Life Journey of Osho: ओशो की कॉपीराइट और रॉयल्टी को लेकर भी कई लोगों की शिकायते रहती हैं कि कॉपीराइट के नाम पर लोगों की वेबसाइट, यू-ट्यूब पर से कंटेन्ट हटा दिया जाता है तो किसी को ओशो की पुस्तकें प्रकाशित करने पर रोक लगा दी जाती है। इस कॉपीराइट के पीछे कि सच्चाई क्या है, आइए जानते हैं इससे जूझते ओशो के विभिन्न संन्यासियों के माध्यम से?
ओशो की कॉपीराइट और रॉयल्टी को लेकर मेरी बातचीत वर्तमान में ओशो वर्ल्ड के संपादक स्वामी चैतन्य कीर्ति से हुई प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश।
ओशो की कॉपीराइट को लेकर आखिर मसला क्या है, क्यों लोगों को इससे जूझना पड़ता है।
ओशो की जो मूलभूत जीवन देशना है उसको समझना बहुत जरूरी है। जीवन में दो बातें काम करती हैं, लव एण्ड लौ। एक है प्रेम और दूसरी है नियम। और प्रेम हमेशा से ही नियम-कानून से ऊपर है, श्रेष्ठï है। ओशो कहा करते थे कि ‘कानून की आवश्यकता ही इसलिए पड़ी क्योंकि संसार में प्रेम है ही नहीं। अगर प्रेम जीवन में होगा तो कानून की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। क्योंकि जहां प्रेम है वहां कुछ गलत नहीं होता।’ ओशो ने बड़ी उदारता से अपने शिष्य को काम पर लगाया अगर आप उनके ‘प्रवचनों’ एवं ‘दर्शन डायरी’ को देखेंगे तो आप पाएंगे कि ओशो लोगों को अपने काम के लिए प्रेरित कर रहे हैं। जो भी लोग उनसे मिलने आते या दर्शन के लिए आते थे उनसे ओशो कहते थे कि ‘आप मेरे लोगों को कार्य में सहयोग करें, मेरे काम को फैलाएं, ध्यान केंद्र खोलें।’ जिसकी कोई लिखा-पढ़ी नहीं होती थी, कोई कानून नहीं होता था, बस आंखों में देखा और निर्देश दे दिया की मेरा काम करना।
मेरा ओशो से मिलना काम के सिलसिले में ही अधिक रहा है क्योंकि पत्रिका का संपादक था। उनका निर्देश बिल्कुल स्पष्टï था, बड़े चाव से वो पत्रिका देखते थे। लेकिन कई-कई वर्ष बीत जाने के बाद भी हमें कभी कोई सुझाव नहीं देते थे। एक तरह से उन्हें हम सब पर बहुत ज्यादा विश्वास था। हम कई बार उनसे पूछते भी थे कि ‘आपको पत्रिका कैसे लगी? लेकिन एक बार भी कभी कोई सुझाव नहीं आया कि आप गलत कर रहे हो।
दूसरा अगर कोई भी कहीं भी, कुछ भी कर रहा होता था तो उनका निर्देश होता था कि आप उनके हेड मास्टर मत बनना, उनको अनुशासन, नियम मत सिखाना। सारे सेंटरों को उनका जो भी प्रवचन होते थे वहां उसकी ऑडियो कॉपी पहुंचङ्ख जाती थी। केंद्रों को यह स्वतंत्रता थी कि वह ओशो के प्रवचनों को डुप्लीकेट करके अपने शहर में बेच सकते थे। सच तो यह है ओशो जानते थे कि एक केंद्र पर दो आदमी बैठकर कितने प्रवचनों की कॉपी कर पाएंगे और कितना उन्हें उपलब्ध करा पाएंगे? इसलिए उन्होंने सेंटर खुलवाए ताकि उन्हें सरलता से उपलब्ध कराया जा सके।
ओशो का कार्य विराट है। उस पर दो-चार व्यक्ति एकाधिकार नहीं जता सकते, और यह व्यवहारिक भी नहीं है। दूसरा, अगर पूना वालों को लगता है कि ओशो का काम ठीक ढंग से नहीं हो रहा है- जैसे क्वॉलिटी या स्टैंडर्ड के मुताबिक नहीं हो रहा है, तो मैं इस पर एक उदाहरण देना चाहता हूं- पूना में एक पेपर निकलता था ‘योग दीप’ ओशो का मराठी पेपर था। योग दीप की संपादिका ‘वंदना’ उनका अनुवाद करके ओशो पर किताबें भी छापती थीं। इस पर कुछ लोग थे जो जाकर ओशो को शिकायत करते थे कि ‘अनुवाद अच्छा नहीं है स्तर का नहीं है। ओशो ने इस पर उत्तर दिया, आप उसका प्रेम देखो करना नहीं आता फिर भी कर रही है। तुम्हें करना था तुम कर नहीं रहे हो। मैं इस बात की सराहना करता हूं कि उस व्यक्ति का भाव देखो जिसके पास क्षमता नहीं है, संसाधन नहीं है फिर भी वो मेरे काम में लगा है। तुम्हारे पास बुद्धि है, गुणवत्ता है फिर भी तुम नहीं कर रहे हो।’ ओशो ने कभी भी करने वाले को निरुत्साह नहीं किया, कोई बेहतर करने वाला आ जाएगा तो उसको वो कार्य दे देंगे लेकिन यह नहीं कि उसको बंद करा देंगे। पूना वालों का रवैया ऐसा हो गया है कि पहले जहां कहीं छप रहा है उसको बंद कराओ। जब ओशो के प्रवचनों की सी.डी. का जमाना शुरू हुआ एमपी 3 शुरू हुई कि जिसमें आप एक एमपी 3 में कई-कई प्रवचन भर सकते हो तब पूना कम्यून की तरफ से कोई भी ओशो की सी. डी. आ ही नहीं रही थी। कुछ भी नहीं आ रहा था। और कई लोगों ने तो 25-25 रुपये की सी. डी. बनाकर के बेचना भी शुरू कर दिया था। जब आप करोगे नहीं तो दूसरा तो मजबूरी में करेगा ही और वो भी कई सालों के बाद।
