Osho: ओशो का पूना आश्रम ‘ओशो कम्यून’ ओशो के संन्यासियों एवं प्रेमियों के लिए ऐसे ही है जैसे हिन्दुओं में माता के भक्तों के लिए वैष्णो देवी। भले ही ओशो के कितने ही आश्रम व केंद्र खुल जाएं परंतु ओशो कम्यून का एक अपना ही विशेष महत्त्व है और रहेगा। वह एक ऐसा ऊर्जा पुंज है जहां न केवल ओशो उठे-बैठे हैं बल्कि उन्होंने वहां अपने विजन के बीज भी बोए हैं। आज उसी आश्रम में आए बदलावों के कारण न केवल ओशो के पुराने वरिष्ठï संन्यासी उनसे नाराज हैं बल्कि कई अन्य नए लोग भी नए परिवर्तनों से असहमत हैं। जबकि पूना के इस आश्रम से जुड़े लोग व समर्थक सभी परिवर्तनों को जायज, जरूरी व ओशो की देशना के अनुसार बताते हैं। आखिर सच क्या है? ये आरोप हंै या नासमझियां, भ्रांतियां हैं या चालबाजियां? जानें लोगों के
सवाल व पूना वालों के जवाब।
शशिकांत ‘सदैव’
स आश्रम को ओशो ने सिर्फ आश्रम नहीं ‘अपना शरीर’ कहा है आज उस पूना आश्रम में आए परिवर्तनों के कारण बहुत सारे संन्यासी ऐसे भी हैं जिन्होंने उस आश्रम में रहने के बजाय उसे छोड़ना बेहतर समझा
और आज वह वहां पर प्रतिबंधित हैं जिस पर पूना वालों का कहना है कि यहां पर उन्हीं लोगों को बैन किया गया है जिन्होंने इस आश्रम के खिलाफ अपना विरोध प्रकट किया है या ओशो के काम में बाधा डालने की कोशिश की है। आश्रम के अंदर रहने वालों के हिसाब से बाहर वाले गलत हैं तो बाहर वालों के हिसाब से कम्यून में रहने वाले गलत हैं। प्रस्तुत है पक्ष-विपक्ष में कम्यून की सही तस्वीर उकेरती संन्यासियों की शिकायतें व दलील।
ओशो प्रेमियों को सही या गलत कहने का अधिकार
इन्हें किसने दिया?
– स्वामी चैतन्य कीति
आश्रम में आए परिवर्तन व उसको छोड़ने की वजह बताते हुए स्वामी चैतन्य कीर्ति कहते हैं- प्रश्न उठता है, जैसे शीला ने कम्यून को छोड़ा, उसके बाद उसकी जो सारी हकीकत थी वो लोगों के सामने आई। पर उस समय ओशो शरीर में थे इसलिए उन्होंने उसको निकाला, लेकिन आज की बात करें तो जो लोग भी अध्यक्ष या सचिव
पद पर बने हुए हैं अगर वो कुछ गलत करते हैं तो उनको कौन निकालेगा? ओशो के शरीर छोड़ने के छह महीने बाद बहुत लोगों ने इनकी पावर को क्रप्ट होते हुए देखा। लोगों को लगा कि यह पावर का
दुरुपयोग कर रहे हैं जैसे- ओशो ने किसी को, ‘स्कूल ऑफ मिस्टीजम’ चलाने का कार्यभार दिया हुआ था। उसमें यह लोग हस्तक्षेप करते थे। इसका नतीजा यह हुआ कि जो भी 5-6 लोग थे वह सभी चले गये। ऐसे धीरे-धीरे करते हुए एक-एक ईंट गिरती गई। हम लोग दस साल तक रहे। मैं तो प्रकाशन विभाग से जुड़ा रहा। मैंने देखा कि यह लोग संन्यासियों को परेशान कर रहे हैं, उनकी किताबें फड़वा दी जाती हैं, उनको रॉयल्टी
के नाम पर सताया जा रहा है। जबकि ओशा रॉयल्टी के विषय में कहते थे कि ‘जो भी रॉयल्टी हमें देगा उसके बदले उससे कहो कि मेरी पुस्तकों का प्रचार करें।
जैसे हम उनसे कहें कि आप विज्ञापन दे दीजिए रॉयल्टी के जगह, यह निर्देश थे ओशो के। और मैंने यह देखा कि अभी कुछ ही बरस हुए हैं ओशो को शरीर छोड़े पर इन्होंने तो दुखी कर रखा है लोगों को। और तो और कम्यून से ओशो के चित्र हटाए जा रहे हैं। और इस पर यदि हम उनसे कुछ पूछते हैं कि ऐसा क्यों कर रहे हो? तो उनका एक ही जवाब होता वो बोलते ‘न्यूयॉर्क से पूछना पड़ेगा, क्योंकि हमारा रजिस्टर्ड ऑफिस अब वो हो गया है वहां से जो निर्देश मिलेगा उसके हिसाब से हम चलेंगे। जैसे- मुझे कोई प्रेस रिलीज भेजनी
होती थी, तो वो कहते आप पहले न्यूयॉर्क भेजिए वो मंजूरी देंगे, कि आपने क्या लिखा
है प्रेस रिलीज में।
ओशो के समय में ऐसा बिल्कुल नहीं था कि मुझे किसी के पास मंजूरी के लिए कुछ भेजना पड़े। रहा सवाल कि ‘हम आश्रम का विरोध करते हैं’ तो यह सच है। वहां बहुत कुछ ऐसा हो रहा था जो गलत था। अगर हमें
दिखाई पड़ता है कि जयेश ने प्रकाशन के पैसे को बिल्डिंग में लगा दिया है और हम सवाल उठाएंगे तो आलोचना तो होगी ही हमारी, बुरे तो हम बनेंगे ही। इतना ही नहीं, जहां ओशो हमारे साथ नाचते थे, जहां हमें दर्शन देते थे। उन्होंने उस पोडियम को यह कहकर तुड़वाने की कोशिश की, कि ‘म्यूनसिपालटी वालों की
