण, बुद्ध और पतंजलि के सामने सभ्यता, संस्कृति के कारण बेईमान और पाखण्डी तनावग्रस्त आधुनिक मनुष्य नहीं था, ओशो के सामने, मनुष्य का पाखण्ड, तनाव, कई-कई चेहरा, कई-कई व्यक्तित्व नई-नई चालाकियां, अपने को ही धोखा देने की प्रवृत्ति, तमाम रोग, विकृतियां दिख रही थी- जिसका इलाज जरूरी था और इलाज उनकी ध्यान विधियों में समाहित है। ओशो ध्यान विधियां इस मामले में भी भिन्न हैं कि ओशो जीवन के उत्साह, उमंग, आनन्द, सौन्दर्य को पराकष्ठा पर ले जाते हैं जबकि बुद्ध और पतंजलि, जीवन से किसी तरह छुटकारा पाना चाहते हैं, दुखों से निवृत्ति चाहते हैं, उनके लिए जीवन दुख है एक पीड़ा है, इन सबसे मुक्ति चाहिए, मोक्ष चाहिए। ओशो जीवन को एक अवसर मानते हैं- आनंद के लिए, उत्सव के लिए, प्रसन्नता के लिए, एक्सटैसी के लिए। सत्यं, शिवम्ï, सुन्दरम् का एक अवसर।
पांच विधियां जरूरी हैं-मा धर्म ज्योति

जगत को ओशो की सबसे बड़ी जो देन है वो है ध्यान और ध्यान की विधियां, जो उन्होंने दी हैं। बुद्ध, महावीर ने भी ध्यान विधियां दीं पर वो जमाना अलग था, उन्होंने अपने साधकों को एक ही विधि दी जैसे, बुद्ध ने कहा कि विपस्सना ध्यान करो, लेकिन आज के माहौल, परिस्थिति को देखकर ओशो ने इतनी-इतनी विधियां दीं कि कोई भी ध्यान से वंचित न रह पाए। ओशो जानते थे सबकी ऊर्जा अलग ढंग से काम करती है तो सबको एक ढांचे में नहीं डाल सकते हैं।
ओशो ने जब शिविर किए नए लोगों के लिए तो उन्होंने पांच विधियां बताईं, सक्रिय, नादब्रह्मï, विपस्सना, कुण्डलिनी और नटराज ध्यान। उन्होंने कहा शिविरों में यह पांच विधियां लोगों को सिखाओ। इन पांच विधियों में से कोई न कोई विधि सबको अनुकूल पड़ जाएगी। जो विधियां सीख जाएं वह घर जाकर उन्हें जारी रखें।
ओशो ने ध्यान को एक नई विनोदपूर्णता दी नहीं तो ध्यान के नाम पर, अब तक बिल्कुल गंभीरता थी। ओशो ने ध्यान को बिल्कुल नया बना दिया कि हंसो, नांचो, गाओ, और ध्यान करो, ‘हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्ï।’ यह बिल्कुल ओशो की ही देन थी नहीं तो ध्यान के नाम पर केवल, जैसे लोग सिर्फ मुर्दा की भांति बैठे रहते थे।
रेचन और अहोभाव से जुड़ा है – मा ओशो मोक्षा
ओशो ने बहुत सी नई ध्यान विधियां जोड़ीं, पुरानी ध्यान विधियों के रहस्य हमारे लिए पुन: उजागर किए। जहां जरूरी था, उनका आधुनिकरण भी किया। ध्यान विधियों के अलावा ओशो ने जीवन के हर कृत्य को ध्यान बनाने की कला सिखाई।
ओशो ने ध्यान विधियों में 2 मुख्य चीजें जोड़ी हैं। ध्यान के पूर्वाध में रेचन, कैथारसिस को जोड़ा। जो आज के व्यक्ति के लिए आवश्यक है खाली होने के लिए, ध्यान में शांति से उतरने के लिए। हल्का होने के लिए। कैथारसिस कह लें ध्यान की तैयारी है, मन का स्नान है। मन में बनी ग्रंथियों का विसर्जन है, भीतर एकत्रित हुए कचरे की सफाई। और दूसरी बात, ध्यान के अंत में अहोभाव, भक्ति, मस्ती को जोड़ा। इससे ध्यान के बाद जो उदासीनता आ सकती थी उससे भी साधक बच जाता है। उसमें फिर आनंद, उत्सव उतर आता है।
ओशो की सब ध्यान विधियों का सार, मूलतत्त्व है- साक्षीभाव, उस मूल बिंदु तक पहुंचना जिसके और पीछे न जाया जाए।
वैज्ञानिक और समसामायिक है-ओशो करुणेश
ओशो ने ध्यान के नाम से प्रचलित क्रिया काण्ड एवं भ्रांतियों को दूर कर इसे वैज्ञानिक और सम-सामयिक बनाकर सर्वसाधारण के लिए सरल और सुगम बनाया।
पहली भ्रांति जो ध्यान के नाम से प्रचलित है, वह यह है कि ध्यान चित्त की एकाग्रता है। जबकि वास्तव में ध्यान अ-मनीय अवस्था है, निर्विचार अवस्था है।