इस मामले में मैं हमेशा पूना में देख रहे प्रशासन व्यवस्था वालों को झकझोरता था कि जो भी पैसा आपको ओशो की किताबें छापने के लिए मिला है उसका उपयोग उसी के लिए हो क्योंकि ओशो ने खुद कहा है ‘कि मेरी कोई किताब आउट ऑफ प्रिंट नहीं होनी चाहिए। ‘ह्लश द्धशद्यस्र द्व4 ड्ढशशद्म ह्वठ्ठश्चह्वड्ढद्यद्बह्यद्धद्गस्र द्बह्य ड्ड ष्ह्म्द्बद्वद्ग’ यह ओशो के शब्द हैं। अब यह लोग क्या करते थे जो भी पैसा मिलता था उसको बिल्डिंग बनाने के काम में लगा देते थे कि इसको सुंदर करना है, या लक्जरी चीजों पर पैसा खर्च कर देते थे। बिल्डिंग के काम को बाद में भी किया जा सकता है। बिल्डिंग से ज्यादा ओशो का प्रकाशन जरूरी है किताबों के जरिए ओशो हजार मील दूर बैठे व्यक्ति तक भी पहुंचते हैं। और जो भी पैसा मित्रों ने दिया है वो किताब के लिए दिया है अगर बिल्डिंग ही बनानी है तो जो लोग आश्रम में ठहरते हैं या जो भी डोनेशन मिलती है उसको बिल्डिंग के कार्य में लगाओ। लेकिन प्रकाशन के पैसों को तुम भवन निर्माण में मत लगाओ। लेकिन पूना वालों ने हमेशा किताबों के प्रकाशन को अंतिम स्थान पर रखा।
पुरानी किताबों में हमने देखा है कि कॉपीराइट लिखा है, इसका मतलब ओशो खुद चाहते थे कि कॉपीराइट हो तभी तो उन पर लिखा हुआ है?
ओशो बिल्कुल चाहते थे कि किताबों पर कॉपीराइट रहे पर उनके चाहने का यह मतलब नहीं था कि आप लोगों पर मुकद्ïमे करो।
जब तक हम वहां रहे एक भी आदमी पर मुकद्ïमा नहीं किया गया। हमें पता भी रहता था कि किसने कॉपीराइट का उल्लंघन किया फिर भी। कॉपीराइट इसलिए रखा था, कि वैधानिक चुनौती बनी रहें एक नियम बना रहे। लेकिन हमने कभी किसी पर कानून नहीं थोपा, सबसे प्रेम से व्यवहार किया। कोर्ट में हम किसी को कभी नहीं ले गए। 1989 तक जब तक ओशो शरीर में रहे। और उनके बाद भी ऐसा रहा। फिर बाद में हमने देखा कि संन्यासियों को भी लीगल नोटिस दिया जा रहा है। जबकि ये तो ओशो ने अपने प्रवचनों में भी कहा है कि मैं चाहता हूं कि लेखक, साहित्यकार, कवि मेरी बातों को चुराएं सिनेमा, रंग मंच आदि पर हर जगह उसका इस्तेमाल हो।
ओशो ने कहा है ‘सत्य पर किसी का कोई अधिकार नहीं होता। अगर मैंने कोई सत्य बोला है और आपने उसे पढ़ा और समझ लिया तो वह सत्य आपका हो गया। मैं किसी सत्य को अपने घर से लेकर नहीं आया हूं सत्य को अस्तित्व ने दिया है, अस्तित्व की भेंट है यह बस मेरे द्वारा अभिव्यक्त हुआ है, इस पर मेरा कोई एकाधिकार नहीं है। सत्य पर किसी की कोई मालकियत नहीं होती, सत्य तो सभी का होता है।’
कॉपीराइट का अर्थ कोई नियंत्रण नहीं था। वह बस इसलिए था कि प्रकाशन में थोड़ा संयम बरता जाए। जिस तरह से किताबों का प्रकाशन होना चाहिए वो वैसा हो।
हमारे पास अगर कोई पब्लिशर्स ओशो की किताबें छापने की जिज्ञासा लिए आता था, तो हम उसे परमिशन देते थे लेकिन इसके साथ हमारे जो दिशा-निर्देश थे वो उनको बताते थे कि ओशो चाहते हैं कि किताब का स्तर ऐसा हो। स्थिति को देखते हुए अगर फिर भी किन्हीं कारणों से किताब का स्तर वैसा नहीं रहता था तो कोई बात नहीं आगे सुधर जाएगी, पर उसे निरुत्साहित या नियंत्रित नहीं करते थे।
एक बार की बात है हमने रशिया के पुस्तक मेले में भाग लिया था, जहां ओशो की पुस्तकें हमारे स्टॉल से खूब चोरी होती थीं। इस संबंध में जब हमने ओशो को बताया कि ‘किताबें चोरी हो रही हैं हम क्या करें’ तो इस पर ओशो ने उत्तर दिया कि ‘जब वो आपकी किताबें चुराएं तब उस ओर मत देखना दूसरी ओर देखना। उनको शौक से चुराने दो, बड़े भाव से चुरा रहे हैं उन्हें चुराने दो।’ मतलब ओशो अपनी पुस्तकें चोरी तक कराने को तैयार हैं कि मैं यहां तक भी पहुंचू। इसका परिणाम यह हुआ कि ओशो के देह छोड़ने से पहले रशिया में हमारी 100 किताबें अनुवाद हो कर छप चुकी थीं। आज बहुत सारे रशियन जो पूना कम्यून या ओशो धाम में ध्यान करने आते हंै इसका श्रेय उन किताबों को ही जाता है, जो चोरी हो गई थीं।
काम इस तरह फैलता है लेकिन हमारी जो दृष्टिï है वो बड़ी संकुचित होती है हम चोरी को चोरी की तरह देख लेते हैं। इसे सिर्फ ओशो जैसा रहस्यदर्शी ही देख सकता है कि इसका आगे जाकर परिणाम क्या होगा और उसका परिणाम मिला भी। अभी जो पूना कम्यून का प्रशासन चला रहे हैं उनको इन बातों से प्रेरणा लेनी चाहिए।
ओशो कम्यून तो भारत में है परंतु कुछ भी करने के लिए परमिशन, बाहर विदेशियों से क्यों लेनी पड़ती है, क्या सारे हक कॉपीराइट, न्यूयॉर्क वालों के पास है, यह कैसे संभव हुआ?