नजर में यह गलत बना हुआ था। अब तक जो गैरकानूनी नहीं था वह ओशो के जाने के बाद गैरकानूनी हो गया? पर जब म्यूनसिपालटी वालों से हमने पूछा तो उन्होंने कहा ‘हमने तो कोई ऑर्डर नहीं दिया तोड़ने
का। इस तरह हमने वो पोडियम बचवाया। तो बुरे तो हम लगने ही थे।
इनको लगता है कि इन्होंने ओशो को सही समझा है और बाकी सब ने गलत, तो अपनी समझ अपने पास रखें पर इनको किसने यह अधिकार दिया कि आप पूरे जनमानस को, ओशो प्रेमियों को कंट्रोल करो? यह समझ किसी पर थोपी नहीं जा सकती। अगर वो कह रहे हैं कि ऐसा मानो, वैसा मानो, इसका मतलब वो पादरी हो गये
हैं। ऐसी बात तो पादरी करते हैं, यह तो एक तरह पादरी की भूमिका हो गई कि ‘मैंने जो कहा वो करो नहीं तो तुम्हें बैन कर दूंगा।
यह एक चर्च हो गया। जो ओशो को पढ़ेगा, सुनेगा वो अपने अर्थ स्वयं निकालेगा। वो कौन होते हैं अपने अर्थ थोपने वाले। जैसे इनको स्वतंत्रता है ऐसे ही दूसरों को स्वतंत्रता है। जब ओशो ने सारी चीजें डायरेक्ट बोली हैं तो मध्यस्त बनकर इन्हें बीच में अपनी व्यवस्था करने की आवश्यकता नहीं।
ऐसे ही ओशो की समाधि को लेकर रहा। जो जगह ओशो की समाधि के नाम से थी उसे उन्होंने ‘च्वांगत्सु ओडिटोरियम’ कर दिया, जबकि स्वयं ओशो ने उस स्थान को अपनी समाधि स्थल के रूप में चुना था।
अगर आप ओशो का ‘आई लीव यू माई ड्रीम’ वीडियो देखो, जिसमें अमृतो खुद बोल रहा कि ‘and he said my samadhi will be in chuang tzu’
जब ओशो खुद चाहते हैं कि मेरी समाधि च्वांगत्सू में हो, तो आप कौन होते हो वहां से हटाने वाले? इतने प्रेम से उन्होंने खुद अपनी नजरों के सामने बनवाई थी बहाना यह था कि यह मेरा शयन कक्ष बन रहा है, पर वो अंतिम शयन कक्ष था एक तरह से जहां उनके फूल रखे जाएंगे। इनको दस साल बाद यह ख्याल आया कि इसे समाधि
स्थल नहीं कहा जाना चाहिए, जबकि इससे पहले तो समाधि ही थी। जिसके अंदर जाने के पहले यह पैसे भी लिया करते थे।

ओशो ने, दुकान को मंदिर बनाना सिखाया है, मंदिर को दुकान बनाना नहीं
- -मा योग नीलम
मा योग नीलम, ओशो कम्यून जो पूरी तरह एक ‘मेडिटेशन रिजॉर्ट’ बन गया है उससे असहमत हैं, और कहती हैं- मैंने ओशो के मुख से कभी ‘रिजॉर्ट’ शब्द नहीं सुना है। हां वो यह जरूर कहते थे कि रिजॉर्ट की
सारी सुविधाएं कम्यून में होनी चाहिए। पर कम्यून को हटाकर सिर्फ मेडिटेशन रिजॉर्ट बना दिया जाए ऐसा मैंने नहीं सुना। अपने समय में ओशो को जब पता चला कि आजकल ‘मेडिटेशन वर्ड’ का चलन है, लोग वेलनेस के प्रति आकर्षित हो रहे हैं, लोग शारीरिक आराम के साथ-साथ मानसिक शांति भी चाहते हैं जिसके लिए वह चिकित्सा की कई पद्धतियों का उपयोग कर रहे हैं तो ओशो ने वही व्यवस्था अपने
आश्रम में भी चाही। वह हमेशा चाहते थे कि मनुष्य शारीरिक और मानसिक तनाव से मुक्त होकर सरलता से ध्यान में उतरे। इसीलिए उन्होंने उन पद्धतियों को जिसे हम तथाकथित पाश्चात्य पद्धतियां कहते हैं उनको अपने आश्रम में स्वीकारा। यहां तक कि विश्व के किसी भी कोने में यदि कोई ऐसी हीलिंग टेक्नीक आती जो मनुष्य के
लिए हितकारी होती, ओशो उसका अपने कम्यून में स्वागत करते तथा हमें वह सीखने को कहते। किसी भी चीज को अपने आश्रम में अपनाने से पहले या प्रारंभ करने से पहले उसे पहले समझते और निरीक्षण करते और यदि वह टेक्नीक उनके विजन से मेल नहीं खाती तो वह उसमें कुछ चेंज करवाते और कहते ‘इसे ऐसे नहीं, ऐसे करो।’ ऐसे धीरे-धीरे कई चीजें व पद्धतियां आश्रम में सम्मलित होती गईं और कम्यून का हिस्सा बनती गईं परंतु मैंने ऐसा कभी नहीं सुना कि ओशो ने कभी कहा हो कि कम्यून को नष्टï कर दो और इसको सिर्फ ‘मेडिटेशन रिजॉर्ट’ बना दो, जो अब हो गया है। ओशो ने हमें, दुकान को कैसे मंदिर बनाना है यह कला सिखाई है न कि मंदिर को कैसे दुकान बनाया जाए, यह नहीं सिखाया है। लेकिन पूना वाले ओशो के समाधि स्थल को एक आम-साधारण स्थल बना रहे हैं। कम्यून को रिजॉर्ट बना रहे हैं। यूं तो मा नीलम के पास कम्यून से अलग