दूसरी प्रचलित भ्रांति यह है कि ध्यान एक बहुत कठिन तप-कर्म है, जबकि ओशो ने साफ समझाया कि ‘ध्यान शरीर व मन की विश्रामपूर्ण व निष्क्रिय अवस्था है, संपूर्ण जागरुकता के साथ। हां, ओशो ने कई ध्यान विधियों का प्रतिपादन किया जिसमें सबसे विवादास्पद है सक्रिय ध्यान विधि। विवादास्पद इसलिए क्योंकि एक ओर जहां ओशो स्वयं कहते हैं कि ध्यान अक्रिया है, जहां हम कुछ नहीं कर रहे होते, बस होते हैं। वहीं दूसरी ओर वे सक्रिय ध्यान की बात करते हैं। इसके पीछे बड़ा मनोवैज्ञानिक कारण है। पूर्व में मनुष्य बहुत निश्छल व सरल होते थे और सीधे-सीधे निष्क्रिय ध्यान में उतर सकते थे।
ओशो ने ऐसी ध्यान विधियों को प्रतिपादित किया जिसके लिए कहीं जंगल या पहाड़ पर जाने की जरूरत नहीं है। इसे घर के वातानुकूलित कमरे में, सारी सुख-सुविधाओं में बैठकर अथवा बाजार के कोलाहल में भी किया जा सकता है।
आधुनिक मनुष्य के लिए है – स्वामी अन्तर प्रदीप
गोतम बुद्ध के बाद ओशो ही एक मात्र प्रज्ञा पुरुष हैं जिन्होंने चेतना के अंतिम स्तर को स्पर्श किया है। उन्होंने तमाम ध्यान विधियां विकसित की हैं पर सक्रिय ध्यान उनकी सबसे बड़ी देन है, उन लोगों के लिए जिन्होंने जन्मों-जन्मों तक अपनी वृत्तियों एवं मनोदशा का दमन किया है। ओशो ने कहा है ‘ध्यान प्रथम और अंतिम मुक्ति है।’ ओशो की सक्रिय ध्यान की विधियां आधुनिक मनुष्य को एक बहुत बड़ी देन है क्योंकि आधुनिक मनुष्य का केंद्र मस्तिष्क है।
मनुष्य मन तल पर हो तो परंपरागत ध्यान विधियां काम नहीं आती हैं। परंपरागत ध्यान विधियां तब काम आती थीं जब मनुष्य का तल हृदय और नाभि था। पतंजलि के युग में मनुष्य सहज और सरल था इसलिए सारी पुरानी विधियां कारगर थीं पर आज नहीं है। ओशो ने कहा कि ‘सक्रिय ध्यान विधि इतनी अराजक होती है कि केंद्र स्वत: ही मस्तिष्क से हृदय की ओर धकेला जाता है। यदि आप सक्रिय ध्यान को पूरी शक्ति से, अव्यवस्थित, अराजक ढंग से करते हंै तो आपका केंद्र हृदय की ओर आने लगता है। रेचन होता है जो आवश्यक है। क्योंकि मस्तिष्क के कारण हृदय दमित है। आज के परिवेश में मैं यह देखता हूं कि आधुनिक मनुष्य इतना बदल चुका है कि उसे नयी विधियां नहीं सक्रिय ध्यान चाहिए।’
गंभीर नहीं उत्सव से परिपूर्ण है-मा ओशो ऐश्वर्या
आज तक ध्यान की परिभाषा एकाग्रता से की गई है। लेकिन ओशो ने पहली बार ध्यान को निष्क्रिय जागरुकता से जोड़ा। ओशो ने ध्यान को गंभीरता से मुक्त कर उत्सव से जोड़ा। ओशो ने ध्यान की भूमिका में रेचन, कैथारसिस को जोड़ा और ध्यान के अंतिम चरन में उत्सव को चुना। सक्रिय ध्यान आधुनिक मनुष्य के लिए एक अद्ïभुत विधि है जिसमें व्यायाम, प्राणायाम, रेचन, उत्सव है।
पहले जमाने में ऋषि मुनी ध्यान करते थे लेकिन ध्यान करते-करते वे इतने गंभीर हो जाते थे। उनकी ऊर्जा जग तो जाती थी लेकिन उस ऊर्जा को फैलाने का कोई प्रयोजन नहीं था। वे किसी पर भी क्रोधित हो जाते और उनके श्राप से लोग पीड़ित भी होते थे। पुराने समय में जब विद्युत का आविष्कार नहीं हुआ था तब लोग शारीरिक रूप से स्वस्थ और मानसिक रूप से शांत होते थे। लेकिन आज परिस्थिति ठीक विपरीत है। मशीन, विद्युत, वाहन, टेलीफोन, इंटरनेट और टेलीविजन ने हमें शारीरिक रूप से इनएक्टिव और मानसिक रूप से तनावग्रस्त बना दिया है। सभ्यता के कारण मनुष्य हंसना और रोना भूल गया है। आत्महत्या, डिप्रेशन, पागलपन और आतंक इसके परिणाम हैं। ओशो ने कहा न सप्रेशन, न डिप्रेशन, न एग्रेशन, केवल रेचन। आज मानवजाती के पास एक ही उपाय है: ध्यान। ओशो ने वैसे तो कई ध्यानविधियों से हमें परिचित करवाया, किंतु सक्रिय ध्यान, कुंडलिनी ध्यान, कीर्तन ध्यान इन विधियों से क्रांति घटित हो सकती है।
कुंडलिनी ध्यान में कुंडलिनी जागृत होने से काम से राम तक की यात्रा की जा सकती है। डिस्ट्रक्टिव ऊर्जा को कंस्ट्रक्टिव ऊर्जा में परिवर्तित करके काम और क्रोध से मुक्त हुआ जा सकता है। इस प्रकार ओशो की बताई इन ध्यानविधियों के प्रयोग करने से हम शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक स्वास्थ को उपलब्ध हो सकते हैं।