जब मैं वहां पूना आश्रम में था तो मुझे कभी-कभी बड़ा दुख होता था जब 1997 के बाद इन्होंने बाहर विदेश न्यूयॉर्क में कॉपीराइट करवाए, हिन्दुस्तान में नहीं विदेश में। अब यह लोग एक तरह से एजेंट बन गए।
दरअसल ओशो के प्रेम में तो लोग ब्लैंक पेपर में भी साइन कर देते थे, ओशो के प्रेम में आप कोई नियम पढ़ने नहीं बैठते। अगर आप ब्लैंक चेक लाओगे तब भी वो साइन कर देंगे, क्योंकि आप ओशो का काम करने जा रहे हंै। और ओशो के साथ हमारा संबंध तो श्रद्धा और भरोसे का था बीच में कानून की तो जगह ही नहीं थी।
अब उसका दुरुपयोग क्या होगा वो दिखाई पड़ता है कि जिस देश में ओशो पैदा हुए, रहे, सब कुछ किया, जो क्षेत्र उनका ओरिजन रहा वहां के लोगों को भी ओशो से जुड़े हर कार्य को करने के लिए न्यूयॉर्क से परमिशन लेनी पड़ती है।
मुझे याद है, मैं उस समय प्रेस और पब्लिकेशन दोनों में कार्यरत था। एक कन्नड़ भाषा के प्रकाशक आए मेरे पास आए, वो रोने बैठ गए वो कहते हंै ‘आज हमसे यह 7.5 प्रतिशत रॉयल्टी मांग रहे हैं, हम तो उधार लेकर किताबें छापते हंै यह हमसे रॉयल्टी मांगते हैं। कन्नड़ में इतना साहित्य बिकता भी नहीं है साल भर में कोई 1000-1200 कापी ही बिक पाती हैं।
इतना ही नहीं वो कहने लगे, कि हम जब आते हैं तो हमसे अब वो प्रेम वाला व्यवहार नहीं होता। हमसे सबसे पहले व्यवहार होता है कि कॉपीराइट पर साइन करो। अब साइन कर देंगे तो फिर यह मुकद्ïमा करेंगे हम पर।
ऐसे ही जापान वाले आए जो जापान में ओशो की 100 किताबें छाप चुके थे। ऐसे ही फ्रांस वाले आए, ‘स्वामी संत’ जिन्होंने ओशो की 35 किताबें छाप दी थीं फ्रेंच भाषा में। उनकी तो सारी किताबें ही मार्किट से उठाकर के फड़वा दी गईं और कहा गया कि आप ये किताबें नहीं बेच सकते। जबकि ‘स्वामी संत’ बताते हैं कि जब उन्होंने पहली किताब छापी थी तो वो किताब ओशो ने 2-3 दिन तक अपने पास ही रखी थी। ओशो बहुत प्रसन्न हुए थे यह देख कर कि मेरी फ्रेंच भाषा में भी किताब छपी है। लेकिन ओशो के जाने के बाद इन्होंने कोई-कोई कमी निकालकर उसकी सारी किताबें हटवा दीं।
खुद इन्होंने अभी तक तीन दर्जन किताबें भी नहीं निकाली उस किताबों को हटाने के बाद उसकी सारी किताबें फड़वा भी दीं। साथ में लीगल नोटिस भेज दिया गया। जब ऐसे केस मेरे सामने आते थे तो मैंने देखा कि यह लोग तो गलत रास्ते पर चल पड़े हैं। यहां प्रेम अंतिम हो गया है, नियम-कानून सर्वोपरि हो गया है। ओशो प्रेमियों में नियम-कानून सर्वाेपरि नहीं हो सकता, प्रेम ही सर्वोपरि हो सकता है।
एक समय था जब लोग ओशो की किताब छापने के बाद बड़े प्रेम से उन्हें दिखाने आते थे। तब ओशो उनकी सराहना करते थे। पर
अब यह लोग सराहना तो क्या, यह लोग नियम-कानून सुना देते हैं। इतनी रॉयल्टी पहले दो, इतना यह इतना वो वगैरह। इन लोगों के लिए ओशो फ्रेंचाइजी हो गए हैं। लेकिन मैं बता दूं ओशो कोई फ्रेंचाइजी नहीं हैं, ओशो प्रेम हैं।
ओशो के हस्ताक्षर को कई देशों के एक्सपर्ट जाली बताते हैं हकीकत क्या है इसके पीछे की।