होने के कई कारण हैं परंतु यहां हमें वह, वो पहली घटना बता रही हैं जिससे न केवल आपसी असहमति का दौर प्रारंभ हुआ बल्कि इनर सर्कल के टूटने की शुरुआत भी हुई। वह कहती हैं- इनर सर्कल के टूटने का प्रारंभ ओशो की मृत्यु के 6 महीने बाद प्रारंभ हुआ जब जयेश और अमृतो ने कहा कि ओशो ने कहा
था-
don,t look at the person,look at the function which he is doing.if the function is replaced with any one else who can sponsor himself financially,than give that work,
इनर सर्कल के लिए यह पहला झटका था।
क्योंकि ओशो के लिए हमेशा व्यक्ति मुख्य था, काम मुख्य नहीं। ओशो का कहना था कि ‘तुम क्या करते हो यह मुख्य नहीं तुम कैसे करते हो यह मुख्य है, कार्य को पूरे प्रेम और लगन से करो, पूरी क्षमता, रचनात्मकता और आनंद से करो कार्य कोई भी जरूरी या गैर जरूरी नहीं होता उसे कैसे किया जाता है किस भाव से किया जाता है। यह जरूरी है।
हम जिस टे्रन में चढ़े थे, इन्होंने उसका ट्रेक बदल दिया
- मा धर्मज्योति

ओशो कम्यून में आए परिवर्तन तथा उसे छोड़ने के कारण बताते हुए मा धर्म ज्योति कहती हैं- मैं ओशो के शरीर छोड़ने के बाद भी दस साल वहां रही। सन्ï 2000 में मैं कम्यून से बाहर आयी उस समय मुझे ऐसा
महसूस होने लगा कि शुरुआत हो गई थी बदलाहट की जैसे कि ओशो के फोटो हटाए जाने लगे थे। समाधि में ग्रुप शुरू होने लगे थे। इस तरह की बातें देखकर मुझे लगा कि जिस टे्रन में हम जहां जाने को बैठे थे
उन्होंने वो टे्रक चेंज कर दिया है, तब लगा कि उतरो इस टे्रन से यह हम कहां जा रहे हैं।
उदाहरण से समझाऊं तो कम्यून में एक पोडियन था पुराना जो बाद में इन्होंने तोड़ा वहां रोज ओशो के प्रवचन चलाए जाते थे। पोडियम पर ओशो की तस्वीर रखी रहती थी। एक दिन मैं गयी वहां तो देखा की ओशो की फोटो नहीं थी, तो मुझे लगा शायद क्लीनर रखना भूल गए हैं तो मैंने उनसे पूछा कि ‘फोटो कहां गयी है? तो
उन्होंने कहा कि ‘हमें कहा गया है यहां से फोटो हटा दी जाए। तो मैंने पूछा उनसे कि ‘आपको ऐसा किसने कहा है? उन्होंने उत्तर दिया कि ‘ऐसा उन्हें अमृतो ने कहा है। तब मैं अमृतो से मिलने गई। मैंने अमृतो से पूछा कि ‘आपने पोडियम से ओशो कि फोटो क्यों हटवा दी?
अमृतो ने मुझे कहा कि ‘because of stupid indians, they bow down here’ (मूर्ख भारतीयों के कारण, क्योंकि वह यहां आकर नत मस्तक होते हैं) इसलिए हमने वहां से फोटो हटवाई है। मैंने कहा कि ‘stupid indian will bow down at the empty podium also’ उसमें गलत ही क्या है। ओशो ने
सभी मार्गों की चर्चा की है अगर किसी का भक्ति मार्ग है, उसको गुरु के लिए प्रेम है, वहां जाकर झुकता है तो इसमें क्या हर्ज है? फिर वो गुस्से में चिल्लाना शुरू कर देता है
कि ‘we don,t want this nonsense here’ कह कर बड़ बड़ाने लगा।
यह बात है 2000 की, 20 जनवरी की है जब ओशो की फोटो हटाई गई थी। ऐसे ही 19 जनवरी को ओशो की कुर्सी नहीं लाई गई थी हॉल में, जो रोज लाई जाती थी। हैरानी की बात तो यह है कि ओशो की मृत्यु के दस साल बाद इन्हें लगा कि अब ऐसा नहीं होना चाहिए। कम्यून में बदलाव के ये सारे ही फैसले इनर सर्कल लेता था। जिसमें नाम के लिए दो चार लोग ही बचे थे। जो-जो निकल गए उनकी जगह पर जिनको शामिल किया गया वो सब जयेश के चुने हुए ही लोग थे। वो सब हां में हां कहने वाले लोग थे। तो फैसले की कहें तो दो-तीन लोग ही करते थे या कहें कि सिर्फ एक ही आदमी फैसले लेता था। जयेश ने अपने पास सारे अधिकार ले लिए फिर बाकी लोगों को अपनी बात मनवा लेता था। 19 जनवरी कुर्सी नहीं आई ओशो की बुद्धा हॉल में। जबकि ओशो ने खुद ही अपनी मृत्यु के समय यह बात कही थी कि ‘मेरे जाने के बाद मेरी कुर्सी यहां लाकर रखना, ये मेरी मौजूदगी का तुम्हें एहसास कराएगी। मुझे याद है जब मैं हॉल से बाहर निकली तो मा साधना मुझे मिलीं तब मा साधना ‘इनर सर्कल’ में शामिल हो चुकी थीं। मैंने मा साधना से कहा कि ‘क्या हुआ आज ओशो की कुर्सी हॉल में आई नहीं? तो मा साधना ने जवाब दिया कि ‘कब तक कुर्सी लाते रहेंगे। इतना ही नहीं आश्रम से ओशो की तस्वीर हटा दी, समाधि का नाम हटा दिया। और भी बहुत कुछ बदल दिया और जब अति हो गई तो हमने वहां से हटना ही उचित समझा।
वहां ओशो की सच्ची फोटो नहीं चलती पर फर्जी वसीयत चलती है
- ओशो शैलेंद्र
कम्यून में आए बदलाव को लेकर ओशो शैलेंद्र का कहना है कि- अभी पूना आश्रम में जाकर देखते हैं तो वहां पर ओशो की एक भी फोटो नजर नहीं आती, जब कि हर ओशो संन्यासी के लिए उनकी तस्वीर अपने घर में या कार्यस्थल पर रखना गहन प्रेम की और आनन्द की बात है। उनका समाधि स्थल भी अब उस नाम से नहीं जाना जाता। पूछने पर बताते हैं कि ओशो अपने बारे में कभी अतीत की तरह बात करना पसंद नहीं करते। तो क्या उनके प्रति हमारा प्रेम भी अतीत की बात हो गयी? इन व्यर्थ की बातों का तो कोई तालमेल ही नहीं बैठता। उनकी सच्ची फोटो नहीं चलती, मगर फर्जी वसीयत एवं मृत्युपत्र मजे से चलता है। ओशो की पुस्तकों में से उन अंशों को हटाना जो रिसोर्ट के अधिकारियों को अच्छे नहीं लगते, बिल्कुल असहनीय है।
ओशो ने कहा कि ‘मनस्थिति बदलें, परिस्थिति नहीं। लेकिन वहां उल्टा हुआ है, परिस्थिति तो खूब बदल गयी, मनस्थिति नहीं बदली। इसलिए इस बदलाहट से सहमत होने का सवाल ही नहीं उठता। अगर बदलाहट बेहतरी की ओर हो तो स्वागत योग्य है। मैं बदलाहट का विरोधी नहीं, किंतु उसकी दिशा उच्चतर, श्रेष्ठतर, शुभतर की तरफ ऊर्ध्वमुखी होनी चाहिए। उनकी समझ के अनुसार ओशो को वे जैसा समझ सके, समझे हैं। उनके अपने तर्क होंगे। अब मंजर ये है कि उनके बाद उनके ही संन्यासी उनकी वैचारिक सम्पदा पर अपना
हक जता रहे हैं। उसके लिए सालों से कोर्ट में मामला चल रहा है। कितना समय, कितनी उर्जा उसमें व्यय हो रही है उसका कोई हिसाब नहीं। ओशो का सारा जीवन अपनी अंतिम सांस तक, पूरी मनुष्यता के
लिए समर्पित रहा और इन लोगों का पूरा जीवन इन निष्पत्तिहीन बातों में बीता जा रहा है। इतना श्रम अपने ऊपर करते तो कभी के खुद ही बुद्ध बन जाते।
योजनाबद्ध तरीके से यह ओशो की देशनाओं को
खत्म करना चाहते हैं

-स्वामी आनंद अरुण
कम्यून में आए बदलाव को लेकर यदि स्वामी आनंद अरुण की सुनें तो वो कहते हैं- यह पूरा एक षड़यंत्र है यह लोग ओशो की हत्या करके ही शांत नहीं हो गए। ओशो की पूरी देशना को नष्टï करना इनका उद्ïदेश्य
है। हत्या तो कर ही दी अब उनका नाम, इज्जत, उनके वक्तव्य सब कुछ खत्म करना चाहते हैं। दस साल तक ओशो की तस्वीर रही पूना आश्रम में, सन्ï 2000 में इन्होंने वहां से ओशो की तस्वीर हटवा दी।
कहते हैं ‘ओशो की आज्ञा है तस्वीर हटा दी जाए। कोई पूछे इनसे ‘क्या दस साल के बाद ओशो आज्ञा देने आए थे? हर किताब पर ओशो खुद चाहते थे कि उनकी तस्वीर छापी जाए। सच तो यह है ओशो खुद ही अपनी तस्वीर चुन कर देते थे। ओशो कहते थे ‘मेरे शब्द जितना बोलेंगे उससे ज्यादा मेरा चित्र बोलेगा। इन्होंने कताबों पर से भी ओशो की तस्वीर हटवा दी, और तो और जिसका आश्रम है, उन्हीं का जन्मदिन, बुद्धत्व दिवस अब आश्रम में नहीं मनाया जाता। वहां गुरु पूर्णिमा नहीं मना सकते, गुरु की समाधि पर जाकर माथा
नहीं टेक सकते। अब देखिए यह कितना बड़ा षड़यंत्र है।
इन्होंने ओशो को तो खत्म कर दिया। इससे भी इन्हें संतोष नहीं है, ओशो का अरबों रुपया खा रहे हैं इससे भी संतोष नहीं है। यह लोग बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से ओशो की देशनाओं को खत्म करना चाहते हंै। यह ओशो भक्तों को इतना तंग करना चाहते हैं कि वो आश्रम बंद कर दें। हमारे 500 से ज्यादा आश्रम पूरी दुनिया में इन्होंने बंद करवाए। इन्होंने कॉपीराइट, टे्रडमार्क को लेकर इतना परेशान किया कि आश्रम बंद करने पड़े।