यह तो सत्य बात है कि आप अभी कोई हस्ताक्षर करें और दूसरा हस्ताक्षर एक घंटे के बाद करें तो दोनों में आपको फर्क नजर आ जाएगा। यह तो एक निश्चित बात है जो उन्होंने दिखाई है। उन्होंने उनका पहले किया हुआ हस्ताक्षर लगा दिया। इसमें पूरी संभावना क्या यथार्थ ही है कि वो हस्ताक्षर जाली है। ओशो को अपने शिष्यों पर पूरा भरोसा था। होता क्या था जैसे ओशो पर कोई कोर्ट केस आया तो कोई व्यक्ति वकील के पास जाता है ओशो की ओर से लड़ने के लिए या उनके लिए वकील तलाश रहा है। ऐसे ही किसी और शहर में जहां ओशो जा नहीं सकते तो वो ब्लैंक पेपर पर भी साइन करके वे देते थे। बाकी लिखना आपको है। ऐसा ओशो करते थे। ऐसे किसी ब्लैंक पेपर पर हस्ताक्षर करा लो उस पर कुछ और लिख दे। ओशो ने तो सदा भरोसे के साथ दिया और हमने भी ओशो के साथ श्रद्धा और भरोसे का जीवन जिया है कानून तो आते ही नहीं थे बीच में।
यह शर्मिंदा होने वाली बात है कि इन्होंने कोर्ट में जाकर कहा कि यह ओशो की वसीयत है। जबकि ओशो कभी इस भाषा में बात करते ही नहीं थे।
यह एक आपराधिक कृत्य है-स्वामी आनंद अरुण

इसी विषय पर मेरी बात ओशो के वरिष्ठï संन्यासी तथा नेपाल, तपोवन आश्रम के संचालक- संस्थापक स्वामी आनंदअरुण से हुई। प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश।
यह बिल्कुल आपराधिक ढंग से किया गया कृत्य है। ओशो कहा करते थे जो मैं कह रहा हूं वो शाश्वत सत्य है इसे मैं इजाद नहीं कर रहा, मैं बस इसे रीडिसकवर कर रहा हूं, कभी ओशो ने कोई दावा नहीं किया कि यह मेरा है उन्होंने कहा यह अनादिकाल से चला आ रहा सत्य है।
अपने जीवन काल में ओशो ने कहा कि मेरी किताबें, साहित्य जो भी छापना चाहे उन्हें छापने दे, उनसे कोई रॉयल्टी मत लो। लागत मूल्य पर मेरी किताबें लोगों तक पहुंचाओ।
ओशो कभी भी इसको व्यापार नहीं बनाना चाहते थे। अब जो लोग इसे व्यापार बनाना चाहते हंै वही कॉपीराइट और ट्रेडमॉर्क की बातें करेंगे।
ओशो चाहते थे कि जो भी शाश्वत सत्य है वह अधिक से अधिक लोगों तक जल्दी से जल्दी पहुंचे। लेकिन ओशो की हत्या के बाद लोगों ने कॉपीराइट को व्यापार का बहुत बड़ा जरिया बना लिया। आज उससे करोड़ों रुपये कमा रहे हैं और उसी पैसे से ओशो का काम खराब कर रहे हैं।
ओशो की पुरानी किताबों में भी कॉपीराइट लिखा है तो वो सब कैसे होता था?
ओशो जब पूना आए तब रजनीश फाउंडेशन बना तब उनके पास कॉपीराइट होता था लेकिन उस समय पूना कम्यून वाले एग्रीमेंट देते थे कि आप ओशो की किताबें छाप सकते हैं, उनकी कैसेट निकाल सकते हैं, बस इसमें एडिटिंग मत करना, अपनी तरफ से कुछ जोड़ना मत, क्वॉलिटी अच्छी हो पेपर की और बुक के कवर पेज पर ओशो की फोटो लगाओ क्योंकि ओशो कहते थे ‘मेरी तस्वीर भी बोलती है। जितने मेरे शब्द शक्तिशाली हैं उतना ही मेरा चित्र भी शक्तिशाली है।’
इसलिए पूना वालों ने उनकी किताबों, से आश्रम से ओशो की तस्वीरें हटा दी क्योंकि जब तक उनकी तस्वीरें वहां रहेगी उनके काम को नष्टï करना मुश्किल हो जाता है।
ओशो के कॉपीराइट के चलते आपको किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है?
दिक्कतें तो पूना वाले सबके आगे खड़ी करते हैं सिर्फ मेरे ही नहीं जितने लोग भी ओशो का काम कर रहे हैं उन सब लोगों को दिक्कतों का सामना करना पड़ता है कभी वेबसाइट बंद कर देते हैं, हमारे ओशो का काम रोक देते हैं।
कारण पूछो तो उन लोगों का कहना होता है कि ‘ओशो हमारे ट्रेडमार्क हंै- हमारे पास कॉपीराइट है।’ एक बार नहीं बार-बार ऐसा करते हंै। हमने ओशो की एक फ्री वीडियो मैग्जीन निकाली थी ‘ओशो संदेश’ जिसे हम सारी दुनिया में भेजते थे। जिसके 37-38 एडिशन भी निकल चुके थे।
सारी दुनिया के लोग इसको देखते थे। अब पूना वालों ने इसको बंद करवा दिया। उन्होंने सीधे तो हमें नहीं बोला हमारे पास यू-ट्ïयूब से मेसेज आया कि आप इसे बंद कर दीजिए। क्योंकि अगर वह सीधे बंद करवाते तो हम पूछते, कि आप पेपर दिखाइए अगर आपके पास कॉपीराइट हैं।
दरअसल सारे इंटरनेट और यूट्ïयूब के जो हेडक्वॉटर हैं वो अमेरिका में हैं वो लोग इस झंझट में भी नहीं पढ़ना चाहते। फिर उन्हें लगता है जो पूना आश्रम कह रहा है वो ही सही है। हम लोग कहते भी हैं यू-ट्ïयूब, इंटरनेट को कि इनके पास कॉपीराइट के पेपर नहीं हैं। कोर्ट ने भी बोल दिया है ‘कि ओशो का कोई ट्रेडमार्क नहीं है, फोरन के सिग्नचर एक्सपट्ïर्स भी कहते हैं कि उनके पास कॉपीराइट के पेपर नहीं हैं। पर वो कहते हंै ‘हमको इस झगड़े में पड़ना नहीं है आप आपस में मामला सुझलाएं वो जवाब ही नहीं देते।’
वो कुछ सुनने को तैयार नहीं होते वो समझते हंै पूना आश्रम मतलब ओशो के उत्तराधिकारी। उनमें यह धारणा इसलिए है है क्योंकि पूना आश्रम ओशो का हेडक्वार्टर रहा है इसलिए वहां पर जो भी लोग बैठे होंगे वो सब ओशो के उत्तराधिकारी हैं। वो उनकी बात मानते हैं। हम लोग उनसे कहते हैं कि आप सबूत दिखाइए अगर आपके पास कॉपीराइट हैं तो। इनके ऊपर पुलिस केस हैं, क्रिमिनल केस हैं, कि इन्होंने झूठ बोलकर इतनी बड़ी हस्ती के नकली-हस्ताक्षर करके कॉपीराइट पर अपना दावा पेश किया है, यह तो बहुत ही घृणित अपराध है। इसके लिए तो कड़ी सजा होनी चाहिए थी।
स्वार्थ, संपत्ति या सत्ता की खातिर – ओशो शैलेंद्र

इसी विषय पर ओशो के छोटे भाई ओशो शैलेंद्र का कहना है- रॅायल्टी, कॅापीराइट ये सब छुद्र बातें ओशो जैसी विराट चेतना के लिए कितनी बेमानी हैं! क्या राम, कृष्ण या जीसस के नाम का, अथवा रामायण, गीता या बाइबल का पेटेन्ट हो सकता है? वे सारे अस्तित्व के लिए एक वरदान हैं। ओशो की मंगलमयी चेतना पूरे विश्व के लिए आशीर्वाद है और उनका जगत के लिए जो विराट योगदान है उनके लिए रॅायल्टी और कॅापीराइट जैसे व्यापारिक शब्द क्या मायने रखते हैं? उन्होंने जो भी कहा, जो भी किया, वह सारे मनुष्य जाति के कल्याण के लिए समर्पित है। ज्ञान के इस अपरिसीम महासागर को मु_ी में भरने वाले चंद-लोग अपने अधिकार का मिथ्या दावा कर रहे हैं। इसका अर्थ यही है कि ओशो के इतने करीब रहकर भी उनमें वह प्रज्ञा नहीं जग पायी जिसकी ओशो उनसे आशा रखते थे।
ओशो, जिन्होंने अतीत व भविष्य से मुक्त होकर हमें हर पल का आनन्द लेते हुए वर्तमान में जीना सिखाया, उन्होंने अपना मृत्युपत्र बनाया होगा, यह बात ही कितनी हास्यास्पद है! जो लोग कॅापीराइट के नाम पर उनका कार्य फैलने से रोक रहे हैं, उनका कुछ निजी स्वार्थ, संपत्ति या सत्ता की खातिर होगा। अन्यथा इतना वाद-विवाद क्यों, इतनी धोका-धड़ी क्यों? ओशो ने प्रत्येक के लिए, भीतर जाकर स्वयं के सम्राट स्वरूप को जानने का मार्ग प्रस्तुत किया। उस अंतर्यात्रा के मार्ग पर जो पथिक चले नहीं, वे लोग ही शायद इन बाहरी चीजों में इतना रस लेते हैं।
ओशो रॉयल्टी के पक्ष में नहीं थे-मा नीलम