हम लोग तो ओशो के प्रति समर्पित हैं उनके प्रेम में पड़े हैं इसलिए इतने टॉर्चर सहने के बाद भी ओशो का आश्रम चला पा रहे हंै। अधिकांश लोगों में इतना धैर्य नहीं था। उन्हें इतना ज्यादा धमकाया कि बंद करना पड़ा। जर्मनी में 96 सेंटर थे वो सब बंद करवा दिए इन्होंने। एक कम्यून बचा है उसको भी रोज धमकाते रहते हंै। यह चाहते हैं ओशो के सारे आश्रम बंद हो जाएं। सारी तस्वीरें हट जाएं, सारा नाम मिट
जाए, ओशो सिर्फ एक लेखक के रूप में रहें जिससे कॉपीराइट का अरबों रुपया अपने खाते में डालते रहें।
इतना ही नहीं अब आश्रम विदेशियों के हाथ में है। जो काम पहले संन्यासी किया करते थे वो अब अमेरिकन कंपनियों को दे दिया गया है। जिसके चलते आश्रम, आश्रम न रहकर होटल या रिजॉर्ट बन गया और बहुत
महंगा हो गया है। आम इंसान या संन्यासी के लिए उतनी कीमत चुकाना मुश्किल है। उसकी कीमत उन्हें कम करनी चाहिए। रहा सवाल यह कि पुराने संन्यासियों ने कुछ गलत किया है अगर कुछ गलत किया है तो
इनको पू्रफ करके दिखाना चाहिए। सच तो यह है जिन्हें यह गलत लोग क रहे हैं वही लोग सच में ओशो का काम कर रहे हैं और आज से नहीं जबलपुर के दिनों से कर रहे हंै। और कुछ लोग तो हमसे पहले से भी कर रहे हैं। हम ओशो आश्रम का विरोध कैसे कर सकते हैं? ओशो आश्रम हमारा मंदिर है, हमारा तीर्थ है, उस मंदिर में गुंडे घुस गये हैं और उस पर अत्याचारियों का अधिकार हो गया है इसके चलते इन्होंने हमें और बहुतों को बैन कर दिया है। हम लोग अपने गुरु की समाधि पर माथा टेकने भी नहीं जा सकते। अब इससे बड़ा अत्याचार और क्या हो सकता है। अब इसके विरोध में हम नहीं बोलेंगे तो कौन बोलेगा?
हम आश्रम का विरोध नहीं करते आश्रम में जो गलत लोगों का कुशासन चल रहा है हम उसका विरोध करते हैं। इसका विरोध करने का हमें जन्म-सिद्ध अधिकार है।
एक तरफा जानकारी हमेशा अधूरी होती है और अधूरी जानकारी सदा हानिकारक, इसलिए यह जरूरी है कि हम आरोपों एवं शिकायत के साथ-साथ उनको भी सुनें, जो न केवल आश्रम से जुड़े हैं
बल्कि उसे चला भी रहे हैं। इसी संदर्भ में उपर्युक्त शिकायतों पर अपनी बात रखते हुए ओशो कम्यून से अमृत साधना ने कहा
यहां हर परिवर्तन ओशो के कहे अनुसार हो रहा है

– अमृत साधना
ओशो के आश्रम के नाम की बात करें तो उसका नाम ओशो के समय से बदलता रहा है पहले ‘रजनीश आश्रम था फिर ‘ओशो कम्यून’ बना उसके बाद ‘ओशो मेडिटेशन रिजॉर्ट’ बना और अभी ‘ओशो इंटरनेशनल मेडिटेशन रिजॉर्ट’ है। जैसे लगातार उन्होंने अपने नाम बदले वैसे ही इसका रूप भी बदलता गया। अगर ओशो के समय के और अब के समय के कम्यून की बात करें तो जिन्होंने तब देखा था यदि उसे वह अब देखें तो वह हैरान हो जाएंगे कि यही वह जगह है या दूसरी है। आज जो लोग यहां आ रहे हैं, उनमें युवा पीढ़ी अधिक है जो आर्थिक एवं तकनीक की दृष्टि से अधिक विकसित हैं, अधिक समझदार जो अपने लिए जीती है, अपने निर्णय खुद करती है, व्यावहारिक है।
धार्मिकता पर उनकी कोई पकड़ नहीं है। ओशो को तो गुरु मानना वह कतई स्वीकार नहीं करते। वह ओशो को साहित्यिक रूप में, एक वैज्ञानिक रूप में मानना चाहते हैं। ओशो कहते थे ‘मैं अंतर्जगत का वैज्ञानिक
हूं। गुरु मानना, चरण छूना, पूजा पाठ करना, माला डालना ये सब यहां से गायब है क्योंकि अगर आप ओशो को गुरु मानते हैं तो कुछ लोग जो पुराने हैं, यहां मठाधीश की तरह होते, जो कहते कि हम ओशो के
साथ रहे, हमारे चरण छुओ, हमारे लिए खास मकान की व्यवस्था हो, आदि। यह सब आप यहां नहीं पाएंगे। यहां यह जो समानता और स्वतंत्रता है यह आज के युग का पासवर्ड है।
देखिए हमें ओशो का एक बहुत बड़ा संदेश था, या यूं कहें वो एक आदेश था कि किसी प्रकार से मुझे धर्म मत बनने देना। यह कोई तीर्थ स्थान नहीं है। यहां लोग तीर्थ स्थान समझ कर न आएं। क्योंकि फिर वो पंडे-पुजारी की तरह शुरू हो जाते हैं कोई दण्डवत प्रणाम कर रहा है तो कोई पूजा- अर्चना में लग जाता है और फिर वो व्यवसाय बन जाता है।