- इसी विषय पर अपने साक्षात्कार में ओशो की लंबे समय तक सचिव रहीं मा नीलम ने बताया- ओशो रॉयल्टी के पक्ष में कभी नहीं थे। वो अपने काम को फैलाने व लोगों तक पहुंचाने के पक्ष में थे। यहां तक कि वह अपनी पुस्तकों के संकलन व संग्रहण के भी पक्ष में नहीं थे। वो चाहते थे उनके प्रवचन ज्यों के त्यों बिना किसी कांट-छांट के पुस्तक रूप में आएं। पुस्तकें जो उनके मूल प्रवचनों से ज्यूं की त्यूं बनी हैं उन पर कोई कॉपीराइट न हो। मैंने उन्हें कहा कि जो ओशो के अपने संन्यासी ओशो के प्रकाशन में हैं कम से कम उनसे तो रॉयल्टी मत लो या जो गरीब प्रकाशक हैं उनसे मत लो तो उन्होंने कहा ‘तुम इस सब से दूर रहो, हम सब से रॉयल्टी लेंगे।’ बल्कि उन्होंने, जो गरीब प्रकाशक था उस पर केस किया क्योंकि वह केस लड़ नहीं सकता था और वह हार गया। इस पर उन्होंने कहा कि इससे और प्रकाशकों को भी सबक मिलेगा और वह हिम्मत नहीं करेंगे। इतना ही नहीं इन्होंने उसकी सारी किताबें फाड़ दीं। हमने कितना कहा, समझाया कि इन किताबों को ऐसे फाड़ कर बर्बाद मत करो। लोगों को या जरूरतमंदों को मुफ्त बांट दो, पर उन्होंने एक न सुनी। कहते हैं हम ओशो को उनके काम को फैला रहे हैं।
कॉपीराइट तो हमेशा से था – संजय भारती
इसी विषय पर यैस ओशो के संपादक संजय भारती ने अपने साक्षात्कार में कहा कि-कॉपीराइट हमेशा से जो भी फाउंडेशन है ओशो की उसके पास रहे हैं। यह कोई आज की बात नहीं है। अगर हम कोई भी पुरानी किताब उठाकर देख लें 1972 की ही उस पर भी कॉपीराइट लिखा हुआ है। वो बात अलग है उस पर कॉपीराइट ‘जीवन जागृति केंद्र’ के नाम से नजर आएगा।
ओशो के कॉपीराइट का नाम बदलते रहे कभी वो जीवन जागृति केंद्र था, कभी युक्रान्त था, कभी रजनीश फाउंडेशन, कभी रजनीश फाउंडेशन लिमिटेड था। कभी योग संन्यास इंटरनेशनल था, कभी रजनीश फाउंडेशन इंटरनेशनल था, कभी ओशो फाउंडेशन इंटरनेशनल था, कभी ओशो फ्रेंड इंटरनेशनल था।
अगर रजनीशपुरम का डिस्कोर्स देखेंगे तो ओशो उस डिस्कोर्स में भी बोल रहे हैं कि रजनीश फाउंडेशन इंटरनेशनल को, रजनीश फ्रेंड्ïस इंटरनेशनल कर रहे हैं और सारे कॉपीराइट अब उसके पास होंगे। ओशो के मुख से बोली गई यह बातें उनके प्रवचनों में हैं जो कोई भी देख सकता है।
ओशो जब तक बॉडी में थे वो एक-एक किताब देखते थे। पहले किताब को वो साइन कर के देते थे, क्या उन्होंने कभी नहीं देखा कि इनके ऊपर किस चीज का कॉपीराइट लिखा हुआ है?
ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन तो ओशो की बॉडी छोड़ने से पहले से है इनके ऊपर भी कॉपीराइट लिखा है। ओशो की साइन की हुई ऌपुस्तकें हैं जिनके ऊपर ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन लिखा हुआ है।
ओशो का काम सही व शुद्धतम रूप से, उनके स्तर व क्वालिटी के अनुसार हो बस हम चाहते हैं, क्योंकि ओशो भी यही चाहते थे। लोग हमसे परमिशन लें, लेकिन लेना नहीं चाहते।
फिर लोग कहते हैं कि हमें धमकी दी जाती है। धमकी क्या होती है सिर्फ एक लीगल नोटिस ही तो जाता है फेसबुक का या यू-ट्ïयूब का कि- ह्लद्धद्बह्य ष्शठ्ठह्लद्गठ्ठह्ल ष्ड्डठ्ठठ्ठशह्ल ड्ढद्ग ह्वह्यद्गस्र मनमानी न करनी दी जाए अपनी मनमानी से लोगों ने ओशो के साथ फेसबुक, यू-ट्ïयूब पर यह तक किया हुआ है कि ओशो का चेहरा निकाल कर के सेंटाक्लोज के चेहरे पर लगाया हुआ है।
तो किसी ने ओशो को ऊपर से अलग पगड़ी पहनाई हुई है। कोई ओशो की वीडियो में पीछे फिल्मी गाने डाल रहा है, तो कोई अपनी तस्वीर व वीडियो उनकी वीडियो में मिक्स कर रहा है। आप अगर कुछ अच्छा करना चाहते हैं तो आप परमिशन लीजिए, परमिशन दी जाती है। अब लोग कहते हैं कि वह ओशो के नाम से कुछ पब्लिश नहीं कर सकता।
अब यैस ओशो भी तो निकलती है क्योंकि उन्होंने वहां से परमिशन ली हुई है।
ऐसे ही डायमंड पॉकेट बुक्स है, हिन्द पॉकेट बुक्स है, दिव्यांश पब्लिकेशन है। यह भी ओशो की पुस्तकें छापते हैं क्योंकि इन्हें परमिशन दी जाती है। कॉपीराइट भी शेयर किया जाता है।
जैसे बहुत सारे यू-ट्ïयब के चैनल और फेसबुक के पेजों को भी परमिशन दी गई है। जो लोग दुरुपयोग करना चाहते हैं वो ही लोग परमिशन नहीं लेना चाहते।
आप क्यों नहीं उस जगह को सशक्त करते हैं। अगर आप उसको विके्रंदित कर देंगे तो ओशो का सारा काम बिखर जाएगा।
रही बात रॉयल्टी की, पहली बात तो यह ओशो की जो रॉयल्टी आती है वो ऐसा नहीं है कि कोई जैसे कहा जाता है सैकड़ों-करोड़ों रुपये की रॉयल्टी आती है। ऐसा कुछ भी नहीं है। यहां से बहुत लंबे समय से एक नोमिनल रॉयल्टी के ऊपर किताबें लोगों को दी जा रही है। फिर यहां पर एक बहुत बड़ा पब्लिशिंग डिपार्टमेंट है और बाहर भी जैसे वेस्ट में भी एक ऑफिस को देखना पड़ता है। एक वेबसाइट है जिसमें बहुत सारे लोग काम कर रहे हैं, दर्जनों कम्प्यूटर हैं, बहुत सारे एडिटर हैं एक बड़ा विभाग है।
इसी तरह पश्चिम में अमेरिका में ऑफिस रखना जरूरी है कि वेस्टर्न जितनी भी पब्लिशिंग कंपनी है उन सबको देखना है। इन सब का इतना खर्चा है कि रॉयल्टी जो भी आती है उसमें से बामुश्किल उससे वो वाले खर्चे पूरे किए जा सकते हैं।
कॉपीराइट इसलिए है ताकि क्वालिटी बनी रहे-मा अमृत साधना

- इसी विषय को लेकर ओशो कम्यून की प्रवक्ता व ओशो टाइम्स की पूर्व संपादिका मा अमृत साधना से बातचीत हुई, प्रस्तुत है उसके प्रमुख अंश।
पुराने संन्यासी जो आश्रम में रहे हैं वो जानते हैं कि ओशो खुद कॉपीराइट चाहते थे। सबसे पहले तो मोतीलाल बनारसी दास ओशो की किताबें छापते थे। उनसे भी ओशो ने रॉयल्टी के लिए कहा था। उसके बाद डायमंड आया तब भी ओशो ने कहा कि कॉपीराइट जरूरी है हर किताब पर।
हर किताब पर हमेशा उन्होंने खुद कॉपीराइट लिखवाया है। दूसरी बात ओशो जब अमेरिका गए तो वहां भी जाकर खुद हस्ताक्षर किए कॉपीराइट के क्यों? क्योंकि वो जानते थे कि जो उन्होंने बात कही हैं उसको जरूर लोग काट-पीटकर तोड़ मरोड़कर पेश करेंगे। ओशो का कहना था प्रेम और भक्ति के नाम पर मेरे अपने ही लोग, मेरे अपने ही शिष्य हैं मेरा काम बरबाद करेंगे। उनका यह कहना था मेरे शब्दोंं को जैसे है वैसा ही प्रस्तुत किया जाए। इसीलिए कॉपीराइट का उनका बड़ा आग्रह था। पुरानी किताबों में आप देखेंगे उनकी 1969-1970 की हर किताब पर उनके रहते कॉपीराइट लिखा हुआ है। और हर किताब बड़े चाव से वो खुद देखते थे कि किताब का आवरण कैसा हो, कौन सा कलर हो, कौन सा डिजाइन हो हर चीज वो देखते थे। सन्ï 1990 तक उनके सामने किताबें आती रहीं वो कॉपीराइट देखते रहें, इसका मतलब क्या?
ओशो ने हमेशा कहा कि तुम मेरे काम को अधिक से अधिक और शीघ्र फैलाओ। ऐसे में कोई उन्हें सस्ता बेचना चाहे या मुफ्त लुटाना चाहे, तो आपको उसमें भी हर्ज है, क्यों?
भारत के लोग जरा भी क्वालिटी कॉन्शस नहीं हैं वह, क्वालिटी के साथ बहुत गहरा समझौता करते हैं उन्हें गुरु के काम से कोई मतलब नहीं होता, कोई उनको परवाह नहीं है कि ओशो कैसे प्रस्तुत किए जाएं। उसमें फोटो साफ नहीं होती, कागज इतना सस्ता और खराब होता है कि पढ़ने में कुछ नहीं आता प्रूफ रीडिंग की तमाम गलतियां होती हैं। बताइए क्या क्वालिटी है? ओशो को प्रस्तुत करने के लिए भाव और लगन होनी चाहिए।
क्वालिटी का तो बहाना हुआ, ओशो भारत के लोगों की परिस्थिति जानते थे पर उन्होंने अपने रहते भी किताबों की क्वालिटी के साथ समझौता किया था ताकि उनका काम फैले, रुके नहीं। उन्होंने डायमंड पॉकेट बुक्स से सस्ती किताबें भी छपवाई जिसकी क्वालिटी उस वक्त रीबेल की तुलना में बहुत कम थी फिर अब क्यों नहीं ऐसा करने दिया जाता?
देखिए वो समय था जब भारत गरीब था, ओशो नए थे, अनजान अपरिचित थे। तब 200 रुपये की किताब कोई नहीं खरीदता लेकिन अब समय बदल गया है। लोगों के पास बहुत पैसा है। वह अब दुनिया के अमीर लोगों में शामिल हो रहे हैं। ओशो अब सब जगह उपलब्ध हैं मोबाइल, वाट्ïसअप, रेडियो पर अब तो हर जगह ओशो उपलब्ध हैं। अब वो समय नहीं रहा कि आप ओशो को सस्ती क्वालिटी में प्रस्तुत करें। अब तो ओशो को उनकी शान में गरिमा में प्रस्तुत किया जा सकता है।
मुफ्त के तो ओशो हमेशा विरोध में रहे। मुफ्त और सस्ता वो जमाना गया दो पीढ़ियां बीत चुकी हैं ओशो ने अपना शिखर इतना ऊंचा कर लिया है कि सस्ते और फोकट के लोगों की कोई बराबरी नहीं है। सब लोग यह बात समझते हंै अब वो करने की जरूरत नहीं है। आप कीमत चुकाएं, जो कीमत चुकाएगा उसी को ओशो समझ में आएंगे।
बहुत लोग हैं जो, ओशो को इंटरनेट, यू-ट्ïयूब पर उपलब्ध करा रहे हैं पर उनको शिकायतें हंै कि पूना कम्यून वाले उसे ब्लॉक करा देते हैं, हटा देते हैं। तो जब कोई प्रयास कर रहा है ओशो की देशनाओं को फैलाने का और ओशो खुद भी कहा करते थे कि ‘मुझे ज्यादा से ज्यादा उपलब्ध कराओ’ तो फिर कम्यून बाधा क्यों डाल रहा है?