ओशो ने कहा था- ‘मुझे कहीं भी रुकने मत देना कहीं भी धर्म मत बनने देना। पर आपको हैरानी होगी जानकर ओशो ने जिस पोडियम पर बैठकर प्रवचन दिया था अब लोगों के लिए वो एक मक्का मदीना का पत्थर हो गया। ऐसे ही ओशो के जाने के बाद उनकी उपस्थिति के लिए भक्ति भाव में उनकी कुर्सी रखने का चलन शुरू हुआ जिस पर ओशो बैठते थे, अब वो लोगों के लिए एक पवित्र सिंहासन हो गया जहां पर
ब्रह्मïदेव बैठे हो। यह सब होने लगा था यहां। चेयर के आस-पास बहुत नाटक होने लगे थे। इसलिए बहुत कुछ हटाया है हमने। अब आप बताइए पण्डे- पुजारी बनकर हमारा फायदा होता की नुकसान। इन्हीं परिवर्तनों से कई लोग सहमत नहीं हैं।
जिनको यह शिकायत है कि ओशो की तस्वीर यहां नहीं मिलती? हां, वो तो नहीं
मिलेगी। देखिए ओशो की एनर्जी देखने की आप में क्षमता नहीं है इसलिए तो आप तस्वीर चाहते हैं। आप अगर हाथ जोड़ने, भक्ति-भाव से यहां आएं हैं तो आप यहां से निराश होंगे। अगर आप ध्यान के लिए, होश जगाने के लिए आए हैं तो आपको हर जगह ऊर्जा का अंबार लगा दिखाई देगा। यह जगह भक्तों के लिए बिल्कुल नहीं है।
भक्ति कौन से तल की जिसमें होश हो। ओशो ने यहां तपस्या की है, लोगों को अगर यहां ऊर्जा नहीं मिल रही है तो ये उनकी कमी है।
हमने ओशो के बाद कम्यून को रिजॉर्ट बना दिया है यह आरोप गलत है। 1989 में एक मीटिंग हुई थी जिसमें अमृतो, आनंदो और नीलम शामिल थे, उसमें खुद नीलम जी ने कहा कि ‘ओशो हमेशा मेडिटेशन रिजॉर्ट चाहते थे।’ और उसमें उनके जो विचार थे वो उन्होंने खुद कहे कि मैं चाहता हूं कि एक स्वीमिंगपूल वगैरह हो लेकिन उस समय टेक्स इतने ज्यादा थे कि ऐसा व्यवहारिक रूप से संभव नहीं था इसलिए उसको व्यवहार में लाने में दस साल लगे।
लक्जरी के पक्ष में तो ओशो शुरू से थे। ओशो कहते थे ‘कुछ भी करो पर स्तर कम नहीं करना है अगर लोग शिकायत करते हैं तो उनको बोलो अपना स्तर ऊंचा करें। यह सिर्फ रिजॉर्ट बनकर रह गया है यहां ध्यान पर जोर नहीं दिया जाता। जो लोग ऐसा सोचते हंै या कहते हैं इससे साफ है उन्होंने यहां ध्यान नहीं किया होगा। यहां दिन में 7-8 ध्यान नियमित होते हैं। और शाम को सिर्फ एक घंटा डांस या कोई पार्टी या फिर कोई क्रिएटिव एक्टिविटी होती है।
लोगों को आठ घंटे का ध्यान नहीं दिखाई दे रहा, तो हम क्या करें? मैं तो कहती हूं किसी में है हिम्मत जो सारे ध्यान करे? लोग 7-8 में से 4-5 ध्यान की भी हिम्मत नहीं रखते या उससे ज्यादा का उनका मन नहीं है।
देखिए हम सिर्फ ओशो को उपलब्ध करा रहे हैं शुद्धतम रूप में। इसमें क्या गलत है क्या सही, यह सब हम नहीं कह रहे हैं लेकिन हमको जो निर्देश दिए हैं ओशो ने कि ‘मुझको इस तरह उपलब्ध कराओ, वो हम कर रहे हैं। अब इसमें किसी को सिर्फ भक्ति निकालनी है, किसी को सिर्फ सूफी ले जाना है, किसी को सिर्फ योगा करना है, वो उसकी मर्जी है। हम तो बहुआयामी रूप में ओशो को उपलब्ध करा रहे है।, इसमें से जिसको जो चुनना है वो चुन ले।
रहा सवाल यहां कुछ लोगों के बैन किये जाने का- आप अगर कुछ गड़बड़ करोगे, कम्यून को नष्टï करने की कोशिश करोगे, अदालत में झूठे व गलत बयान दोगे तो जरूर बैन है। अब ओशो तो शरीर में हंै नहीं,
यह आश्रम ही उनका शरीर है और यह लोग उस पर ही अटैक करने में लगे हुए हैं। इसके खिलाफ न जाने क्या-क्या कार्यवाही करा रहे हैं इसलिए वह लोग बैन हैं। कितने लोगों को तो स्वयं ओशो ने भी बैन
किया था, जब उन लोगों ने वापस आना चाहा तो ओशो ने कहा ‘जहां तुमने मेरे खिलाफ बोला है वहीं जाकर कहो कि मैं गलत था। अगर तुमने किसी अखबार में मेरे खिलाफ लिखा तो उसी अखबार में जाकर
माफीनामा लिखो।
यहां संन्यास का रूप भी बदला है, संन्यास तो है पर उसकी शक्ल बदल गई है, दरअसल क्या है संन्यास जो है, वह गुरुवाद का एक आडम्बर बन गया था। भारत में लोगों को गुरु बनने का बहुत शौक है, शिष्य