देखिए, ओशो ने ‘उपलब्ध कराओ यह कहा लेकिन कैसे उपलब्ध कराओ। कैसे मतलब किस रूप में उसको उपलब्ध कराओ। क्या जो आप डाल रहे हंै वो प्रस्तुत करने योग्य हैं या संदर्भ से निकालकर आपने अपने मन से कुछ डाला है या उसमें जोड़-तोड़ की है, कुछ लोग पीछे म्यूजिक डाल देते हैं, कुछ ओशो के आगे ऐसा आभामण्डल सा बनाते हैं, कहीं फूलों का ताज पहना है, कहीं सूरज की रोशनी निकल रही है, यह ओशो है क्या? इतना बेहूदा पन करते हंै इसमें अपनी आवाज जोड़ देंगे। आप देखिए तो सही क्या-क्या कर रहे हैं। ओशो बहुत क्वालिटी कॉन्शियस थे। प्रवचन में आने से पहले वो कितना सजते थे। अपने रोब, अपनी चप्पल, टोपी, अंगूठी सब पूरा देखभाल करके सजधज के फिर आते थे। उनके आस-पास के लोगों की टे्रनिंग थी कि मुझको ऐसे प्रेजेंट करो। लेकिन लोग जो डाल रहे हैं ओशो को इतने भद्ïदे तरीके से दिखा रहे कि शर्म आती है हमें।
एक ओशो प्रेमी ने फेसबुक पर ओशो की, बिना टोपी वाली तस्वीर पोस्ट की, आपने उसे भी ब्लॉक करवा दिया, क्या यह सच है?

हां यह सच है। ओशो खुद नहीं चाहते थे कि मेरी बिना टोपी वाली तस्वीर का इस्तेमाल किया जाए। एक समय था जब वो जैन मुनि जैसा रहते थे तब टोपी नहीं थी। पर बाद में समय बदला और उनकी छवि भी बदली।
यहां तक कि उन्होंने अपनी अंतिम यात्रा से पूर्व भी टोपी पहनने को कहा था कि मुझे ग्रे रंग की टोपी पहनाओ, ग्रे रंग का गाउन पहनाओ। वो नहीं चाहते थे बिना टोपी वाली तस्वीर डाली जाए तो हम क्यों जबर्दस्ती करें। आप प्राइवेटली देखिए। अपने घर में प्रदर्शनी लगाइए
पब्लिकली इस्तेमाल मत करो। आप माला पहनो, दाढ़ी बढ़ाओ, नांचो, गाओ जो करना है करो, हम नहीं रोक रहे। पब्लिकली ओशो कैसे दिखाए जाएं इसके हमारे गाइडलाइंस है।
क्या ओशो ने अपने किसी प्रवचन में ऐसी बात कही की मेरी इस तरह की तस्वीर को ऌपब्लिकली नहीं लाना चाहिए?
नहीं यह तो उन्होंने प्राइवेटली जयेश और अमृतो को कहा था। अब उन्हीं पर तुम्हारा भरोसा नहीं है, जिसका मतलब ओशो पर ही भरोसा नहीं है, कि ओशो ने गलत लोग चुने हैं। अब अगर आपको ओशो को गलत मानना है तो इन लोगों को गलत मानो। ओशो उस समय शरीर छोड़ कर गए इस भरोसे के साथ की जिम्मेदारी निभाएंगे इसका मतलब है ओशो को भरोसा था।
लेकिन जो लोग ओशो को बिना किसी काटछांट के बिना बदलाव के ओशो को उपलब्ध करा रहे हैं उनके साथ ऐसा क्यों होता है?
देखिए जितना भी ओशो का मेटर है ऑडियो, वीडियो वगैरह, उसके हमारे पास कॉपीराइट हैैं, तो हमारी छोटी सी सबसे गुजारिश है कि सिर्फ आप एक सूचना दे दीजिए ‘ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन’ को कि आप ऐसा कर रहे हैं।
यह ओशो ने खुद कहा किताब का नाम डालो ताकि उसका सोर्स कहां है यह लोगों को पता चले। इतनी सी जो शर्त है वो लोग पूरी नहीं करते और अपनी मनमर्जी करते हंै। देखिए हम जो भी कर रहे हैं उसमें हमारा कोई स्वार्थ नहीं है। सिर्फ ओशो को सही ढंग से पहुंचाना है। एक आपको उदाहरण दूं- एक बार मैं बीकानेर गयी थी और वहां पर लोगों ने कहा ‘हमारे पास वीडियो है आप मत लाना मैंने कहा ‘ठीक है अच्छी बात है तो उनके कम्प्यूटर पर ‘सांच सांच सो सांच’ और ‘कोपले फिर फूट आयी’ जो वीडियो भी उनकी क्वालिटी इतनी घटिया रिकॉर्डिंग थी मैंने कहा यह वीडियो तो हमने रिलीज ही नहीं किए तो आपको कहां से मिले। इतनी घटिया क्वालिटी जिसमें न ओशो की पिक्चर ठीक दिख रही है, न आवाज साफ है। वो किसी को कुछ इशारा कर रहे हैं, कहीं आंखों से देख रहे हैं, वो सब उसमें डाल दिया गया। बिना एडिटिंग के।
अब यह ओशो के संन्यासी पुराने उनके पास रहे इतनी भी उनको खबर नहीं एक भी वीडियो उसमें दिखाने लायक नहीं है 40 प्रतिशत वहां यंग लोग थे जो टेक्नोलॉजी कॉन्शियस थे तो उन्होंने इतनी हंसी उड़ाई कहा कि ‘यह आपके ओशो हैं क्या आपके पास टेक्रोलॉजी नहीं थी ष्ड्डठ्ठ’ह्ल 4शह्व श्चह्म्द्गह्यद्गठ्ठह्ल द्बह्ल ठ्ठद्बष्द्गद्य4.’ अब यह जिम्मा किसका है बताइए? हमें क्वालिटी कॉन्शियस होना चाहिए कि नहीं? तो यह काम हम कर रहे हैं। अब लोग ऐसे गलत वीडियो डाल देंगे तो हमारा काम है उसको हटाना।