कोई नहीं बनना चाहता। तो यह कह सकती हूं जिनको गुरु बनने का शौक है उनका वह शौक जरूर पूरा नहीं हो रहा है। इसलिए अभी संन्यास का जो रूप बदला है उसमें देने वाला मुख्य नहीं लेने वाला मुख्य है। ओशो खुद कहते थे ‘मैं तो सिर्फ गवाह हूं, तुम्हारा सीधा अस्तित्व से संबंध है, यही हमने जोड़ दिया है।
हमारी एक वेबसाइट है (neosannyas,org) उस पर ओशो के संन्यास पर सारे संदेश हैं तथा संन्यास के नए एवं पुराने नाम भी दिए गए हैं जो चाहे, वो नाम ले सकता है। तो संन्यास का जो रूप भ्रष्ट हो गया था, उसे हमने साफ सुथरा किया है। माला देना,सर्टिफिकेट देना या तिलक लगाना यह संन्यास थोड़े ही है। संन्यास तो भीतर से अपने आप को जलाने की प्रक्रिया है। और जो ओशो की तस्वीरें हटाई हैं वह नई
पीढ़ी के लिए है क्योंकि किसी को पूजना या गुरु मानना वह बिल्कुल नहीं चाहते। वह ओशो की चेतना को मानते हैं। जब से हमन यह किया है तब से ओशो की ऊर्जा अधिक फैली हुई लगती है, ज्यादा प्रकट हो गई है।
रहा सवाल ‘मा’ और ‘स्वामी’ संन्यास नाम से पूर्व शब्दों का उनका प्रयोग इसलिए बंद कर दिया है क्योंकि वह एक धार्मिक इंसान की छवि को उकेरते हैं। उनको सुनकर किसी बड़े-बुजुर्ग, दाढ़ी वाले बाबाओं जैसी सोच बनती है। ऐसा लगता है यह जगह किन्हीं चुने हुए लोगों के लिए ही है। इसलिए हमने इसे हटाकर संन्यास को सरल जिंदगी से, सबके लिए जोड़ दिया है। जो लोग कहते हैं कि यह आश्रम महंगा है उनसे पूछिए कि आज भारत की आर्थिक स्थिति कैसी है? आज प्याज और सोने की क्या कीमत है? पहले कितनी थी? फिर भी
वह सोना खरीदते हैं, यह तो नहीं कहते कि पहले सोने का दाम कम करो फिर खरीदेंगे, इसलिए महंगाई सिर्फ एक झूठा तर्क है, न आने का बहाना है। यह उनकी मानसिक बाधा है, आर्थिक नहीं। कम्यून सिर्फ उन लोगों के लिए है, जिन्हें ध्यान की प्यास है। आप सोना खरीदने, गाड़ी खरीदने या भूमि खरीदने जाते हैं तो
मोलभाव करते हैं? आपको खरीदना है, इसलिए खरीद ही लेते हैं। फिर आप यह क्यों सोचते हैं कि आप ध्यान सीख रहे हैं तो इतना महंगा क्यों? यदि आपमें ध्यान की प्यास है तो आप यह नहीं कहते हैं कि थोड़ा सस्ते किस्म का ध्यान करा दीजिए, क्योंकि यह आपकी जिंदगी से जुड़ा है। सोना सस्ता या महंगा खरीद लेंगे तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। एक बच्चा पानी बेच रहा था, एक रुपए में एक गिलास। ग्राहक ने कहा, ‘चार आने
में देना हो तो दे।’बच्चे ने कहा कि ‘रहने दो अभी आपको प्यास नहीं है वरना मोलभाव नहीं करते।
यह उनके लिए है, जिनमें प्यास है। वे लोग अपनी पहुंच उस लेवल तक बनाएंगे कि वे यहां आ सकें।
ओशो को स्वतंत्र व शुद्ध रूप में यहां पर बरकरार रखना हमारी जिम्मेदारी है।
बाकी लोग अपनी समझ के कारण ओशो की ध्यान विधियों में बदलाव करते रहते हैं।
उन्हें ऐसा लगता है कि अब ओशो नहीं हैं तो हम ही ओशो बन जाते हैं। उनके फेर बदल के कारण ही ध्यान का पूरा प्रभाव लोगों पर नहीं हो पाता। गलत व आलसी लोगों के कारण ओशो की ध्यान विधियों में
फेर-बदल हुआ है।
ओशो ने कहा था, मेरे बाद कोई गुरु नहीं, कोई चेला नहीं, कोई उत्तराधिकारी नहीं। आप चेहरे की बात करते हैं, तो भविष्य में यह सब चेहरे विदा हो जाएंगे। चेहरे के साथ कल्ट आता है और कल्ट के साथ वही
सब कुछ आता है, जो अन्य कल्टों के साथ आया और फिर उसमें फॉल आता है। तो, ओशो के बाद अब कोई नहीं। ओशो ने कहा कि मैं यहां उपलब्ध हूं, इसकी सूचना भर दे दो, लोगों को प्यास होगी तो आएंगे।
इन सारी बातों पर कम्यून की ओर से अपनी बात रखते हुए संजय भारती का कहना है-
ओशो यहां अपने सही व असली रूप में अनुभव होते हैं
- संजय भारती
यहां कम्यून से जुड़ी बहुत सारी चीजें ऐसी हैं जो कि भ्रातियों के रूप में फैलाई गई हैं, तो कई तथ्यों को बढ़ा-
चढ़ाकर नकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया जाता है। लेकिन जब लोग यहां आकर देखते हंै तो उन्हें बिल्कुल साफ नजर आता
है और कोई शिकायत नहीं होती। जैस-
बहुतों का कहना है कि यह जगह बहुत मंहगी है
जबकि ऐसा नहीं है अगर व्यक्ति यहां पर अपने 5-7 दिन के लिए आ रहा है तो आज की तारीख में जितने खर्चे हम बाहर जाकर करते हंै उनसे शायद कुछ कम खर्चे में आप यहां आकर रह सकते हैं। लेकिन बाहर ऐसा कहा जाता है कि यह आश्रम तो बस अमीरों के लिए हो गया है और यह भूल जाते हंै कि इस जगह पर कोई
डोनेशन नहीं ली जाती है, केवल सबके सहयोग से यह चलता है। साथ ही जो भी बेस्ट दिया जाना चाहिए, वो यहां पर दिया जाता है। उसके बदले में हम जो यहां से पाते हंै जिस प्रकार का माहौल, सुविधाएं
हमें मिलती हैं अगर देखें तो उसके अनुसार हम देते ही नहीं जितने की हम सुविधाएं लेते हैं।
यहां पर जितनी भी थेरेपीज या कोर्सेस चलते हैं, उससे जो पैसा मिलता है उसका इस्तेमाल इस जगह को बेहतर बनाने के लिए किया जाता है। यह बात हम भूल जाते हैं कि यही आरोप पहले ओशो पर भी लगाए गए
थे। ओशो को धनवानों का गुरु कहा जाता था। यह तब भी कहा जाता था कि उनका जो आश्रम है वो बहुत मंहगा है। लकिन अब लोग मैनेजमेंट के ऊपर यह दोष मढ़ते हैं।
जो लोग इस जगह के यह कहकर शुभचिंतक या हितैषी बनते हंै कि ‘जगह थोड़ी सस्ती होनी चाहिए’ वो बताएं कि क्या वो कोई आर्थिक योगदान देना चाहते हैं? वो इतना भी नहीं देना चाहते कि जो सुविधाएं मिल रही हैं उनके भी पैसे दे दिए जाएं। जोकि बहुत महंगा नहीं है। लेकिन लोग मूल्य चुकाना ही नहीं चाहते। लोग
चाहते हैं कि सब मुफ्त मिल जाए।
यहां से तस्वीर क्यों हटाई है उसका कारण केवल और केवल यह है कि ओशो अपने शुद्धतम ऊर्जागत रूप में यहां पर अनुभव किए जाएं। भले ही आज यहां ओशो का चित्र न हो, लेकिन ओशो जितने यहां पर अनुभव
होते हैं वो आपको कहीं भी अनुभव नहीं हो पाएंगे। किसी भी केंद्र पर कहीं पर भी। ऐसा नहीं है कि ओशो देखने को ही नहीं मिलेंगे। जब आप बुकशॉप पर जाएंगे वहां आपको ओशो के फोटो नजर आएंगे। ओशो
से जुड़ी जो चीजें हैं, जो उनके सिंबल हैं वो हर चीज यहां देखने को मिलेगी। जैसे आश्रम में आपको कहीं उनकी आवाज नजर आएगी, उनके आस-पास बजाए संगीत सुनने को मिलेगा, तो जगह-जगह आपको उनकी
पेटिंग्स नजर आएगी। वो सब है यहां।
समाधि को लेकर परिवर्तन सिर्फ इसलिए है क्योंकि परंपरा के नाम पर जैसे अन्य चीजें होती हैं वो सब न शुरू हो जाएं, जोकि ऐसा हुआ भी। क्योंकि बीच में इसका नाम समाधि हाल भी था, परंतु समाधि के नाम से यहां बहुत सारे लोग आकर वो चीजें करने लगे थे जो कि पारंपरिक रूप से समाधि में की जाती है। जैसे कोई साष्टïांग दण्डवत कर रहा है तो कोई वहां गीत गाने में लगा है जबकि ये सिर्फ एक साईलेंस मेडिटेशन के लिए एक ऑडिटोरियम है। भले ही किसी का यह भक्ति भाव हो पर जिसकी वो समाधि है उसकी शिक्षा के
खिलाफ जाना भी तो क्या गलत नहीं है? ऐसे तो अगर कोई कहे ‘हम उसके ऊपर चढ़कर नाचेंगे यह हमारी अभिव्यक्ति है’
यह तो नहीं चलेगा। ओशो ने उस स्थान को किस उद्ïदेश्य से बनाया है यह समझना पड़ेगा। ‘क्योंकि यह समाधि है और समाधि पर सब का हक है। इसके दर्शन के लिए किसी को रोका नहीं जा सकता’ इसके
चलते यहां ऐसे लोग भी आ जाते थे जो शराब पीकर चले आते थे, तो कोई समाधि के बहाने चोरी कर जाता था। इन सब हरकतों के कारण हमें कुछ लोगों को बैन भी करना पड़ा, लेकिन समाधि नाम ऐसा है
कि हम इस नाम के साथ किसी को रोक नहीं सकते इसलिए इसका नाम ‘च्वांगत्सू ऑडिटोरियम’या च्वांगत्सू रख दिया। रहा सवाल कम्यून में बैन संन्यासियों का तो किसी ने कोई न कोई अपराध तो
किया ही होगा। जैसे आश्रम के खिलाफ बोलना या आश्रम में रहकर अपना व्यवसाय चलाने की कोशिश करना। बाहर के लोगों से पैसे ऐंठना। अपने नाम के कार्ड बांटकर नए लोगों को फुसलाना
आदि, जैसे काम करना तो यह सब यहां नहीं चलेगा। जहां तक खिलाफत का सवाल है, यदि किसी ने प्रेस में जाकर यह भी कह दिया कि यह लोग आश्रम को महंगा कर रहे हैं या अपनी मनमानी कर रहे हैं तो यह भी एक तरह का विरोध है। और यदि उनको इस जगह के खिलाफ होने की स्वतंत्रता है तो मैनेजमेंट को भी स्वतंत्रता है
कि वो उनको यहां आने देते हैं या नहीं।
